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शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

भारत में पब संस्कृति

भारत में पब संस्कृति

भारत की प्राचीन संस्कृति में शराब, शराबखानों या पबों की कोई परंपरा थी या नहीं? हमारे वैदिक
साहित्य और उसके बाद के ग्रंथों में इसकी बहुत विस्तार से और बार-बार चर्चा मिलती है। नगर के संभ्रांत लोग इसके सेवन के लिए विशेष स्थलों पर उत्सवपूर्ण आयोजन करते थे-यानी सेलिब्रेशन। ऋग्वेद में इसकी अनेक स्थलों पर चर्चा मिलती है। वह वर्णन इतना विस्तृत है कि लगता है कि यहां के निवासियों को इसकी जानकारी उससे बहुत पहले से हो चुकी थी। इसके अलावा देवत संहिता, चंडी कवचम, सुश्रुत संहिता, चरक संहिता, कात्यायन सूत्र और ब्राह्मण ग्रंथों में भी इसका विस्तार से वर्णन मिलता है। बौद्ध और जैन ग्रंथों में भी इसका खूब उल्लेख हुआ है। प्राचीन काल में इसे सोम रस, अरिष्ट या आसव कहते थे। बाद में इसके लिए मदिरा शब्द का प्रयोग हुआ, जो संभवत: उसके मत्त कर देने वाले गुण के कारण बना। लोग जहां मदिरा पीने जाते थे या जहां इसकी बिक्री होती थी, उसे मदिरालय कहा जाता था। ऋग्वेद में पांच प्रकार के सोम रस का वर्णन मिलता है। जैसे आज भी ह्विस्की, रम, स्कॉच, ब्रांडी, वाइन, कोन्याक या शैंपेन जैसी उसकी कई किस्में मिलती हैं। इसी प्रकार सुश्रुत संहिता में 24 तरह के सोमरस का उल्लेख है। सुश्रुत संहिता की रचना वेदों के बहुत बाद हुई थी। इससे आभास होता है कि वैदिक काल के बाद सोम रस की और भी नई किस्में विकसित हुई होंगी। यह आसव, अरिष्ट या सोम रस बनाने की प्रक्रिया अत्यंत जटिल थी, सामान्य जन इसे नहीं बना सकते थे। इसके लिए विशेषज्ञता की जरूरत होती थी। इसके लिए फलों और वनस्पतियों का चयन अत्यंत सावधानी से करना होता था। उन्हें काटने और गलाने तथा आसव बनाने की प्रक्रिया भी नियम और परिमाण के अनुसार योग्य पुरुषों की देखरेख में ही संपन्न की जाती थी। वेदों और पुराणों में ऐसा वर्णन है कि सोम रस उत्साह और शक्ति बढ़ाने वाला तथा उदात्त बनाने वाला होता था। इसलिए देवता गण इसका प्रयोग युद्ध में जाने, पराक्रम दिखाने, खुशी मनाने तथा प्रिय के साथ रास-रंग के समय करते थे। वृत्तासुर नामक राक्षस को मारने के पहले इंद्र ने सोम रस का पान किया था। प्राचीन काल में सोमरस को बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त थी। उसे दिव्य पेय माना जाता था। अथर्व वेद के अनुसार तो जिस सोम नामक लता-गुल्म से यह आसव तैयार किया जाता था, उसकी उत्पत्ति साक्षात विराट पुरुष से ही हुई थी। पुराणों में सोमरस के संचय, इसकी चोरी और इसके लिए देवताओं तथा दानवों के बीच होने वाले युद्ध का उल्लेख भी मिलता है। सोमरस को यथावत नहीं ग्रहण किया जा सकता था, यानी नीट नहीं पी सकते थे। वह स्वाद में अत्यंत कड़वा होता था और उसे नीट पचाना मुश्किल था। इसलिए उसमें शुद्ध जल, मधु, जौ या चावल का पानी या दूध मिलाया जाता था। इस मिश्रण को आशिर कहते थे। किसी आयोजन के समय एक बड़े से पात्र में सोमरस का आशिर बना कर रख देते थे, जिसे भद्र जन चषक (प्याली) में भर-भर कर पीते थे। लेकिन इन निजी पार्टियों के अलावा क्या उस समय पब भी हुआ करते थे? जी हां, हमारे प्राचीन ग्रंथों के अनुसार उस समय इस पेय का आनंद लेने के लिए ऐसे केंद्र होते थे, जहां लोग सामूहिक रूप से इसका आनंद लेने जाते थे। सोमरस को सोमस्थल से बाहर ले जाने का नियम नहीं था। प्राचीन भारत के ये पब या सोम स्थल तीन घेरे वाले भवन होते थे। सुश्रुत के अनुसार जिस कक्ष या भवन में लोग इसका सेवन करते थे, उसके बाहर बरामदे होते थे। फिर उन बरामदों के बाहर बरामदों की दूसरी पंक्ति और दीवार का तीसरा घेरा। बुद्ध और जैन साहित्य में तो ऐसे पबों और दुकानों का खूब उल्लेख मिलता है। दिल्ली कॉलेज के एक भूतपूर्व शिक्षक श्री ओम प्रकाश ने काफी रिसर्च के बाद एक किताब लिखी है -इकॉनमी एंड फूड इन एंशिअंट इंडिया। इस पुस्तक में वेद, पुराणों और अन्य प्रामाणिक ग्रंथों के ऐसे उद्धरण जुटाए गए हैं। इनमें उन देवियों के भी नाम हैं, जो सोम रस का सेवन करती थीं। यहां उनका उल्लेख जान-बूझ कर छोड़ा जा रहा है। लेकिन हमारे वेद-पुराणों और अन्य सांस्कृतिक ग्रंथों में सोम स्थलों पर महिलाओं को पीटने या उन्हें बाल पकड़ कर घसीटने का कोई उल्लेख नहीं मिलता। देश की संस्कृति के रक्षकों को ऐसे प्रसंगों की खोज अवश्य करनी चाहिए, इससे उनका पक्ष मजबूत होगा।
मंगलौर में पब में लड़कियों के साथ बदसलूकी को लेकर आलोचनाओं के बावजूद कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने कहा है कि वो प्रदेश में 'पब संस्कृति' के प्रसार की अनुमति नहीं देंगे.
टीवी चैनलों से बातचीत में येदियुरप्पा ने कहा,'' हम इस पब कल्चर को कर्नाटक में नहीं फैलने देंगे.''
लेकिन साथ ही उन्होंने स्पष्ट किया कि जो लोग क़ानून अपने हाथ में लेंगे, उनके साथ सख्ती से निबटा जाएगा.
उन्होंने कहा कि हाल में पब पर हमला करने के मामले में श्रीराम सेना पर प्रतिबंध लगाने पर वो मंत्रिमंडल की बैठक में चर्चा करेंगे.
येदियुरप्पा ने दावा किया कि श्रीराम सेना का भारतीय जनता पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है. ये एक निजी संगठन है.
मुख्यमंत्री का कहना था कि किसी भी तरह हम प्रदेश में ऐसी किसी घटना को दोहराने की अनुमति नहीं देंगे.
उनका कहना था कि ये एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना है. यही कारण है कि हमने तुरंत कार्रवाई की और स्थिति को नियंत्रित कर लिया.
उल्लेखनीय है कि कर्नाटक सरकार ने इस संबंध में श्रीराम सेना प्रमुख प्रमोद मुतालिक समेत 33 लोगों को गिरफ़्तार किया है।

