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रविवार, 8 फ़रवरी 2009

ओजोन परत

ओजोन परत
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह है, जहां हमारा जीवन संभव है । वायुमंडल ठोस, द्रव्य व गैस के कणोंसे मिलकर बना है । हमारी पृथ्वी चारों ओर से वायुमंडलीय कवच से घिरी हुई है । यह कवच दिन में सूर्य की तेंज पराबैगनी किरणों से हमारी रक्षा करता है, और रात में पृथ्वी को ठंडी होने से बचाता है । वायुमंडल में ७८ प्रतिशत नाइट्रोजन, १६ प्रतिशत आक्सीजन, ०.०३ प्रतिशत कार्बन डाई आक्साइड गैस है, इसके अतिरिक्त अन्य गैसों में नियान, हाइड्रोजन, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड भी अल्प मात्रा में पायी जाती है । वयुमंडल को मुख्य चार मंडलों में विभाजित किया गया है, जिन्हें क्षोभ मंडल, समताप मंडल, मध्य मंडल व ताप मंडल कहते है । क्षोभमंडल वायुमंडल की सबसे निचली पर्त है । इस मंडल में ऊचांई बढने के साथ तापमान कम हो जाता है । समता मंडल में ऊँचाई के साथ तापमान में बहुत कम परिवर्तन होता है । धुवों पर इसकी मोटाई अधिक होती है, जबकि विषुवत् रेखा पर इसका अस्तित्व कभी-कभार नही के बराबर होता है । मध्य मंड़ल में पहले तो तापमान बढ़ता है, परन्तु बाद में कम हो जाता है । तापमंडल में तापमान लगभग १७०० सेन्टीग्रेड तक पहुंच जाता है, और इसकी कोई निश्चित सीमा नही होती है । समतापमंड़ल में ही ओजोन गैस से निर्मित एक पर्त पायी जाती है, जिसे ओजोन पर्त कहते है । ओजोन पर्त के इस मंडल में पाये जाने के कारण ही इसे ओजोन मंडल भी कहते है । यह ओजोन मंड़ल पृथ्वी से २०-२५ किमी पर सबसे अधिक है और लगभग ७५ किमी की ऊचांई से ज्यादा पर यह न के बराबर हो जाता है । ओजोन हल्के नीले रंग की सक्रिय वायुमंडलीय गैस है । यह समताप मंडल में प्राकृतिक रूप से बनती है । यह आक्सीजन का ही रूप है । एक ओजोन अणु में तीन आक्सीजन परमाणु होते है । इसका रासायनिक सूत्र ०३ है । वायुमंडल में ओजोन का प्रतिशत अन्य गैसों की तुलना में कम है । यह हवा में व्याप्त् दूसरे कार्बनिक पदार्थोंा से शीघ्रता से क्रिया करती है । इसकी खोज जर्मन वैज्ञानिक किस्चियन श्योन बाइन ने सन् १८३९ में की थी । जब सूर्य की घातक पराबैगनी किरणें वायुमंडल में आक्सीजन के साथ क्रिया करती हैं, तो प्रकाश विघटन के कारण ओजोन की उत्पत्ति होती है और यही ओजोन एक पर्त के रूप में सूर्य की तेज पराबैगनी किरणों को अवशोषित कर सम्पूर्ण जीव-जगत की रक्षा करती है । प्राणवायु आक्सीजन अपने तीन आक्सीजन परमाणुआें से मिलकर ओजोन गैस का निर्माण करती हैं, जिसकी थोडी सी मात्रा भी प्राणी के लिये मृत्यु का आमंत्रण होती है, परन्तु हर्ष का विषय है कि यह ओजोन गैस समताप मंडल में एक रक्षक छतरी की भांति कार्य करती है । सम्पूर्ण जैव मंडल के लिये यह ओजोन छतरी रक्षा कवच कहलाती है । वे रसायन जो ओजोन परत को क्षति पहुंचाते है, उन्हें ओजोन क्षयक रसायन कहते हैं । इनमें क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स (सी.