पिछले दिनों मंगलोर के एक पब पर कुछ हिंसावादियों द्वारा लड़कियों की पिटाई का मामला आज भारतीय राजनीती और मीडिया में चर्चा का विषय बना हुआ है . वास्तव में जो कुछ भी हुआ,उसका तरीका बहुत ही निंदनीय है लेकिन इस घटना ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है "क्या पब संस्कृति भारतीय संस्कृति का अंग है या नही " और भारतीय संस्कृति के सरंक्षण के ठेकेदार कोन है?. सचमुच एक सोचनीय विषय है.प्रत्येक जन की अपनी अलग अलग राय इस विषय पर देखने और सुनने को मिलती है. कोई इसका पक्षधर है तो किसी के मतानुसार पब संस्कृति बिल्कुल भी भारतीय संस्कृति का अंग नही है. अब एक महत्वपूर्ण प्रश्न हम लोगों के बीच में उभर कर आया है कि आखिर भारतीय संस्कृति क्या है और इसके सरंक्षण के ठेकेदार कोन है?आज भारतीय सविधान ने हर किसी को अपनी मर्जी से अपना जीवन जीने का अधिकार दिया हुआ है. सभी लोग कहते है कि ये मेरी लाइफ है जिसे मैं जैसे चाहों उस ढंग से जी सकता हूँ , लेकिन साथ साथ में सविधान ने ये भी कहा है कि आपकी स्वतंत्रा वहा पर ख़तम हो जाती है जहा पर उससे किसी दूसरे को परेशानी का अनुभव होता है. शायद इस विषय पर हमारा ध्यान नही जाता.अब बात आती है कि क्या पब संस्कृति को भारतीय समाज में मान्यता मिलनी चाहिए या पब संस्कृति भारतीय सभ्यता के लिए हानिकारक है? मेरी ब्याक्तिगत राय में पब संस्कृति न कभी भारतीय संस्कृति का अंग रही होगी और न कभी इसको भारतीय संस्कृति में शामिल करने की कोशिश करनी चाहिए. हमारी अपनी संस्कृति अपने आप में अदुतीय है. विश्व में यदि कोई संस्कारित और पर हितकारी संस्कृति है तो वो है "भारतीय संस्कृति ". क्यों हम लोग अपनी संस्कृति को बिगाड़ने का काम कर रहे है?, क्यों हम लोग पश्चिमी संस्कृति में मिश्रित होना चाहते है. आज जो लोग २१वी सदी की दुहाई देते हुए कहते है लोग चाँद पर पहुच गए है और हम आज भी वही ४०-५० पहले वाली सोच पाले हुए है, बुजुर्गों की सोच पाले हुए है. ये राग आलापते हुए कि आज दुनिया विकास कर रही है, हम लोग विकास कर रहे है तो हमको अपनी सोच भी बदलनी चाहिए, हमें भी विकास करना चाहिए. मैं भी इस बात से इतेफाक रखता हूँ कि जरूर हमें भी विकास करना चाहिए किस क्षेत्र में- आर्थिक क्षेत्र में, बोधिक क्षेत्र में, तकनीकी के क्षेत्र में, हमें भी इतना विकास करना चाहिए कि कोई भी भूख से न मरे, प्यास से न मरे, तन ढकने के लिए सबको कपड़ा मिले. हमें ऐसा विकास चाहिए.आर्थिक विकास और तकनीकी विकास की तो हम हमेशा बात करते रहते है लेकिन क्या कभी हमने सामाजिक विकास की बात की.क्या हमने कभी सोचा कि हमारा सामाजिक विकास किस प्रकार होना चाहिए. क्या आर्थिक दृष्टि से मजबूत होना ही विकास को परिभाषित करता है? क्या सामजिक मूल्यों का विकास में कोई योगदान नही है? जो लोग पब संस्कृति की बात कर रहे है मैं उन लोगों से पूछना चाहता हूँ कि किसी भी पब में जाकर नृत्य करना, दारु नशा और विभिन्न प्रकार के नशीले पदार्थों का सेवन करके उसमे झूमना, ये किस विकास की बात हो रही है और ये कोंसी सभ्यता है?जो आज हाई सोसाइटी के नाम पर समाज को बिगाड़ने की जो प्रथा चल रही है वो वास्तव में सोचनीय है. पहले जमाने और हमारे धार्मिक ग्रंथों में एक शब्द का प्रयोग बहुतायत में हुआ है वो है "उच्चकुल". इस उच्चकुल का प्राचीन में क्या अर्थ था और आज इसका क्या अर्थ हो गया है ये हम सभी लोग जानते है. लेकिन आज उच्चकुल ने हाई सोसाइटी का रूप ले लिया है और जो कि केवल पैसों से टोला जाता है. आज उसी को हाई सोसाइटी का माना जाता है जिसके पास बहुत सारा पैसा हो, जो लाखों रूपये के सूट बूट पहनता हो, जो आलिशान वातानुकूलित गाड़ियों में सफर करता हो, घूमता हो, जो होटल-बार में जाकर शराब पीता हो और वहा पर नाचने वाली मजबूर लड़कियों/औरतों पर पैसा उडेलता हो, बस यही तो हाई सोसाइटी है और यही से तो पब संस्कृति का जन्म हुआ है. इसी को तो विकास कहते है और २१वी सदी कहते है. चाहे उनमे वो मानवीय गुन हों या न हों जो कि वास्तव में एक उच्चकुल को परिभाषित करते है, लेकिन समाज में पैसे की बहुलता के कारण वो एक हाई सोसाइटी के नाम से जाने जाते है और जिसमे वो ख़ुद का सम्मान महसूस करते है.अब प्रश्न आता है कि जो लोग पब में जाना चाहते है, शराब पीना चाहते है, नशा करने चाहते है तो उनको करने दो, इस पर समाज पर क्या असर पड़ेगा? मेरी दृष्टि में तो असर पड़ता है भाई, बहुत असर पड़ता है. एक नवजात शिशु की प्रथम पाठशाला उसका परिवार होता है, जो कुछ प्रारम्भ में वो अपने परिवार से सीखता है उसका चरित्र का उसी के अनुसार विकास होता है.जैसे जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है, स्कूल जाता है, आस पड़ोस में जाता है , समाज के बीच में जाता है तो वहा से वो बहुत कुछ सीखता है. कुछ अच्छी बातें भी सीखता है और कुछ बुरी बातें बी. ये एक शास्वित सत्य है कि हम बुरी चीजों के ओर बड़ी जल्दी आकृषित हो जाते है, बुरी चीजों को सीखने में कुछ ज्यादा वक्त नही लगता है, शायद उस समय हमको ये बोध नही होता है कि हमारे लिए बुरा क्या है और अच्छा, बस हमें उसमे कुछ आनंद की अनुभूति होती है और हम उसके पीछे दोड़ने लगते है लेकिन जब हमको ये आभास होता है कि अमुक चीज हमारे लिए हानिकारक है तो तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.समाज क्या है? किसी समूह को ही तो हम समाज कहते है, चाहे वो मनुष्य का समाज हो या पशु -पक्षियों या कीडे मकोडों का समाज हो. हर किसी का अपना एक समाज होता है और उसी समाज में पल बढ़ कर वो आगे बढ़ता है . मनुष्य का समाज बाकि अन्य समाज से श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि मनुष्य में बुधि विवेक होता है और सबसे बड़ी बात ये है कि प्रकृति ने उसको एक वाणी यन्त्र दिया है जिसकी सहायता से वो अपनी बात अपने समाज के बीच में रखता है.आज समाज में प्रतिश्पर्धा की दोड़ है, हर कोई हर किसी से आगे निकलना चाहता है और इस प्रतिश्पर्धा ने धीरे धीरे दिखावे का रूप ले लिया है. आज हर कोई अपने पड़ोसी के घर में झांकता है कि वहा पर क्या पाक रहा है, वो कैसे कपड़े पहन रहे है, कैसी गाड़ी में घूम रहे है उनका मकान कितना बड़ा है , वहा संगमरमर लगा हुआ है या सीमेंट, उनके बच्चे किन स्कूलों में पढ़ते है और कहा कहा घूमने जाते है और इन्ही चीजों को पाने की अपेक्षा वो अपने परिवार से भी करता है, चाहे वो इन चीजों को हासिल करने के लिए सक्षम हो या नही फ़िर भी उनकी इच्छा यही रहती है. अब जब मन में तृष्णा पैदा हो जाती है तो जब तक वो शांत न हो कैसे बैठा जाय?, और इन सभी चीजों को हासिल करने के लिए तब वो भूल जाता है कि उसके लिए अच्छा क्या है और बुरा क्या है, क्योंकि उसको तो समाज में अपना रूतबा दिखाना होता है. इससे आगे मुझे कहने की कोई आवश्यकता नही है. मैं जो कहना चाहता हूँ शायद आप लोग मेरा अभिप्राय समझ गए होंगे.दूसरी एक बात जो इस पब और पश्चायता संस्कृति से उभरकर आती है वो है "अश्लीलता". बहुत से लोगों का तर्क होता है कि कैसे अश्लीलता को परिभाषित किया जाय और कोन इसके मानक निर्धारित करे. मेरा उन सभी लोगों से बस एक ही उत्तर है कि जो चीज हम अपने परिवार और बच्चों के साथ नही देख सकते है या जिनको देखने में हमको कुछ असहजता महसूस होती है, बस वही चीज अश्लील है. जिस चीज को करते हुए हम अपने बच्चों को नही देखना चाहते है बस वही अश्लीलता है. मेरी दृष्टि में तो अश्लीलता को परिभाषित करना बहुत आसान है, आप लोगों का पता नही.आज विदेशी लोग हमारी संस्कृति सभ्यता को अपना रहे है और हम उनके पीछे भाग रहे है. क्यों ? इसका उदहारण आप ब्रिन्दावन जाकर देखो, हरिद्वार ऋषिकेश जाकर देखो, बहुत से विदेशी लोग राम राम कृष्ण कृष्ण गुनगुनाते हुए नजर आयेंगे. अब ये मत कहना कि राम -कृष्ण तो हिंदू देवता है, भारत में तो और भी धर्म के लोग रहते है. देवता सबका एक ही है बस रूप अनेक है. आज जो लोग पब संस्कृति के हिमायती है मैं उन लोगों से पूछना चाहता हूँ कि उनमे से कितने लोग अपने बच्चों को रात के १२-१-२-३ बजे घर आते हुए देखना पसंद करेंगे, कितने लोग अपने बच्चों को नशे में झूमते हुए देखना पसंद करेंगे? शायद उत्तर हाँ में बहुत कम सुनने को मिलेगा, केवल हाई सोसाइटी (३० % ) को छोड़कर, वहा पर तो कुछ भी हो सकता है, पैसे के रूतबे पर.जब पब संस्कृति की बात छिडी ही है तो यहाँ पर एक शब्द और उभरकर आता है वो है "प्रेम". प्रेम करना कोई बुरी बात नही है,सदियों से लोग प्रेम करते आए है लेकिन अपने उस प्रेम को प्रेम तक ही और मर्यादों के अन्दर तक सीमित रखा जाय तो वो अच्छा है. प्रेम का सार्वजनिक स्थानों में प्रदर्शन बिल्कुल भी शोभनीय नही है. अगर प्रेम सामाजिक दायरों और मर्यादा के अन्दर किया जाय तो उस प्रेम की हर कोई प्रसंशा करेगा. सामाजिक दायरे और मर्यादाएं हमें खुद निर्धारित करनी है.बात पब संस्कृति की हो और मीडिया का नाम ना आए तो ये हो ही नही सकता. मुझे कभी कभी भारतीय गणतंत्र के चोथे स्तम्भ कहे जाने वाले मीडिया पर भी अफ़सोस होता है. शायद कभी कभी हमारा मीडिया अपने पथ और उधेश्य से विचलित हो जाता है, जब वो समाज के ठेकेदार, बुजुर्गों की पुराणी सोच, २१वी सदी के भारत की बात करता है. समाज के ठेकेदार कोई वर्ग विशेष नही है, समाज के ठेकेदार हम सभी है, अपने समाज को कैसे बचाया जाय, कैसे संस्कारित किया जाय, कैसे भाई चारे का पाठ सिखाया जाय, कैसे देश प्रेम की भावना विकसित की जाय और कैसे एक सभ्य समाज का निर्माण किया जाय उसकी नैतिक जिम्मेदारी समाज के हर वर्ग और ब्यक्ति की है.एक और बात जो अक्सर हम लोग भूल जाते है वो है अहसास कराने की. बाल्मीकी रामायण और तुलसीदास जी के बारे में आप सभी लोग भली प्रकार से जानते है, दोनों ही बहुत बड़े विद्वान हुए है , लेकिन अगर दोनों के प्रारंभिक जीवन पर प्रकाश डालें तो उनको ये पता नही था कि उनमे क्या गुण है और क्या अवगुण , लेकिन जब उनको उनके गुणों का अहसास कराया गया तो दोनों ने ही इतिहास में अपना नाम अमर करवा दिया. शायद यदि तुलसी दास जी कि पत्नी उनको धित्कारती नही तो आज राम चरित मानस जैसा पवित्र ग्रन्थ पढने को नही मिलता. शायद यदि वो साधू लोग बाल्मीकी को ये नही बताते कि जो तू कर रहा है क्या इस पाप के हकदार तेरे परिवार वाले भी होंगे तेरे साथ या नही, जिनके लिए तू ये सब पाप कर रहा है तो आज हमको बाल्मीकि रामायण पढने को नही मिलती. दोनों ही शक्शों को अपनी अपनी विद्वता का ज्ञान तब हुआ जब उन्हें अहसास कराया गया. हनुमान जी को ये पता नही था कि वो समुद्र को पार करके लंका में प्रवेश कर सकते है,लेकिन जब उनको ये अहसास कराया गया कि तुममें ये शक्ति है कि तुम इस समुद्र को पार कर सकते हो तब वो अपनी मंजिल को पाने में सफल हुए.इन दृष्टान्तों का अभिप्राय केवल ये है कि किसी किसी के गुणों या अवगुणों के बारे में बताना कोई बुरा काम नही है चाहे स्वयं उसमे वो गुण विद्यमान है कि नही . इसमे किसी भी प्रकार की हानि है . अब वो हमारी सोच पर निर्भर करता है कि हम उसको किस रूप में स्वीकार करते है .अब जहा तक अपनी संस्कृति को बचाने के लिए कानून बनाने की बात है, मैं बिल्कुल इस विचार का समर्थक हूँ . देश को सुचारू रूप से चलाने के लिए कानून का अपना एक अलग स्थान है. हम इसके महत्व को नही नकार सकते है. अगर देश की संस्कृति को बचाए रखना है तो इसके लिए कानूनों की भी सख्त आवश्यकता है .लेकिन हमेशा याद रखना चाहिए कि कानून हमेशा प्रजा के लिए बनाये जाते है और पालन भी हमको ही करने पड़ेंगे. जब तक हमारे मन में कानून के प्रति प्रेम, आदर और विश्वास नही होगा तब तक वो कानून हमारे लिए किसी काम के नही होते है.अंत में मंगलोर की घटना पर मेरा अपना मत है कि श्री राम सेना द्वारा जो कार्य किया गया,उसका तरीका बिल्कुल भी ग़लत था. किसी को हिंसा के बल शिक्षित और सचेत करना बिल्कुल भी शोभनीय नही है. यह जानकर खुशी हुई है कि श्री राम जैसे संगठन अपनी संस्कृति को लेकर काफी सजग है और सारे देशवाशियों को भी होना चाहिए लेकिन उनका जो काम करने का मार्ग है वो बिल्कुल शोभनीय नही है. अगर किसी को शिक्षित करना है तो अपने विचारों से करिए, अपने कार्यों से करिए, पश्चायात्य संस्कृति के गुन-अवगुणों को बताकर करिए, न किसी को डरा धमका कर और हिंसा के बल पर. हिंसा के बल पर न्याय दिलाना, ये तो हमारा सविधान भी स्वीकार नही करता है, इसलिए सबसे बड़ा हमारा अपना सविधान है, हमारा इसके प्रति सम्मान होना चाहिए और सविधान के अंतर्गत ही सारे काम होने चाहिए.अंत मैं केवल यही कहूँगा कि अगर ३०% हाई सोसाइटी वाले लोगों को साथ लेकर भारत का विकास करना है तो तब जरूर हम पब संस्कृति को अपनी संस्कृति में शामिल कर सकते है लेकिन यदि ७०% सामान्य जन समूह को साथ में लेकर भारतवर्ष का विकास करना है तो तब हमें जरूर इस विषय पर सोचना चाहिए.

बाबा रामदेव ने मेंगलूर के एक पब में हुई मारपीट की घटना को शर्मनाक बताते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि पब संस्कृति हमारी संस्कृति नहीं है। उन्होंने इसे सांस्कृतिक तालिबान की संज्ञा देते हुए इस पर तुरंत रोक लगाने की माँग की।
स्वामी रामदेव ने बताया कि भारतीय संस्कृति उद्दंडता एवं सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुँचाने की इजाजत नहीं देती है, वह सत्य के पथ पर चलकर वैचारिक परिवर्तन की पक्षधर है।उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में भारतीय जनमानस और युवा पीढ़ी मूल्यों के संक्रमण से जूझ रही है और आत्मविमुखता, निराशा, आत्मग्लानि और अधीरता के साये में अपने मूल्यवान जीवन को शूद्र एवं झूठी खुशियों को पाने में बर्बाद कर रही है।स्वामी रामदेव ने कहा कि लोगों को इस बात को अच्छी तरह से समझना होगा कि पब संस्कृति हमारी संस्कृति नहीं है और इसको किसी भी प्रकार से बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए। यह उपयुक्त दोषों को ही पैदा करती है, इस पर तुरंत रोक लगनी चाहिए।उन्होंने कहा कि हमें यह बात भी समझनी होगी कि पब संस्कृति को सबसे अधिक बढ़ावा अल्कोहल के बढ़ते सेवन के कारण मिल रहा है। नशे के प्रभाव में वाहन और शासन चलाना अवैध है, तो यह पब संस्कृति के लिए किस प्रकार से वैध हो सकता है, जिसके कारण अनेक सामाजिक समस्याएँ पैदा हो रही है।
स्वामी रामदेव ने कहा कि एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में बौद्धिक, आत्मिक और शारीरिक ऊर्जा का केवल 5 प्रतिशत ही उपयोग कर पाता है, शेष ऊर्जा सुप्त अवस्था में रहती है।ऐसी स्थिति देश में तेजी से पनप रही यह पब संस्कृति इस सुप्त ऊर्जा का प्रतिशत बढ़ाने में सहायता कर रही है। उन्होंने कहा कि इराक के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को अमेरिका ने 148 लोगों की मौत के लिए नैतिक जिम्मेदार ठहराते हुए मौत की सजा दे दी थी, ऐसे में पब संस्कृति का व्यवसाय करने वाले ये लोग जो आज हजारों की संख्या में बच्चों को मौत के मुँह में धकेल रहे हैं, इन पर मुकदमा चलना चाहिए और इन्हें मौत की सजा दी जानी चाहिए। रामदेव ने कहा कि एक व्यक्ति संपूर्ण राष्ट्र की अभिव्यक्ति होता है, उसके साथ राष्ट्र का विकास भी जुड़ा होता है। नशा न केवल व्यक्ति का जीवन नष्ट करता है बल्कि वह देश के विकास में भी बाधक है। उन्होंने कहा कि देश में भुखमरी और बेरोजगारी बढ़ रही है और नित नई समस्याएँ पैदा हो रही हैं। उन्होंने कहा कि नशा सामाजिक मूल्यों का ह्लास कर रहा है।

भारतीय संस्कृति के समुद्र में अनेक संस्कृतियां समाहित हैं। भारत की धरती पर अब एक नई संस्कृति उभर रही है पब कलचर। इस नई संस्कृति के उदगम में समाज नहीं वाणिज्य और बाज़ारभाव का योगदान अमूल्य है। पर मंगलौर में एक पब में जिस प्रकार से महिलाओं और लड़कियों पर हाथ उठाया गया वह तो कोई भी संस्कृति –और कम से कम भारतीय तो बिल्कुल ही नहीं– इसकी इजाज़त नहीं देती। इसकी व्यापक भर्त्सना स्वाभाविक और उचित है क्योंकि यह कुकर्म भारतीय संस्कृति के बिलकुल विपरीत है।
पब एक सार्वजनिक स्थान है जहां कोई भी व्यक्ति प्रविष्ट कर सकता है। यह ठीक है कि पब में जो भी जायेगा वह शराब पीने-पिलाने, अच्छा खाने-खिलाने और वहां उपस्थित व्यक्तियों के साथ नाचने-नचाने द्वारा मौज मस्ती करने की नीयत ही से जायेगा। पर साथ ही किसी ऐसे व्यक्ति के प्रवेश पर भी तो कोई पाबन्दी नहीं हो सकती जो ऐसा कुछ न किये बिना केवल ठण्डा-गर्म पीये और जो कुछ अन्य लोग कर रहे हों उसका तमाशा देखकर ही अपना मनोरंजन करना चाहे।
व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और उच्छृंखलता में बहुत अन्तर होता है। जनतन्त्र में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की तो कोई भी सभ्य समाज रक्षा व सम्मान करेगापर उच्छृंखलता सहन करना किसी भी समाज के लिये न सहनीय होना चाहिये और न ही उसका सम्मान। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दोहाई के पीछे है हमारी गुलामी की मानसिकता जिसके अनुसार पश्चिमी तथा विदेशी संस्कृति में सब कुछ अच्छा है और भारतीय में बुरा। हम इस हीन भावना से अभी तक उबर नहीं पाये हैं। इसलिये हम उस सब की हिमायत करते हैं जो हमारे संस्कार व संस्कृति के विपरीत है और बाहरी संस्कृति में ग्राहय। इसलिये पब जैसे सार्वजनिक स्थान पर तो हर व्यक्ति को मर्यादा में ही रहना होगा और ऐसा सब कुछ करने से परहेज़ करना होगा जिससे वहां उपस्थित कोई व्यक्ति या समूह आहत हो। क्या स्वतन्त्रता और अधिकार केवल व्यक्ति के ही होते हैं समाज के नहीं? क्या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और अधिकार के नाम पर समाज की स्वतन्त्रता व अधिकारों का हनन हो जाना चाहिये? क्या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता (व उच्छृंखलता) सामाजिक स्वतन्त्रता से श्रेष्ठतम है?
व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दोहाई के पीछे है हमारी गुलामी की मानसिकता जिसके अनुसार पश्चिमी तथा विदेशी संस्कृति में सब कुछ अच्छा है और भारतीय में बुरा। हम इस हीन भावना से अभी तक उबर नहीं पाये हैं। इसलिये हम उस सब की हिमायत करते हैं जो हमारे संस्कार व संस्कृति के विपरीत है और बाहरी संस्कृति में ग्राहय।
एक सामाजिक प्राणी को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिये जो उसके परिवार, सम्बन्धियों, पड़ोसियों या समाज को अमान्य हो। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दोहाई देने का तो तात्पर्य है कि सौम्य स्वभाव व शालीनता व्यक्तिगत स्वतन्त्रता व अधिकार के दुश्मन हैं।
जो व्यक्ति अपना घर छोड़कर कहीं अन्यत्र –बार, पब या किसी उद्यान जैसे स्थान पर — जाता है, वह केवल इसलिये कि जो कुछ वह बाहर कर करता है वह घर में नहीं करता या कर सकता। कोई व्यक्ति अपनी पत्नी से किसी सार्वजनिक स्थान पर प्रेमालाप के लिये नहीं जाता। जो जाता है उसके साथ वही साथी होगा जिसे वह अपने घर नहीं ले जा सकता। पब या कोठे पर वही व्यक्ति जायेगा जो वही काम अपने घर की चारदीवारी के अन्दर नहीं कर सकता।
व्यक्ति तो शराब घर में भी पी सकता है। डांस भी कर सकता है। पश्चिमी संगीत व फिल्म संगीत सुन व देख सकता है। बस एक ही मुश्किल है। जिन व्यक्तियों या महिलाओं के साथ वह पब या अन्यत्र शराब पीता है, डांस करता है, हुड़दंग मचाता है, उन्हें वह घर नहीं बुला सकता। यदि उस में कोई बुराई नहीं जो वह पब में करता हैं तो वही काम घर में भी कर लेना चाहिये। वह क्यों चोरी से रात के गहरे अन्धेरे में वह सब कुछ करना चाहता हैं जो वह दिन के उजाले में करने से कतराता हैं? कुछ लोग तर्क देंगे कि वह तो दिन में पढ़ता या अपना कारोबार करता हैं और अपना दिल बहलाने की फुर्सत तो उसें रात को ही मिल पाती है। जो लोग सारी-सारी रात पब में गुज़ारते हैं वह दिन के उजाले में क्या पढ़ते या कारोबार करते होंगे, वह तो ईश्वर ही जानता होगा। वस्तुत: कहीं न कहीं छिपा है उनके मन में चोर। उनकी इसी परेशानी का लाभ उठा कर पनपती है पब संस्कृति और कारोबार।
व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की दोहाई के पीछे है हमारी गुलामी की मानसिकता जिसके अनुसार पश्चिमी तथा विदेशी संस्कृति में सब कुछ अच्छा है और भारतीय में बुरा। हम इस हीन भावना से अभी तक उबर नहीं पाये हैं। इसलिये हम उस सब की हिमायत करते हैं जो हमारे संस्कार व संस्कृति के विपरीत है और बाहरी संस्कृति में ग्राहय।

यह भारत देश ही है जहां पब की एक छोटी सी मार-पिटाई की घटना राष्ट्रीय बहस एवं राजनीति का मुद्दा बन जाती है। इससे पता चलता है कि इस देश के बौद्धिक क्षितिज पर किस प्रकार उन्मुक्त जीवन शैली के बाजारवादी प्रचार–प्रसार से अपना प्रभुत्व व आर्थिक संपन्नता पाए लोग हावी हैं। भारत जैसे आत्मसंयम की महान सभ्यता वाले देश के लिए यह साधारण बात नहीं कि इन निहित स्वार्थी एवं विषय भोगी तत्वों ने कल्चर पुलिस, मोरल पोलिसिंग, तालिबानीकरण जैसे नितांत अर्थहीन शब्दों का प्रयोग कर देश में शराब और शबाब, हम प्याला-हम निवाला और निर्बाध हमबिस्तर की वासनायुक्त जीवन शैली को लोकतांत्रिक और निजी स्वतंत्रता से जोड़ कर कम से कम महानगरों के एक वर्ग में इसके पक्ष में माहौल बनाने में सफलता पा ली। उनका विरोध करने वाले मीडिया में पिछड़े एवं दकियानूस तथा ये प्रगतिशील माने जा रहे हैं। देश इन निहित स्वार्थी तत्वों के दबाव में आ जाए, इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति कुछ नहीं हो सकती। किंतु इससे भी डरावना पक्ष है हमारी राजनीति का रवैया। अगर हम सरसरी तौर पर भी राजनीतिक दलों एवं नेताओं की कुछ प्रतिक्रियाओं पर नजर दौड़ा लें तो पूरी तस्वीर हमारे सामने आ जाएगी।24 जनवरी का मेंगलूर के पब में श्रीराम सेना के कार्यकर्ताओं द्वारा हंगामे के बाद कांग्रेस की आ॓र से इसकी तीखी आलोचना हुई। पहले महिला एवं बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी ने इसे तालिबानीकरण की संज्ञा दी। ठीक यही बात जनता दल (सेक्यूलर) के प्रमुख पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा ने कही। माकपा नेता वृंदा करात ने कहा कि जो लोग पब का विरोध कर रहे हैं वे यह तो बताएं कि पब से उनका तात्पर्य क्या है? उन्होंने महिलाओं पर किसी प्रकार की बंदिश को नयी लक्ष्मण रेखा खींचना करार दिया। श्रीराम सेना की तीखी आलोचना की गई। वैसे देश इस प्रकार की प्रतिक्रियाओं का अभ्यस्त हो चुका है। संघ परिवार का कोई संगठन या हिन्दुत्व की विचारधारा के नाम पर काम करने वाले उन्मुक्त जीवन प्राणाली के सार्वजनिक प्रदर्शनों का जब भी विरोध करते हैं ऐसी ही प्रतिक्रियाएं सामने आती हैं। वैसे भी, मेंगलूर की घटना में हिंसा हुई जिसका समर्थन किया भी नहीं जा सकता। गलत तरीके से विरोध का परिणाम कभी अच्छा नहीं आ सकता। लेकिन इस मामले में सबसे विचित्र एवं पाखंडी रवैया भाजपा का था। अध्यक्ष राजनाथ सिंह का पहले दिन का बयान काफी सधा हुआ था। उन्होंने पत्रकारों के पूछने पर केवल इतना कहा कि वे मुख्यमंत्री वीएस येदियुरप्पा से सच्चाई जानने की कोशिश कर रहे हैं। 27 जनवरी को मेंगलूर पहुंचते ही उन्होंने इसे गुण्डागर्दी करार दे दिया। साफ था कि पार्टी उन्मुक्त जीवन शैली के निहित स्वार्थी समर्थक तत्वों, मीडिया के एक वर्ग एवं विरोधियों द्वारा बनाए गए दबाव में आ चुकी है। उसके बाद पार्टी का रवैया ऐसा हो गया मानो ये पब कल्चर एवं उन्मुक्त जीवन शैली के झंडाबरदार हों। भाजपा के प्रवक्ताओं के स्वर श्रीराम सेना के विरोध में विरोधियों से भी ज्यादा तीखे थे। क्या विचित्र स्थिति है! राजस्थान के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पब संस्कृति एवं लड़के-लड़कियों के सार्वजनिक भौंडे प्रेम प्रदर्शनों के अंत की बात कर रहे हैं और भाजपा के नेता साफ न बोलकर भी उसके समर्थन में खड़े दिख रहे थे। कर्नाटक के मुख्यमंत्री का पब संस्कृति के विरोध में बयान गहलोत के बाद आया। स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदास पब संस्कृति को भारतीय संस्कृति के खिलाफ कह चुके हैं। उनके अनुसार यदि कम उम्र की लड़के-लड़कियां शराब एवं अन्य नशा करते रहे तो फिर भारत कभी प्रगति नहीं कर पाएगा। पब संस्कृति या सार्वजनिक अश्लील प्रेम प्रदर्शन आदि के बारे में दूसरे दलों एवं नेताओं के बयान धीरे–धीरे सामने आने लगे किंतु भाजपा के एक भी राष्ट्रीय नेता के मुंह से ऐसा नहीं निकला। हां, भाजपा से जुड़े वैसे कुछ नेताओं ने अवश्य मुंह खोला जिनकी पार्टी में कोई हैसियत नहीं है। अब यदि पब या ऐसी अन्य अपसंस्कृति के खिलाफ ये बोलें भी तो इसके कोई मायने नहीं होंगे। किसी की पहचान मुख्य संकट के क्षण में होती है। हिन्दुत्व परिवार के जो संगठन एवं नेता भाजपा से मोह पाले हुए हंैं अगर इसके बाद भी उनकी आंखें नहीं खुलतीं तो इसे धृतराष्ट्र प्रवृत्ति ही माना जाएगा। हालांकि इसमें आश्चर्य जैसा कुछ नहीं है। भाजपा नेतृत्व वाली सरकार चाहे केन्द्र में रही हो या राज्यों में– कांग्रेस या अन्य सरकारों के समान ही इन्होंने मुक्त अर्थव्यवस्था एवं बाजार प्रणाली को पूर्ण प्रोत्साहन दिया। पब या ऐसी उन्मुक्त वासनाभिमुखी जीवन शैली तो इसका स्वाभाविक अंग है। राजस्थान इस बात का साक्षात उदाहरण है जहां पर्यटन के नाम पर भाजपा सरकार ने अपनी नीतियों द्वारा अश्लीलता को प्रश्रय दिया है। राजस्थान पर्यटक स्थलों के टिकट इतने महंगे हैं कि वहां आम आदमी जा ही नहीं सकता। केवल विदेशियों एवं पैसे वालों के लिए ही सारे पर्यटन स्थल हैं। राजस्थान में विदेशी लड़कियों–महिलाओं के संदर्भ में कई कांड यूं ही सामने नहीं आए हैं। उनकी पूरी आधारभूत संरचना वहां भाजपा सरकार ने स्थापित कर दी। हालांकि कांग्रेस या यूपीए के नेताओं के भी इसके खिलाफ आवाज उठाने के कोई मायने नहीं है। यह जीवन शैली इस अर्थप्रणाली और उससे जुड़ी शिक्षा से ही पैदा होती है जिसके विरूद्ध कोई नहीं है। राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा सच्चाई का पता लगाने वाले मिशन ने लड़कियों के साथ मारपीट करने वालों से जेल में मुलाकात की। मिशन की अध्यक्ष निर्मला वेंकटेश के अनुसार उन लड़कों ने बताया कि वे वहां मारपीट के इरादे से नहीं गए थे। वे लाइव बैंड एवं लड़कियों को बिगाड़ने वाली गतिविधियों को बंद कराना चाहते थे। वहां लड़कियां अशालीन वस्त्र पहने हुई थीं जिस कारण सब कुछ हो गया। उन लड़कों ने अफसोस भी व्यक्त किया है एवं माना है कि उन्हें विरोध में हिंसा नहीं करनी चाहिए थी। लेकिन जरा सोचिए, ये जिस पार्टी के समर्थन में काम करते हैं उसके एक भी केन्द्रीय नेता ने उनसे मिलने का साहस नहीं दिखाया। उल्टे भाजपा के एक प्रवक्ता ने उनके लिए अंग्रेजी की वकालती शैली में गुण्डा और असामाजिक तत्वों के लिए प्रयोग किए जाने शब्दों में प्रतिक्रिया व्यक्त की। पुलिस को उनमें से किसी का आपराधिक रिकॉर्ड नहीं मिला है, विरोधी भी पूरी क्षमता लगाकर किसी को आपराधिक पृष्ठभूमि का साबित नहीं कर पाए। इसका कारण ढूंढना बहुत आसान है। भाजपा में केन्द्र स्तर पर दिखने वाले कई नेताओं की राजधानी दिल्ली सहित देश के उस वर्ग विशेष के बीच कोई हैसियत नहीं थी जिसे अंग्रेजी में सोशलाइट, चैटराटी, लिटराटी और न जाने क्या–क्या कहते हैं। इनमें मीडिया एवं बौद्धिक दुनिया के भी लोग शामिल हैं। उस समाज की जीवनचर्या में शराबी होना, महिलाओं का देह दिखाऊ वस्त्र पहनना आदि स्वाभाविक है। अगर ये ऐसा बयान नहीं देंगे तो उस समाज में पिछड़े माने जाएंगे। इनके तथाकथित मीडिया के मित्रों का भी परोक्ष दबाव रहता है। इसमें भारत की चिंता ये कर नहीं सकते। क्या भाजपा का समर्थन करने वाले संगठनों एवं नेताओं को ऐसे नासमझ, पाखंडी नेताओं वाली ही पार्टी चाहिए? जिन लड़कों ने मार पिटाई की, कानून उनको सजा देगा लेकिन परिवार का अंग होने के कारण ये इतनी शालीनता भी नहीं बरत सकते थे कि उनसे जाकर मिलें एवं सच जानें, आगे कोई हिंसा न करे, इसका उपाय करें। जो क्षण में अपना रंग बदलकर इन्हें अपराधी करार दे सकते हैं उनके साथ कैसा सलूक किया जाना चाहिए यह भाजपा समर्थक संगठनों एवं हिन्दुत्व परिवार के नेताओं को विचार करना पड़ेगा। इस प्रकार के नेताओं का यदि परिवार के भीतर बहिष्कार आरंभ नहीं हुआ तो अपनी हैसियत बनाए रखने के लिए ये देश को दांव पर लगा देंगे, किसी को भी अपराधी करार दे देंगे।