एफ.सी), मिथइल ब्रोमाइड आदि प्रमुख है । इनकी खोज सन् १९२८ में हुई थी । क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स फ्लोरीन, क्लोरीन व कार्बन से मिलकर बनते है । सी.एफ.सी. का उपयोग फ्रीजव एअर कंडीशनर में प्रशीतलक के रूप में होता है । इसलिये ये हमारे लिये उपयोगी है, परन्तु रासायनिक गुणों के आधार पर ये हमारे पर्यावरण के लिये अनुकूल नहीं है । सन् १९७२ में अमेरिकी वैज्ञानिक रोलैन्ड ने अपने शोध के आधार पर यह बताया कि उत्तरी व दक्षिणी गोलाद्धों के वायुमंडल में क्लोरोफ्लोरो कार्बन्स के कण पाये गये है । साथ ही वैज्ञानिकों ने प्रयोगों द्वारा यह भी सिद्ध हुआ कि ये क्लोरोफ्लोरो कार्बन अणु निष्कीय होने के साथ-साथ स्थायी भी होते है, जो सैकड़ों वर्षो तक वायुमंडल में उपस्थित रहते है । यह अणु पराबैगनी किरणों से क्रिया करके क्लोरीन मुक्त करते है, जो ओजोन को आक्सीजन में विधटित कर क्लोरीन के आक्सीजन बनाते है । यह क्लोरीन आक्साइड पुन: एक मुक्त आक्सीजन परमाणु के साथ मिलकर आक्सीजन और एक क्लोरीन परमाणु बना देते हैं । यह क्रम इसी प्रकार चलता रहता है । वैज्ञानिक रोलैन्ड के अनुसार एक क्लोरीन परमाणु के लगभग एक लाख अणुआें को नष्ट कर सकता है । वर्ष १९८० के आरम्भ में डा. फोरमैन ने अपने उपकरणों की सहायता से अपने शोध के आधार पर बताया कि अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन पर्त बहुत पतली हो गयी है । बसन्त ऋतु में इस परत की मोटाई ५०-६० प्रतिशत तक घट जाती है । आरम्भ में डा. फोरमैन की इस बात पर किसी ने विश्वास नही किया, लेकिन जब उनका यह महत्वपूर्ण शोध कार्य प्रतिष्ठित अर्न्तराष्ट्रीय वैज्ञानिक शोध पत्रिका नेचर में प्रकाशित हुआ, तब सम्पूर्ण विश्व स्तब्ध रह गया । इसके पश्चात इस विषय पर अध्यनरत् अन्य वैज्ञानिकों ने भी डा. फोरमैन की खोज की पृष्टि की और बताया कि अंटार्कटिका के ठीक ऊपर ओजोन पर्त बहुत अधिक पतली हो गयी है , जिसे ओजोन छिद्र कहते है । जिसका आकार संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के पूरे भू-भाग और गहराई माउण्ट एवरेस्ट के बराबर है । वर्ष २००० में अमेरिकी वैज्ञानिक माईकल केरिलों ने बताया कि अंटार्कटिका के ठीक ऊपर बसन्त ऋतु में ओजोन छिद्र का आकार८.८६ करोड़ वर्ग किलो मीटर के बराबर हो गया है । वैसे तो ओजोन परत की क्षति का दुष्प्रभाव प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सारी पृथ्वी पर पड़ेगा । एक रिर्पोर्ट के अनुसार आस्ट्रेलिया के ऊ पर तो सन् १९६० से ही ओजोन पर्त के पतली होने का खतरा मंडरा रहा है । शायद इसीलिये सबसे अधिक चर्म रोगी आस्ट्रेलिया मेंहै । यहां लगभग अधिकांश नागरिक धूप में निकलने से पहले तापमान किस्म के चर्म रोग प्रतिरोधक