कर्नाटक के मुख्य मन्त्री श्री बी0 एस0 येदियुरप्पा, जहां यह घटनायें हुईं, ने अपने प्रदेश में पब कल्चर को न पनपने देने का अपना संकल्प दोहराया है।

उधर राजस्थान के कांग्रेसीे मुख्य मन्त्री श्री अशोक गहलोत भी इस कल्चर को समाप्त करने में कटिबध्द हैं। इसे राजत्थान की संस्कृति के विरूध्द बताते हुये वह कहते हैं कि वह प्यार के सार्वजनिक प्रदर्शन के विरूध्द हैं। ''लड़के-लड़कियों के सार्वजनिक रूप में एक-दूसरे की बाहें थामें चलना तो शायद एक दर्शक को आनन्ददायक लगे पर वह राजस्थान की संस्कृति के विरूध्दं है। श्री गहलोत ने भी इसे बाज़ारू संस्कृति की संज्ञा देते हुये कहा कि शराब बनाने वाली कम्पनियां इस कल्चर को बढ़ावा दे रही है जिन पर वह अंकुश लगायेंगे।

अब तो पब कल्चर ने 'सब-चलता-है' मनोवृति व व्यक्तिगत अधिकारों और राष्ट्रीय संस्कृति, संस्कारों और शालीनता के बीच एक लड़ाई ही छेड़ दी है। अब यह निर्णय देश की जनता को करना है कि विजय किसकी हो।

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

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दहेज प्रथा

दहेज प्रथा ग़लत नहीं है, हाँ इससे जुड़ी हुई बुराइयाँ ज़रूर ग़लत हैं. इसके लिए क़ानून बनाना बहुत मायने नहीं रखता है क्योंकि उसमें कमियाँ होती हैं. जिस क़ानून को समाज की स्वीकृति न मिले, उस क़ानून को सफलता कैसे मिल सकती है?शीलवंत, खड़गपुरअंतरजातीय विवाहों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. दहेज प्रथा अपने आप समाप्त हो जाएगी.आचार्य पाठक, लंदनजिस प्रकार रिश्वत लेना और देना जुर्म है उसी प्रकार दहेज लेना ही नहीं, देना भी जुर्म होना चाहिए. ऐसे काम में दोनो पक्ष दोषी होते हैं यदि बात बन जाए तो ठीक वर्ना दहेज के आरोप लगने लगते हैं.संजीव रुहेला, ग़ाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेशशादी के वक़्त दूल्हा और दुल्हन दोनों को ही एक फॉर्म पर दस्तख़त करने चाहिए जिसमें दहेज लेने-देने के बारे में आपसी सहमति के बारे में जानकारी हो. अगर दूल्हा दुल्हन पढ़े लिखे नहीं हैं तो यह ज़िम्मेदारी समुदाय के वरिष्ठ लोगों को निभानी चाहिए. अगर वर पक्ष दहेज की माँग करता है तो यह फॉर्म सरकारी एजेंसी को सौंपा जा सकता है. दहेज की कुप्रथा हमेशा के लिए समाप्त होनी चाहिए.मिर्ज़ा मक़सूद बेग, दुबईपहले मैं समझता था कि दहेज लेने वालों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई होनी चाहिए लेकिन आजकल इस क़ानून का दुरुपयोग हो रहा है जिसकी सज़ा मैं ख़ुद भुगत रहा हूँ. मेरी नज़र में दहेज क़ानून सिर्फ़ एक ढकोसला है.रईस अहमद, दुबईउस लड़की को मेरी बधाई जिसने यह क़दम उठाया. उसे बहुत से लोगों का आशीर्वाद हासिल है. काश भारत में इस तरह की और भी लड़कियाँ होतीं. भारत मे क़ानून और पुलिस इस बुराई को दूर करने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं लेकिन अभी तक उन लोगों को कड़ी सज़ा नहीं मिल पा रही है जो दहेज के लिए अपनी पत्नी तक को जला देते हैं.अनिल प्रकाश पांडे, शारजाहदहेज प्रथा का इस तरह अंत होना चाहिए कि जो लोग दहेज मांगें उन्हें फांसी पर लटका दिया जाए. इस्लाम कहता है कि माँ के पाँव के नीचे जन्नत होती है. जो औरत की इज़्ज़त नहीं कर सकता उस पुरुष पर कोई दया दिखाने की ज़रूरत नहीं है.ज़ैन दीवान, काबुलमेरा एक सवाल है उनलोगों से जो कहते हैं कि रिश्वत लेना ग़लत है. क्या शादी करते वक़्त उन्होंने कोई रिश्वत नहीं ली ? कई लोग कहेंगे कि नहीं. मगर सच सबको पता है. मेरी शादी नहीं हुई मगर मैं रिश्वत नहीं लेने जा रहा क्योंकि मैं अपना पैसा कमा सकता हूं.कपिल वत्स, टोरंटो, कनाडा
इस्लाम कहता है कि माँ के पाँव के नीचे जन्नत होती है. जो औरत की इज़्ज़त नहीं कर सकता उस पुरुष पर कोई दया दिखाने की ज़रूरत नहीं है
ज़ैन दीवान, काबुल भारत में ज़्यादातर परिवार अपनी परंपरा मानकर ही दहेज स्वीकार करते हैं. लेकिन इस कुप्रथा को तभी समाप्त किया जा सकता है जब लड़कियों और महिलाओं को बराबरी का दर्जा मिलेगा. तभी देश भी प्रगति नहीं कर सकेगा. लेकिन इसकी शुरुआत ऊपर से होनी चाहिए और आम लोग भी दहेज का विरोध करना शुरु करें. ख़ासतौर से लड़कियों को इसमें आगे आना होगा.राजेश जलोटा, ब्रिसबेन, ऑस्ट्रेलियामैं दहेज प्रथा के बिल्कुल ख़िलाफ़ हूँ. मेरा ख़याल है कि हमें इस कुप्रथा का मुक़ाबला करने के लिए एक युवा क्लब बनाना चाहिए. मैं तो ऐसी लड़की से शादी करूँगा जो सभ्य ग़रीब परिवार से हो.संजीव कुमार, मेरठ, उत्तर प्रदेशहमारे यहाँ लोग क्रांतिकारियों को पसंद तो करते हैं मगर ये भी चाहते हैं कि ये क्रांतिकारी पड़ोसी के यहाँ पैदा हों और ख़ुद कोई संघर्ष नहीं करना पड़े. ऐसा नहीं है कि हर पुरुष रावण और हर स्त्री सती सावित्री होती है और अच्छे बुरे दोनों तरह के लोग समाज में होते हैं. इसलिए ऐसे मसलों पर लोगों की सहानुभूति बटोरना मुझे सही नहीं लगता. आम तौर पर पुलिस स्त्रियों की बात पर ही यक़ीन करती है मगर कई बार ऐसे में पेशेवर स्त्रियाँ फ़ायदा उठा लेती हैं.पूजा शर्मा, आईआईटी दिल्लीवक़्त आ गया है कि हम समाज की इस तरह की बुराइयों का सामना करें. इस बारे में महिलाओं को दिशा दिखानी होगी और माँ-बाप का कर्त्तव्य है कि वे उन्हें सही शिक्षा और मूल्य दें.परमेश्वर झा,एडिसन, अमरीका
इस बारे में महिलाओं को दिशा दिखानी होगी और माँ-बाप का कर्त्तव्य है कि वे उन्हें सही शिक्षा और मूल्य दें
परमेश्वर झा, अमरीका ये एक तथ्य है कि दहेज की प्रथा अब भी चल रही है. मगर क़ानून में ख़ामियों के चलते कई महिलाओं ने ससुराल वालों के विरुद्ध इसका इस्तेमाल भी किया है. इसलिए ज़रूरी है कि ऐसा वैधानिक प्रावधान हो जिससे इन आरोपों की सच्चाई का पता लगाया जा सके न कि लोग इसका हथियार के तौर पर इस्तेमाल करें.राकेश, भारतऐसे लोगों को गिरफ़्तार करके उनका चेहरा टेलीविज़न पर दिखाया जाए.राजकुमार मेहरा, टोक्योअसल में सब ख़ामियाँ सरकार में हैं क्योंकि बहुत से लोगों को तो ये मालुम भी नहीं है कि दहेज के विरुद्ध कोई क़ानून भी है. टेलीविज़न और रेडियो पर कई बार जनसंख्या नियंत्रण जैसे विषयों पर तो प्रचार होता है मगर दहेज के बारे में कुछ नहीं होता. जिन लोगों के पास बहुत दौलत है वे ही दहेज दे देकर समाज में ये नासूर फैला रहे हैं.यही देखकर सभी लोग लालच में दहेज की माँग करते हैं. इससे समाज में बहुत सी लड़कियों की शादी भी नहीं हो पाती.अलाउद्दीन ख़ान, कुवैतये तो हमारे समाज का सिर्फ़ एक ही पक्ष है. इसके लिए हम सब ही ज़िम्मेदार हैं. दहेज हम सब लोगों का लोभ सामने लाता है. जब तक लड़कियाँ सामाजिक और आर्थिक तौर पर पति पर निर्भर रहेंगी तब तक ये प्रथा हट नहीं सकती.मनीष कुमार सिन्हा, समस्तीपुर, बिहारहमारी राय में दहेज लेना और देना एक सामाजिक अपराध है और ग़ैर क़ानूनी भी. आज समाज के शिक्षित वर्ग में ये बुराई ज़्यादा देखने को मिलती है सबसे पहले हमें अपने परिवार में देखना चाहिए.निशा शर्मा का क़दम क़ाबिले तारीफ़ हैदिनेश कुमार सैनी, राजस्थाननिशा का बहादुरीपूर्ण क़दम युवतियों के लिए एक प्रेरणादायी क़दम है. साथ ही बीबीसी जैसे मीडिया संगठनों को भी इसका श्रेय जाता है जिन्होंने इसे काफ़ी प्रचार दिया और लोगों को विचार रखने का मौका भी दिया.सुप्रीति, दिल्ली
नारी को शिक्षित करना होगा. उन्हें रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराने होंगे तब जाकर ये कुरीति दूर होगी
प्रदीप कुमार तिवारी, भोपाल बात निशा या फ़रजाना की नहीं है. हमें इस बात की जड़ में जाकर देखना होगा कि ये प्रथा विकराल रूप क्यों धारण कर रही है. वैसे इंसान के भीतर जब तक लालच की ज्वाला धधकती रहेगी तब तक किसी भी कुप्रथा को हटाना नामुमकिन है.संजीव कुमार रुहेला, दिल्लीजब तक महिलाएं जागरूक नहीं होंगी तब तक ऐसी घटनाएं होती रहेंगी. नारी को शिक्षित करना होगा. उन्हें रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराने होंगे तब जाकर ये कुरीति दूर होगी.प्रदीप कुमार तिवारी, भोपालदहेज सबसे ज़्यादा उच्च स्तर पर है जबकि उच्च स्तर शिक्षित माना जाता है. जब उनका ये हाल है तो छोटे वर्ग का तो कहना ही क्या. ज़रूरत एक कठोरतम क़ानून की है और उसे कड़ाई से लागू भी किया जाना चाहिए. नहीं तो जिनके पास पैसा नहीं होगा वे यही मनाया करेंगे कि लड़की का जन्म उनके घर नहीं हो.ब्रह्मानंद मिश्र, इलाहाबादहमेशा की तरह भारतीय सिर्फ़ बात ही करना जानते हैं. मेरे ख़्याल से इस लड़की की शादी अगर उस लड़के से हुई होती जिसे वह पसंद करती थी और वह अगर दहेज माँगता तो शायद वह पुलिस को कभी नहीं बताती.संजय, अमरीकामेरे ख़्याल से दहेज तभी समाज से हटाया जा सकता है जब लड़की शिक्षित हो और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी. अगर लड़की आत्मनिर्भर नहीं हो पाती तो उसे अपने माँ-बाप के साथ ही रहना चाहिए.रश्मि, अमरीकामेरी राय में हालांकि ये एक सार्थक प्रयास है मगर जहाँ तक निशा की बात है लगता है कि पर्दे के पीछे कुछ गड़बड़ है. निशा पहले ही किसी लड़के को पसंद करती थी और इसकी पुष्टि उसके चाचा ने भी की है. कहीं ऐसा न हो कि दहेज को माध्यम बनाकर एक पूरे परिवार को बलि चढ़ा दिया जाए. इसलिए पहले तो सच का पता लगाया जाए और उस के बाद ही किसी के विरुद्ध कोई कार्रवाई होनी चाहिए.संजीव श्रीवास्तव, दिल्लीहमें निशा पर ध्यान देने के बजाए समाज के हर वर्ग में फैली दहेज की बीमारी से निबटने के बारे में सोचना चाहिए. जात, धर्म और सामाजिक वर्ग में ही अपनी लड़की ब्याहने की होड़ ने लड़कों को खरीदने-बेचने की चीज़ बना दिया है. सबसे अच्छी बोली लगाने वाला ही लड़के को अपनी बेटी के लिए चुन पाता है और लड़के मुफ़्त में आते इस पैसे के लोभ में अपने आपको बेचने को तैयार रहते हैं.दीपक कुमार, दिल्ली, भारत
कहीं ऐसा न हो कि दहेज को माध्यम बनाकर एक पूरे परिवार को बलि चढ़ा दिया जाए. इसलिए पहले तो सच का पता लगाया जाए और उस के बाद ही किसी के विरुद्ध कोई कार्रवाई होनी चाहिए संजीव कुमार श्रीवास्तव, दिल्ली दहेज लेना अपराध है और इसे माँगनेवालों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए - कम से कम दस साल की जेल. एक भारतीय होने के नाते इस आधुनिक युग में ऐसी प्रथा के जारी रहने पर मुझे शर्म आती है.दिलीप कुमार चिटनिस, औस्लो, नोर्वेमुझे लगता है कि निशा ने बड़ी हिम्मता का और बहुत सही काम किया है. बहुत से लोग दहेज लेना तो बहुत पसंद करते हैं लेकिन इसे देते समय समाज और दहेज माँगने वाले लोगों को कोसने लगते हैं. अगर हर कोई अपने-अपने लड़के-लड़कियों को बराबरी का दर्जा दे तो ये समस्या अपने आप ख़त्म हो जाएगी.तनवीर सद्दाफ़, पुन्छ, कश्मीरदहेज की रस्म को रोकना एक या दो लड़कियों के बस की बात नहीं. इसके लिए माँ-बाप को तीन चीज़ों का ध्यान रखना होगा. पहला तो ये लड़कियों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवाना. दूसरा, अपने बच्चों को अपना जीवन-साथी चुनने की छूट देना और तीसरा कि दहेज की बात करनेवालों के ख़िलाफ़ कड़ी से कड़ी कार्रवाई करना.खरलिया सिधू, स्वीडनहर कोई निशा की बात सुन रहा है और मुनिश दलाल की तरफ़ कोई ध्यान नहीं दे रहा है. मुझे तो लगता है कि लड़के को दहेज के नाम पर फंसाया गया है.नरेंदर कुमार, दिल्ली, भारतदहेज का अर्थ उपहार है, व्यापार नहीं. समय आ गया है जब हमारे लोगों को ये समझ आ जाए.विजय कुमार, लखनऊ, भारतसबसे दुख की बात तो ये है कि हमारे समाज का शिक्षित वर्ग भी दहेज के लोभ से अछूता नहीं है. हमारे जैसे युवा लोगों को चाहिए कि इस बुराई का मुक़ाबला करें. ये हम सब की ज़िम्मेदारी है.राज वर्मा, अमरीकादहेज की प्रथा हमारे समाज में नई नहीं है. पुराने ज़माने में लड़की के परिवारवाले उसे गहने को घर बसाने के लिए ज़रूरी सामान दिया करते है. लेकिन अब लालची लोगों ने इसे शादी की सबसे महत्वपूर्ण शर्त बना दिया है. आज ज़रूरत इस बात की है कि भारतीय युवक और युवतियाँ अपनी मर्ज़ी से शादी करना शुरू करें.कृष्ण कुमार झा, मधुबनी, भारतसमस्या दहेज से निबटने वाले क़ानूनों मे ढील का है. दहेज माँगने वाले हर परिवार का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए और मीडिया को सिर्फ़ एक लड़की की हिम्मत की कहानी बता कर चुप नहीं हो जाना चाहिए. समाज में दहेज के ख़िलाफ़ लहर बनाने की ज़रूरत है.एस एम हुसैन, लंदन, भारतदहेज की प्रथा हमारे समाज पर लगा कलंक है. इसके विरोध में हर उस लड़की के माँ-बाप को आवाज़ उठानी चाहिए जिनसे दहेज माँगा जा रहा है.नटवर, पालनपुर, भारतमेरे विचार से तो दहेज लेने वालों को सज़ा के रूप में दहेज में मांगी गई रकम को जुर्माने के रूप में भरने का आदेश दिया जाना चाहिए. आज के ज़माने में लड़का-लड़की दोनो नौकरी करते हैं और उनमें अपनी ज़िंदगी अपने दम पर चलाने की हिम्मत होनी चाहिए.राजू चन्नी, लंदन, ब्रिटेनदहेज की प्रथा लोगों की दोहरी नीति के कारण चल रही है. जब उन्हें दहेज देना पड़ता तो उन्हें तकलीफ़ होती है लेकिन जब उन्हें दहेज मिलता है तो उन्हें अच्छा लगता है. इसे समाप्त करने के लिए आत्मविश्वास और मानवीय रिश्तों की कदर ज़रूरी है. समाज को चाहिए कि दहेज न लेने वालों का सम्मान करे.गंगा राम वर्मा, कानपुर, भारतयह एक बहुत ही बेहूदा रसम है जिसे मानने वालों ने शादी को एक धंधा बना दिया है. उस महिला की दाद देनी चाहिए जिसने ऐसा साहसिक कदम उठाया है.भावना हेमलानी, अमरीकापरम्परा के नाम पर यह प्रथा लोगों को कंगाल बना देती है. इसे समाप्त करने के लिए सभी लड़कियों को शिक्षित करना होगा ताकि वे आत्मनिर्भर हो सकें. सरकार को प्रेम-विवाह को बढ़ावा देना चाहिए.युगल किशोर दास, झारखंड
दहेज का अर्थ उपहार है, व्यापार नहीं. समय आ गया है जब हमारे लोगों को ये समझ आ जाए