क्रीम, लोशन व तेल का उपयोग अपनी त्वचा की सुरक्षा के लिये करते हैं। ओजोन पर्त की क्षति से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले दक्षिणी ध्रुव में स्थित कुछ देश जैसे आस्ट्रेलिया, दक्षिणी अमेरिका का दक्षिणावर्ती भाग, दक्षिण अफ्रीका व न्यूजीलैण्ड आदि है । ओजोन पर्त की क्षति से होने वाले परिवर्तनों के फलस्वरूप वायुमंडल में तापमान बढ़ रहा है । वातावरण में इस प्रकार तापमान के बढ़ने को ग्रीन हाउस प्रभाव कहते है । वैज्ञानिकों के अनुसार अगर तापमान में वृद्धि इसी प्रकार होती रही तो आने वाले समय में मौसम में अनेंक प्रकार के परिवर्तन जैसे असमय बारिश, सूखा व बाढ़ आदि हो सकते हैं । तापमान बढ़ने का प्रभाव मुख्य रूप से हिमालय पर वर्षोंा से प्राकृतिक रूप से जमी बर्फ के ऊपर पड़ेगा । हिमालय पर प्राकृतिक रूप से जमी बर्फ को ग्लेशियर कहते है । हिमालय में ग्लेशियर के इस प्रकार पिघलने से समुद्र में जल स्तर बढ़ेगा, जिसके परिणाम स्वरूप समुद्र तट पर बसे अधिकांश शहरों के आंशिक या पूर्ण रूप से डूबने का गंभीर खतरा है । मान्ट्रियल में वर्ष १९८९ में एक आचार संहिता पर अर्न्तराष्ट्रीय सहमति हुई, जिसके अनुसार सन् २००० तक सभी विकसित देश सी.एफ.सी. व अन्य ओजोन क्षयक रसायनी का उत्पादन व उपयोग पूर्णरूप से समाप्त् करने का प्रावधान है । विकासशील देशों के लिये प्रतिबंध की समय सीमा सन् २०१० तक निर्धारित की गयी है । इस आचार संहिता में विकासशील देशों के लिये सी.एफ.सी. व अन्य ओजोन क्षयक रसायनों का उत्पादन व उपयोग पूर्णस्वरूप से समाप्त् करने के लिये आर्थिक व तकनीकी सहायता देने का भी प्रावधान है। सारे संसार में १६ सितम्बर का दिन अन्तर्राष्ट्रीय ओजोन परत संरक्षण दिवस के रूप में मनाया जाता है । अक्टूबर १९९५ तक लगभग १५० देशों ने इस आचार संहिता पर हस्ताक्षर करके आचार संहिता को मानने का निश्चय किया है । भारत ने भी ओजोन परत की हानि के दुष्परिणामों को देखते हुए वर्ष १९९२ में मान्ट्रियल संहिता पर हस्ताक्षर करके ओजोन क्षयक रसायनों का उपयोग पूर्णरूप करने का निर्णय लिया है । ***केंद्र ने शौचालय निर्माण की लागत एक हजार रूपए बढ़ाईसम्पूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने शौचालय के निर्माण की मौजूदा इकाई लागत १५०० रूपये से बढ़ाकर २५०० रूपये कर दिया है । ग्रामीण विकास मंत्री डॉ. रंघुवंश प्रसाद सिंह ने बताया कि वर्ष २००४ में इकाई लागत केवल ६२५ रूपये थी जिसे २००६ में बढ़ाकर १५०० कर दिया गया था लेकिन २००८ में यह राशि बढ़कर २५०० रूपये कर दी गई है । उनहोंने बताया कि २००४ में लाभार्थी को १२५ रूपये देने पड़ते थे लेकिन २००६ में लाभार्थी का हिस्सा ३०० रूपये कर दिया गया । डॉ. सिंह ने बताया २००८ में इकाई लागत बढ़ाये जाने के बावजूद लाभार्थी का हिस्सा नहंी बढ़ाया गया है ।

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