विजय कुमार, लखनऊ इस घटनाक्रम को समाचार माध्यमों ने बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है. यह निजी कारणों से लिए गए निर्णय से पैदा हुई स्थिति है न कि दहेज विरोधी भावना से. यदि इसके पीछे दहेज विरोधी भावना होती तो यह रिश्ता दहेज देने या न देने को लेकर टूटता न कि दहेज की रकम को लेकर. महेंद्र सिंह, मुम्बई, भारत चाहे लोगों को यह अजीब लगे कि निशा ने पहले अपनी आवाज़ क्यों नहीं उठाई लेकिन हमें यह समझना चाहिए कि अन्याय सहने की एक हद होती है. उन्होंने देखा होगा कि माता-पिता के लिए दहेज का पैसा इकट्ठा करना कितना मुश्किल होता है. पुरुषों और महिलाओं, दोनो के इस विषय में कोशिशें करनी होंगी. शिशिर, सिंगापुर और लोगों की बात करने से पहले सब लोगों को अपने-अपने परिवारों में देखना चाहिए और उन्हें समझाना चाहिए कि यह एक पाप है.हरीश चंद्र, एम्सटर्डेम, हॉलैंड दहेज प्रथा बिल्कुल ख़त्म होनी चाहिए. हम चाहें तो सब कुछ हो सकता है. सबको अपनी मदद ख़ुद करनी चाहिए. दूसरों पर बोझ बनने वाले कायर होते हैं.चन्नी, लंदन, ब्रिटेनदहेज की शुरुआत अपनी पुत्री की सहायता के लिए की गई थी और यही इस कुप्रथा के पीछे अवधारणा थी लेकिन आज तो दहेज को कमाई का ज़रिया बना दिया गया है. यह स्थिति अत्यंत भयावह है.विनोद यादव, गाज़ीपुर, उत्तर प्रदेशऐसे लोगों को जेल में बंद कर दें और उनके नाम अख़बारों में छपवा दें ताकि कोई भी लड़की उनसे शादी न करे.हरीश पटेल,ब्लूमिंग्टनकिसी भी ऐसे पुरुष या महिला को शादी करने का कोई अधिकार नहीं है जो अपने बूते पर अपना वैवाहिक जीवन शुरू करने या अपने पैरों पर आप खड़े होने की क्षमता नहीं रखते.सेहर, लंदनअगर वह सहमत हो, तो मैं इस तरह की लड़की से शादी करना चाहता हूँ. मुझसे फ़ौरन संपर्क करें. मैं राजस्थान का हिंदू युवक हूँ.बीजी पुरोहित, अबू धाबी
इस घटनाक्रम को समाचार माध्यमों ने बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है. यह निजी कारणों से लिए गए निर्णय से पैदा हुई स्थिति है न कि दहेज विरोधी भावना से
महेन्द्र सिंह, मुंबई सबसे पहले तो मैं निशा के साहस के लिए उसकी सराहना करता हूँ और वो साहस की मिसाल हैं. दहेज भरतीय समाज की मुख्य समस्या है और बहादुरी के ऐसे क़दमों की बदौलत निश्चय ही देश में नई सोच के युग की शुरुआत होगी और मैं सभी भारतीयों से अनुरोध करता हूँ कि वे इस बारे में सोच-विचार करें. सभी लड़कियों को निशा की तरह ही व्यवहार करना चाहिए. कृपया एकजुट हो कर दहेज नामक इस कुप्रथा को हमेशा-हमेशा के लिए दफ़ना दें. मैं इस वर्ष बहादुरी के राष्ट्रपति पुरस्कार के लिए निशा के नाम की सिफ़ारिश करता हूँ.अभिषेक कुमार,म्युनिख, जर्मनीजिस तरह से निशा पर हमला किया गया है उससे साफ़ ज़ाहिर है कि दहेज को किस तरह हमारे देश में स्वीकृति मिली हुई है. कम से कम उन्होंने इस कुप्रथा के ख़िलाफ़ आवाज़ तो उठाई, चाहे जिस मंच से सही. उन्होंने यह स्वीकार नहीं किया कि चुप रहें और वे ख़ुद और उनका परिवार अपमानित होता रहे. यह नहीं भूलना चाहिए कि दहेज की समस्या हमारे देश में सदियों से है और इसके समर्थन में बड़ी संख्या में लोग हैं. उनकी कोशिश होती है कि ऐसी आवाज़ों को कुचल दिया जाए जो इसके ख़िलाफ़ उठती हैं.शालिनी, लंदनयदि यह समस्या ग़रीब, अशिक्षित और मध्यवर्ग में आती है तो पुरानी परंपराओं के प्रति उनका लगाव समझ में आता है पर यह समस्या उच्चवर्ग के लोगों के साथ पेश आए तब उनका बहाना क्या है? वे तो हमेशा समझदार और पश्चिमी सभ्यता में रंगे होने का दावा करते हैं और कहते हैं कि बुरी भारतीय परंपराओं में उनका विश्वास नहीं है. पर सच यह है कि जब वास्तविकता सामने आती है तो वही लोग रुढ़ियों से ज़्यादा चिपके हुए नज़र आते हैं. अच्छा होगा यदि वे इस दिखावे को छोड़ें ताकि उसका असर निचले स्तर पर भी दिखाई दे.इक़बाल, मेलबोर्नभारतीय समाज में शुरु से ही लड़कियों की आवाज़ें अनसुनी की जाती रहीं हैं.नवजात लड़की की हत्या और सती प्रथा जैसी रुढ़ियों ने भारतीय समाज को दीमक की तरह चाटने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. आज भी भारत में कई जगह दहेज के लिए महिलाओं को जलाया जाता है और विधवाओं के साथ बुरा व्यवहार किया जाता है. लड़कों की तुलना में लड़कियों की शिक्षा में कम ध्यान दिया जाता है.भारत में बहुत कम लड़कियों में निशा शर्मा जैसी हिम्मत होगी.लेकिन इस तरह से शादी के लिए मना कर देना भी इस समस्या का समाधान नहीं है क्योंकि लड़की के माता पिता हमेशा एक सामाजिक दबाव में रहते हैं. इस मामले में सबसे असरदार भूमिका लड़के ही निभा सकते हैं. अगर लड़के वाकई मर्द हैं तो उन्हें इस बुराई से लड़ने के लिए ख़ुद सामने आना होगा.कुलभूषण गुलाटी,टोरंटो, कनाडा
जिस तरह से निशा पर हमला किया गया है उससे साफ़ ज़ाहिर है कि दहेज को किस तरह हमारे देश में स्वीकृति मिली हुई है
शालिनी, लंदन परंपराएं जब रुढ़ियां बन जाती हैं तो स्थिति बहुत भयावह हो जाती है.दहेज की परंपरा की शुरुआत इसलिए हुई थी कि लड़की के पिता की संपत्ति का एक हिस्सा लड़की को भी मिले ताकि एक नए परिवार की शुरुआत में कुछ मदद मिल सके. लेकिन समाज के लालची ठेकेदारों ने इसे कमाई और फ़िरौती का ज़रिया बना लिया. आज ज़रुरत है लोगों को शिक्षित करने की. अजय गुप्ता, भोपालआज मीडिया इस बात को जितना उछाल रहा है उससे निशा को ख़ूब प्रचार मिल रहा है और कुछ नेता तो उन्हें चुनाव लड़ाने की बात तक कर रहे हैं. मगर ऐसा इसलिए है क्योंकि ये दिल्ली में हुआ और मीडिया ने इसे ख़ूब उछाला वैसे ये पहली बार नहीं हुआ है और पहले भी ऐसा हो चुका है. इन लोगों ने दहेज़ के विरुद्ध झंडा उठा लिया पर अगर इतना ही विरोध था तो पहले क्यों नहीं किया.हरिदास,गोपालपुरी, भारतभारत में दहेज़ की प्रथा वधू पक्ष की ओर से एक 'स्टेटस सिंबल' है. वधू पक्ष ज़्यादा से ज़्यादा दहेज़ देना चाहता है जिससे उनका रुतबा बढ़े. मैं निशा की प्रशंसा करता हूँ मगर इस और अन्य मामलों में वधू पक्ष धन देने के लिए तैयार होता है जिससे वधू आराम से जीवन बिता सके. यहाँ भी देखिए कि माँ-बाप आख़िर तो धन देने के लिए राज़ी थे ही पर जब और धन माँगा गया तो उन्होंने पुलिस को बुला लिया. निशा ने पहले ही ये क़दम क्यों नहीं उठाया. वधू पक्ष ही इसे रोक सकता है. लड़कियों को ये बात सख़्ती से माँ-बाप को बता देनी चाहिए कि अगर वे दहेज़ देंगे तो वह शादी ही नहीं करेगी. और फिर शादी तो एक पवित्र बंधन है न कि कोई अनुबंध.दीपक कुमार विद्यार्थी, मुज़फ़्फरनगर, उत्तर प्रदेशसबसे पहले तो माँ-बाप की संपत्ति में लड़की का अधिकार ही वापस ले लेना चाहिए तभी दहेज़ संबंधी क़ानून कुछ प्रभावी हो पाएंगे.अशोक कुमार मिश्रा, भारतदहेज़ की प्रथा हमारे समाज पर लगा कलंक है. इसके विरोध में हर उस लड़की के माँ बाप को आवाज़ उठानी चाहिए जिनसे दहेज़ माँगा गया हो. शादी से पहले ही ये बात तय होनी चाहिए कि दहेज़ जैसी शर्मिंदगी लड़की वाले नहीं अपनाएंगे. खेद की बात है कि ये रूढि और प्रथा अब भी जीवित है और ख़ासकर पढ़े लिखे लोगों में बहुत ज़्यादा है.शाहनवाज़, मुंबईये कोई नया मामला नहीं है और लड़कियाँ कई बार ऐसे मामलों में शादी से इनकार कर चुकी हैं. ये तो स्पष्ट है कि वर पक्ष ज़्यादा माँग रहा था और वधू पक्ष कम देना चाह रहा था. वे कम के लिए भी क्यों तैयार हुए. लड़की ने पहले ही शादी से इनकार क्यों नहीं किया. उसे तो सब माँगों का पता था ही. आख़िर शादी वाले दिन ही क्यों? उन लोगों ने सोचा होगा कि किश्तों में लड़के वालों की माँग पूरी कर दी जाएगी. मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि लड़की ने कुछ नया किया है.मोहम्मद रईस ख़ान, लखनऊइस प्रथा के लिए लड़कियाँ ख़ुद ज़िम्मेदार हैं. मैं तो ये कहूँगा कि दिल्ली का जो मामला है उसमें दुल्हे को जेल भिजवा दिया और अब बड़ा नाम हो रहा है. वह लड़की एक हद तक तो दहेज़ के पक्ष में ही थी वो तो बात सीमा से बाहर हो गई तो उसने आवाज़ उठाई. आज के इस आधुनिक युग में भी सड़ी गली प्रथाओं को ढोना सिर्फ़ हमारी मूढ़ता को बताता है और इसके लिए पूरा समाज ज़िम्मेदार है.संतोष, पुणेमेरे ख़्याल से ये बहुत ही बुरी प्रक्रिया है जिसे किसी भी हाल में बंद किया जाना चाहिए. मैं इस बारे में समाज से सहमत नहीं हूँ. मैं अपने सभी दोस्तों, भाइयों और बहनों से कहना चाहूँगा कि वे इस बुरे रीति-रिवाज़ के विरुद्ध आवाज़ उठाएं.सचिन्द्र कुमार, पटना
निशा ने पहले आवाज़ क्यों नहीं उठाई? मैं नहीं मानता कि यह क़दम बहुत साहसिक था
पुर्ष, गाँधीधाम हमारे मीडिया वाले बातों को कुछ ज़्यादा ही बढ़ा चढ़ा कर पेश कर रहे हैं. निशा ने पहले आवाज़ क्यों नहीं उठाई. जब ज़्यादा माँगा गया तो ढोल पीटने लगे कि मैं दहेज़ के विरुद्ध हूँ, ये काम शादी से पहले भी कर सकते थे. मैं नहीं मानता कि निशा ने जो क़दम उठाया वो बहुत साहसिक है. जब ज़्यादा माँगा तो ढिंढोरा पीट दिया और पूरे भारत में वाह वाही हो रही है.पुर्ष, गाँधीधाम, भारतमेरे ख़्याल से दहेज़ की प्रथा सबसे बुरी है और दुनिया की सभी संस्कृतियों के विरुद्ध भी है. आज के समय में अगर लड़की के माँ-बाप ग़रीब हों तो उनकी लड़की की तो कहीं शादी हो ही नहीं सकती. मगर दरअसल तो जो लोग दहेज़ के लिए शादी से मना कर देते हैं वे ही ग़रीब और लालची होते हैं.हेमांग सिंह, मिआमी, अमरीकामैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि जब दहेज़ माँगा गया उसी समय उन लोगों ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज क्यों नहीं की और किसी तरह मामला सुलझा लेने की कोशिश की. ये मत समझिए कि वह दहेज़ के विरुद्ध है.मोहम्मद अनीस खान, सऊदी अरबये एक सामाजिक बुराई है जिसे सिर्फ़ क़ानून से नहीं हटाया जा सकता. शिक्षित लड़कों को दहेज़ की माँ-बाप की माँग का विरोध करना चाहिए. शिक्षा सिर्फ़ डिग्री लेने के लिए नहीं होनी चाहिए बल्कि लड़कों को नैतिक विश्वास देने के लिए होनी चाहिए कि वे अपनी ज़रूरतें मेहनत करके पूरी कर सकते हैं न कि दहेज़ जैसे रास्तों के ज़रिए.भद्रेश करतेला, कैलगरी, कनाडादहेज़ के मामले में मेरे ख़्याल से वधू पक्ष ज़्यादा ज़िम्मेदार है क्योंकि वे ही वायदा करने लगते हैं कि हम लड़की को ये देंगे, वो देंगे ऐसे में वर पक्ष भी लालच में आ जाता है.बलजीत, वैंकुवर, कनाडाहमें संपूर्ण क्रांति लानी होगी. इसका सबसे अच्छा उपाय ये है कि हमें माँ और दादी को समझाना होगा कि वे भी तो आख़िर महिलाएं हैं. हमें इस बारे में उन्हें समझाना चाहिए क्योंकि इसी की वजह से लड़कियों का औसत भी गिरता जा रहा है.इरफ़ान अनवर, मुंबई, भारतमैं इस बात से सहमत हूँ कि जो भी धन या सामान वर-वधू को दिया जाता है वो दरअसल उन्हें नई ज़िंदगी शुरू करने के लिए दिया जाता है. ये दोनों ओर से दिया जाना चाहिए और ये अपने मन से दिया जाए न कि इसके लिए कोई ज़ोर ज़बरदस्ती की जाए. अगर एक परिवार दूसरे परिवार से धन माँगता है तो उनके लिए गिरफ़्तारी ही सज़ा है.मंजू, अमरीकादहेज़ लेने और देने का काम चोरी से नहीं हो रहा है बल्कि सभी दहेज़ ले और दे रहे हैं. जो लोग क़ानून बनाते हैं वे भी और जो इसका विरोध करते हैं वे भी इसमें लगे हैं. बड़े नेता, अधिकारी या उद्योगपति सभी इसमें शामिल हैं. ये तब तक नहीं रुक सकता जब तक हम सब पूरे मन से इसका विरोध नहीं करते.संदीप, कानपुरमेरे विचार से ये लड़के वाले के परिवार की ग़लती है जिसे लड़के को मानना ही पड़ता है या फिर वह परिवार से अलग होकर रहे. ये शिक्षा से ही दूर किया जा सकता है. इसमें न तो कोई क़ानून मदद कर सकता है और न ही कोई मीडिया.रवि शंकर पांडेय,गुड़गाँव
ये शिक्षा से ही दूर किया जा सकता है. इसमें न तो कोई क़ानून मदद कर सकता है और न ही कोई मीडिया.
रविशंकर पांडेय, गुड़गाँव माफ़ करें, लेकिन जिस लड़की को आप इतनी बड़ी नायिका बता रहे हैं. ज़रा ध्यान से देखें कि उसने किया क्या है? आपकी वेबसाइट पर उसकी जो तस्वीर लगी है, उसमें दहेज के सामान का जो भंडार है, वो क्या दिखाता है. क्या वो दहेज का विरोध कर रही थी. ये तो सिर्फ़ सौदा टूट जाने का मामला है. दूल्हा अपनी जो क़ीमत मांग रहा था, ये साहिबा उससे कुछ कम देने को राजी थीं और उसके लिए पूरा जतन भी कर रही थीं. लेकिन जब बात औकात से बाहर हो गई, तो उन्होंने दहेज विरोध का झंडा उठा लिया और आपने बिना सोचे-समझे उन्हें नायिका बना दिया.नमिता, लंदनदहेज की बात तभी उठती है, जब किसी मामले में पानी सर के ऊपर से निकल जाता है. वरना लगभग हर शादी में दहेज किसी न किसी रूप में होता है. संदीप कुमार, मलेशियालड़के को ऐसी सज़ा मिलनी चाहिए कि वो कभी किसी चीज के लिए पैसा न मांगे. इसके लिए सज़ा काफ़ी कड़ी जैसे मौत की सज़ा हो सकती है.संधू, लंदनजव नए-नए शादी-शुदा दंपत्ति जीवन शुरू करते हैं, तो उन्हें हर चीज नीचे से शुरू करनी होती है. इसलिए रिश्तेदार और परिवार के दूसरे सदस्य उपहार और पैसे देकर उनकी मदद करते हैं, ताकि वे अपना वैवाहिक जीवन शुरू कर सकें. मैं सोचता हूँ कि पुराने जमाने में दहेज का यही मतलब था. लेकिन धीरे-धीरे लोगों ने इसका मतलब बदल दिया. अब यह परंपरा ख़तरनाक हो गई है. यह ग़लत है कि लड़की के परिवार वालों को पैसे और दूसरी चीजों के लिए तंग किया जाए. कृष्ण अग्रवाल, अमरीका

भारत में दहेज़ हत्या-राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ने स्वीकार किया

भारत में दहेज़ हत्या
भारत के राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष डॉक्टर पूर्णिमा आडवाणी ने स्वीकार किया है कि भारत में क़ानून को लागू कराने वाली संस्थाएँ दहेज संबंधी अपराधों से निबटने में गंभीरता से काम नहीं लेतीं.बीबीसी हिन्दी सेवा के कार्यक्रम "आपकी बात बीबीसी के साथ" में श्रोताओं के सवालों का जवाब देते हुए डॉ. आडवाणी ने कहा कि दहेज विरोधी क़ानून बना ज़रूर लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण बात है उसका पालन कराना. उन्होंने बताया कि राज्यों में दहेज रोकने वाले अधिकारियों की नियुक्ति 1997-98 में कर दी गई थी, लेकिन बहुत-से मामलों में तहसील स्तर के इन अधिकारियों को इस सम्बन्ध में अपने कर्त्तव्यों की जानकारी तक नहीं है.
डॉक्टर पूर्णिमा आडवाणीडॉ। पूर्णिमा आडवाणी ने कहा कि पुलिस और न्यायपालिका जैसी संस्थाओं को महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनाने की बहुत ज़रूरत है. उन्होंने बताया कि इस विषय में राष्ट्रीय पुलिस अकादमी में जो पाठ्यक्रम लागू कराया जायेगा, वह तैयार कर लिया गया है. दहेज लेने और देने वाले दोनों अपराधी हैं, लेकिन डॉ. आडवाणी ने बताया लड़कियों के माता-पिता अपनी बड़ी लड़की को इसलिए दहेज देते हैं, ताकि उनकी छोटी लड़की का विवाह कहीं इस कारण रुक न जाए."आपकी बात बीबीसी के साथ" कार्यक्रम में निशा शर्मा नाम की उस लड़की ने भी हिस्सा लिया, जिसने अपनी होने वाली ससुराल के दहेज माँगने पर उस परिवार के लड़के से विवाह करने से इनकार कर दिया था. उनका कहना था कि केवल क़ानून किसी समस्या को हल नहीं कर सकता, जब तक कि जो ग़लत है, लोगों को उसकी जानकारी न हो और वे सामने आकर उसका विरोध न करें.

भारत में दहेज मौतें

टाइम पत्रिका में एक लेख, भारत में मौतों दहेज की मांग से संबंधित है बढ़ाने के लिए 15 अनुसार के मध्य से 1980 के दशक के बाद से 400 गुना एक साल लगभग 5800 से एक वर्ष 1990 के दशक के मध्य तक. Some commentators claim that the rising number simply indicates that more cases are being reported as a result of increased activity of women’s organisations. कुछ टिप्पणीकारों कि बढ़ती संख्या केवल कि अधिक मामलों महिला संगठनों की बढ़ी गतिविधि का एक परिणाम के रूप में सूचित किया जा रहा है का संकेत दावा. Others, however, insist that the incidence of dowry-related deaths has increased. दूसरों तथापि, कि दहेज की घटनाओं-मौतों संबंधित जोर बढ़ गया है.
An accurate picture is difficult to obtain, as statistics are varied and contradictory. के रूप में आँकड़े अलग हैं और विरोधाभासी एक सटीक चित्र प्राप्त करने के लिए, कठिन है. In 1995, the National Crime Bureau of the Government of India reported about 6,000 dowry deaths every year. 1995 में, राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो भारत सरकार के बारे में 6000 दहेज मौतें हर साल की सूचना दी. A more recent police report stated that dowry deaths had risen by 170 percent in the decade to 1997. एक और अधिक हाल ही में पुलिस का मानना है कि दहेज मृत्यु के दशक में 170 प्रतिशत की 1997 की रिपोर्ट में कहा गया था बढ़ी. All of these official figures are considered to be gross understatements of the real situation. ये सभी सरकारी आंकड़ों की वास्तविक स्थिति का सकल understatements माना जाता है. Unofficial estimates cited in a 1999 article by Himendra Thakur “Are our sisters and daughters for sale?” put the number of deaths at 25,000 women a year, with many more left maimed and scarred as a result of attempts on their lives. अनधिकृत अनुमान Himendra ठाकुर "द्वारा एक 1999 लेख में उद्धृत हमारी बहनों और बेटियों की बिक्री के लिए हैं?" 25000 महिलाओं को एक साल में मौतों की संख्या में डाला, कई और अधिक maimed छोड़ दिया है और उनके जीवन पर प्रयास का एक परिणाम के रूप में scarred के साथ.
Some of the reasons for the under-reporting are obvious. कुछ कम रिपोर्टिंग के कारणों को स्पष्ट कर रहे हैं. As in other countries, women are reluctant to report threats and abuse to the police for fear of retaliation against themselves and their families. अन्य देशों में के रूप में, महिलाओं प्रतिशोध के भय के लिए खुद को और उनके परिवार के खिलाफ धमकियों और पुलिस के दुरुपयोग की रिपोर्ट करने के लिए अनिच्छुक हैं. But in India there is an added disincentive. लेकिन भारत में वहाँ एक निस्र्त्साहित जोड़ा है. Any attempt to seek police involvement in disputes over dowry transactions may result in members of the woman’s own family being subject to criminal proceedings and potentially imprisoned. कोई प्रयास दहेज लेनदेन पर झगड़े में पुलिस भागीदारी प्राप्त करने के लिए महिला की ही परिवार के सदस्यों में आपराधिक कार्यवाही और संभवतः कैद करने के लिए किया जा रहा विषय परिणाम हो सकते हैं. Moreover, police action is unlikely to stop the demands for dowry payments. इसके अलावा, पुलिस कार्रवाई दहेज भुगतान की मांग को रोकने की संभावना नहीं है.
The anti-dowry laws in India were enacted in 1961 but both parties to the dowry—the families of the husband and wife—are criminalised. यह भारत में दहेज विरोधी कानून 1961 में बनाया गया था, लेकिन दहेज के लिए दोनों पक्षों को पति और पत्नी के परिवारों-criminalised हैं. The laws themselves have done nothing to halt dowry transactions and the violence that is often associated with them. स्वयं को और कहा कि अक्सर उनके साथ जुड़ा है हिंसा दहेज लेनदेन को रोकने के लिए कुछ नहीं किया है इस कानून. Police and the courts are notorious for turning a blind eye to cases of violence against women and dowry associated deaths. पुलिस और अदालतों महिलाओं और दहेज संबंधित मौतों के खिलाफ हिंसा के मामलों के लिए एक अंधे आँख बदल के लिए कुख्यात हैं. It was not until 1983 that domestic violence became punishable by law. यह 1983 है कि घरेलू हिंसा कानून की सजा हो गई, जब तक नहीं था.
Many of the victims are burnt to death—they are doused in kerosene and set light to. पीड़ितों से कई मौत की जला रहे हैं वे मिट्टी के तेल में doused रहे हैं और प्रकाश के लिए निर्धारित किया है. Routinely the in-laws claim that what happened was simply an accident. नियमित ने ससुराल है कि क्या केवल एक दुर्घटना थी हुआ दावा. The kerosene stoves used in many poorer households are dangerous. इस मिट्टी के कई गरीब परिवारों में प्रयुक्त स्टोव खतरनाक हैं. When evidence of foul play is too obvious to ignore, the story changes to suicide—the wife, it is said, could not adjust to new family life and subsequently killed herself. जब ढकोसला के भी सबूत की अनदेखी करने के लिए स्पष्ट है, आत्महत्या करने की कहानी परिवर्तन की पत्नी है, नए परिवार के जीवन को और बाद में खुद को समायोजित नहीं कर सकता को मार दिया जाता है.
Research done in the late 1990s by Vimochana, a women’s group in the southern city of Bangalore, revealed that many deaths are quickly written off by police. अनुसंधान 1990 के दशक के अंत में Vimochana, बंगलौर के दक्षिणी शहर में महिलाओं के एक समूह द्वारा यह है कि कई मौतें जल्दी पुलिस द्वारा बंद लिखा हैं प्रगट किया. The police record of interview with the dying woman—often taken with her husband and relatives present—is often the sole consideration in determining whether an investigation should proceed or not. इस मर औरत-अक्सर उसके पति और रिश्तेदारों के साथ उपस्थित लिया-के साथ साक्षात्कार के पुलिस रिकार्ड अक्सर कि एक जांच या नहीं आगे बढ़ना चाहिए का निर्धारण करने में एकमात्र विचार है. As Vimochana was able to demonstrate, what a victim will say in a state of shock and under threat from her husband’s relatives will often change markedly in later interviews. जैसा कि Vimochana, एक शिकार सदमे की स्थिति में क्या कहते हैं और अपने पति के रिश्तेदार से खतरा अक्सर स्पष्ट बाद साक्षात्कार में बदल जाएगा अंतर्गत प्रदर्शित करने में सक्षम था.
Of the 1,133 cases of “unnatural deaths” of women in Bangalore in 1997, only 157 were treated as murder while 546 were categorised as “suicides” and 430 as “accidents”. जबकि 546 आत्महत्याओं "" के रूप में वर्गीकृत किया गया और 430 1997 में बंगलौर में महिलाओं की अस्वाभाविक मौतों "" के 1133 मामलों में से केवल 157 हत्या के रूप में इलाज किया गया "दुर्घटनाओं" के रूप में. But as Vimochana activist V. Gowramma explained: “We found that of 550 cases reported between January and September 1997, 71 percent were closed as ‘kitchen/cooking accidents’ and ‘stove-bursts’ after investigations under section 174 of the Code of Criminal Procedures.” The fact that a large proportion of the victims were daughters-in-law was either ignored or treated as a coincidence by police. लेकिन जैसा कि Vimochana कार्यकर्ता वी. Gowramma समझाया, "हम मानते हैं कि के 550 मामले जनवरी और सितंबर 1997 के बीच की रिपोर्ट, 71 प्रतिशत 'के रूप में रसोई बंद थीं / दंड संहिता की धारा 174 के तहत जांच के बाद दुर्घटनाओं' और 'स्टोव-bursts' खाना पकाने मिला प्रक्रियाओं. "तथ्य यह है कि पीड़ितों का एक बड़ा हिस्सा थे बहुएँ भी नजरअंदाज कर दिया गया था या पुलिस द्वारा एक संयोग के रूप में इलाज किया.
Figures cited in Frontline indicate what can be expected in court, even in cases where murder charges are laid. आंकड़े सीमावर्ती में उद्धृत क्या अदालत में उम्मीद की जा सकती है, के मामलों में भी, जहाँ हत्या के आरोप का संकेत दिया है. In August 1998, there were 1,600 cases pending in the only special court in Bangalore dealing with allegations of violence against women. अगस्त 1998 में, 1600 मामलों बंगलौर में ही विशेष अदालत में लंबित महिलाओं के खिलाफ हिंसा के आरोपों के साथ काम कर रहे थे. In the same year three new courts were set up to deal with the large backlog but cases were still expected to take six to seven years to complete. एक ही वर्ष में तीन नए मामले अभी भी अदालतों छह से सात साल पूरा करने के लिए ले जाने की उम्मीद थी लेकिन बड़े बकाया से निपटने के लिए स्थापित किए गए थे. Prosecution rates are low. Frontline reported the results of one court: “Of the 730 cases pending in his court at the end of 1998, 58 resulted in acquittals and only 11 in convictions. अभियोजन दरों. सीमावर्ती एक अदालत के परिणामों की सूचना कम कर रहे हैं: "के 730 मामलों में से अपनी अदालत में लंबित है 1998 के अंत में, 58 acquittals में है और परिणामस्वरूप केवल 11 अदालत में. At the end of June 1999, out of 381 cases pending, 51 resulted in acquittals and only eight in convictions.” 381 मामलों में से जून 1999 के अंत में, 51 acquittals में और परिणामस्वरूप लंबित केवल आठ अदालत में है. "

रविवार, 8 फ़रवरी 2009

पर्यावरण mudde

पर्यावरण mudde
प्रकाश व्यवस्था सुधारकर दस हजार करोड़ रु. बचा सकते हैं अगर देश में स्ट्रीट लाइट का कुशल प्रबंधन किया जाए तो १० हजार करोड़ रुपए से अधिक की राशि बचाई जा सकती है। इस राशि से १ हजार मेगावाट क्षमता वाले तीन बिजलीघर लगाए जा सकते है।चण्डीगढ़ के प्रबुद्ध नागरिकों के समूह ने स्ट्रीट लाइट को लेकर अध्ययन के बाद एक रपट तैयार की है। नागरिकों की इस परिषद का सुझाव है कि मध्य रात्रि के बाद एक-एक पोल छोड़कर लाइट जलानी चाहिए अर्थात पचास मीटर के फासले की अपेक्षा सौ मीटर के फासले पर लाइट जलाई जाए। आधी रात के बाद सड़कों पर आवागमन कम हो जाता है। ऐसी हालत में सड़कों को अनावश्यक प्रकाशित करने के लिए कीमती बिजली बर्बाद नहीं की जानी चाहिए। यह बिजली बचाकर उद्योगों और खेतों की सिंचाई के लिए दी जा सकती है।अगर समूचे चंडीगढ़ में नई प्रकाश व्यवस्था की जाए तो करीब आठ लाख रुपए खर्च आएगा। यह राशि सिर्फ १८ दिन में ही बिजली की बचत से वसूल हो जाएगी।पिछली जनगणना के अनुसार भारत में ५१६१ कस्बे हैं। कुछ चंडीगढ़ से बड़े हैं और कुछ छोटे। चंडीगढ़ में नई व्यवस्था से प्रतिवर्ष २ करोड़ रुपए की बचत हो सकती है। इस तरह अन्य कस्बों में भी बिजली बचाई जा सकती हैं अर्थात कुल १० हजार करोड़ रु. की बचत होगी। इस राशि से एक हजार मेगावाट क्षमता के कम से कम तीन बिजलीघर बन सकते हैं। इस नागरिक परिषद में चंडीगढ़ के प्रथम शिल्पज्ञ एमएन शर्मा, पंजाब के पूर्व मुख्य अभियंता एके उम्मठ के अलावा शिक्षाविद्, खिलाड़ी, वित्त विशेषज्ञ और अन्य सेवानिवृत्त वरिष्ठजन शामिल थे।अभयारण्य में आग से शेरों की पुनर्वास योजना संकट मेंएशियाई सिंहो के पुनर्वास के लिए आबाद की गई कूनो-पालपुर अभयारण्य परियोजना में आग से लगभग सौ वर्ग किमी का जंगल खाक हो चुका है। अभयारण्य में रहने वाले वन्यप्राणियों और वन संपदा के भारी तादाद में नष्ट होने की आशंका है।गुजरात गिर के एशियाई सिंहो का पुनर्वास करने के उद्देश्य से वर्ष १९९५ में केन्द्र सरकार द्वारा प्रारंभ की गई १४ करोड़ की कूनो-पालपुर अभयारण्य परियोजना श्योपुर जिले में कूनो नदी किनारे एवं पालपुर वन क्षेत्र के १२४० वर्ग किमी क्षेत्र में अधिसूचित है। यहाँ गुजरात के सिंहो की अगवानी के लिए २४ ग्रामों को विस्थापित कर आवश्यक तैयारी पूर्ण कर ली गई है।इसी कूनो नदी के किनारे का जंगल अभयारण्य का बफर जोन है, जिसमें पैदा होने वाली घास की फसल तथा महुआ व गोंद, चीड़ के वृक्षों की संख्या इतनी अधिक है कि कभी वह इस क्षेत्र में रहने वाले सैकड़ों परिवारों की आजीविका पूरे वर्ष चलाती थी। वर्तमान में इस जंगल में प्रवेश पाना बाहरी व्यक्तियों के लिए पूरी तरह से प्रतिबंधित है, लेकिन चोरी-छिपे वन संपदाआें से लाभ कमाने का क्रम बरकरार है।पिछले दिनों प्रदेश के वन अभयारण्यों से जुड़े मामलों को लेकर भोपाल में बैठक संपन्न हुई। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की अध्यक्षता में बोर्ड ने निर्णय लिया था कि गुजरात से सिंह लाने के संबंध में बोर्ड भारत सरकार से पहल करेगा। मगर आग ने फिर इस योजना को खटाई में डाल दिया है।चन्द्रयान अगले वर्ष अंतरिक्ष में जायेगाचाँद पर भारत के पहले मानव रहित मिशन चंद्रयान एक के वैज्ञानिक उपकरणों और यान के विकास का काम अंतिम चरण मंे है। इसे अगले वर्ष निर्धारित समय पर अंतरिक्ष में छोड़ दिया जाएगा।अंतरिक्ष विभाग ने संसद की स्थायी समिति को बताया कि चंद्रयान-एक को धरती से नियंत्रित करने के लिए बंगलोर में डीप स्पेस नेटवर्क स्थापित कर दिया गया है । अंतरिक्ष यान २००८ तक पूरी तरह तैयार हो जाएगा। समिति की संसद में पेश रिपोर्ट में कहा गया कि इस मिशन का मूल मकसद चाँद की पूरी सतह की त्रिआयामी तस्वीरें लेने के अलावा वहाँ मौजूद खनिजों एवं रसायनों का पता लगाना है।चंद्रयान-एक को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के ध्रुवीय उपग्रह यान पीएसएलवी से प्रक्षेपित किया जाएगा। पीएसएलवी इसे पृथ्वी की २४० किलोमीटर गुणा २४०० किलोमीटर की कक्षा में स्थापित करेगा। बाद में यान खुद की प्रणोदक प्रणाली के बल पर चाँद से १०० किलोमीटर दूरी की ध्रुवीय कक्षा में पहुँच जाएगा।प्रकृति प्रेमी ने बनाया पेड़ पर मकानराजस्थान के उदयपुर मंे एक प्रकृति प्रेमी ने पेड़ पर सभी सुविधाआें से युक्त आलीशान मकान बनाकर सबको अचरज में डाल दिया है।उदयपुर में नेशनल हाईवे से सटी चित्रकूटनगर कॉलोनी में बना यह मकान आम के पेड़ पर छ: वर्ष पूर्व केपी सिंह ने बनवाया था। आम का ७० वर्ष पुराना यह पेड़ कई शाखा-प्रशाखाआें से युक्त है। इसका तना ही ९ फुट की ठोस गोलाई लिए है इस पर सिंथेटिक फाइबर से बना तीन मंजिला मकान २८०० वर्गफुट में है। जिस जगह यह मकान बना है वहाँ पहले कुंजड़ों की विशाल बाड़ी थी। उस बाड़ी में चार हजार पेड़ थे। उन्हें कटवाने का २० लाख का ठेका था। श्री सिंह को जब इसका पता चला तो उन्होंने केवल पेड़ बचाने की सोची अपितु पेड़ और प्राणी के सनातन संबंध को चिरस्थायी बनाए रखने के लिए ट्री हाउस बनवाया। मकान बनाते समय पेड़ की टहनियों की किसी तरह काँट-छाँट नहीं की गई और न ही पत्तियों को ही क्षति पहुँचाई गई। यही कारण है कि आज भी इस पेड़ पर तोतों, गिलहरिया, कोयल, गिरगिटों तथा चिड़ियों के घोंसले हैं।पेड़ पर बने इस मकान पर चढ़ने के लिए एक दस फुट ऊँची रिमोट चलित सीढ़ी का इस्तेमाल किया जाता है। रसोई में वृक्ष की डाल के सहारे काँच रखकर डाइनिंग टेबल बनाई गई है जिस पर पाँच व्यक्ति एक साथ भोजन कर सकते हैं। दूसरी मंजिल पर शयन कक्ष और पुस्तकालय है। इसमें एक ओर रस्सी का बना झूला है और पुस्तकें रखने की रेक की जगह है। तीसरी मंजिल पूर्णत: प्रकृति को आत्मसात किए है। इसमें पेड़ का सबसे ऊपरी सिरा हरीतिमा का आँचल ओढ़े है। छोटी-छोटी डालियाँ और उनके पत्तों की हवाखोरी की रौनक सर्वथा नए वातावरण का निर्माण करती है। इससे जुड़ा एक छोटा का कक्ष भी है। यह पूरा मकान वास्तु के अनुरूप बनाया हुआ है।त्रिफला से हो सकेगा कैंसर का इलाजवैज्ञानिकों ने आशा जताई है कि एक दिन भारतीय आयुर्वेदिक औषधि त्रिफला से पाचन ग्रंथी के कैंसर का इलाज किया जा सकेगा। पिटसबर्ग विश्वविद्यालय के कैंसर, संस्थान की एक टीम ने चूहों पर किए एक प्रयोग में पाया कि त्रिफला चूर्ण के इस्तेमाल से पैनक्रियाज यानी पाचन ग्रंथी में होने वाले कैंसर का बढ़ना कम हो जाता हैं।अमेरिकन एसोसिएशन फॉर कैंसर रिसर्च में पेश अध्ययन से आशा जगी है कि एक दिन त्रिफला से इस रोग का इलाज भी हो पाएगा। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि अभी शोध अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही है। त्रिफला चूर्ण का भारत में सदियों से इस्तेमाल होता रहा है, यह आंवला, हरड़े और बहेड़ा नाम के तीन फलों को सुखाकर बनाया जाता है इसलिए इसे त्रिफला कहा जाता है।आयुर्वेद के सिद्धांतो के अनुसार त्रिफला में जो तीन फल हैं वे शरीर में तीन अहम चीजों का संतुलन बनाए रखते हैं, ये तीन चीजें है - कफ, वात और पीत। त्रिफला का प्रयोग भारत में एक आम स्वास्थ्यवर्द्धक की तरह होता रहा है और इसे रोजमर्रा की बीमारियों के लिए बहुत प्रभावशाली औषधि माना जाता रहा है।अध्ययनों में पाया गया है कि कोशिकाआें में त्रिफला कैंसर रोधी का काम करता है और अब चूहों पर किए अध्ययन से पता चलता है कि अग्नाशय को नुकसान पहुंचाए बिना त्रिफला बहुत ही असरदार है। मानव अग्नाशय के ट्यूमरों को चूहों में स्थापित किया गया और फिर हर हफ्ते में पांच दिन तक उन्हें त्रिफला खिलाया गया। चार हफ्तों बाद इन चूहों के ट्यूमर के आकार और प्रोटीन की मात्रा की ऐसे चूहों के साथ तुलना की गई जिन्हें त्रिफला नहीं दिया जा रहा था।शोधकर्ताआें ने पाया कि त्रिफला दिए जाने वाले चूहों में ट्यूमर का आकार आधा हो गया अध्ययन टीम में शामिल प्रोफेसर संजय श्रीवास्तव का कहना था त्रिफला ने खराब हो चुकी कोशिकाआें को समाप्त कर दिया और कोई जहरीला प्रभाव छोड़े बिना ट्यूमर का आकार आधा कर दिया। ब्रिटेन मंे कैंसर अनुसंधान के विज्ञान सूचना अधिकारी डॉ. एलसिन रॉस का कहना था, अग्नाशय कैंसर का इलाज बहुत कठिन है इसलिए इलाज के नए तरीके खोजने की जरूरत है, ये सब अभी तक प्राथमिक प्रयोग हैं त्रिफला को लेकर भविष्य में बहुत कुछ किए जाने की जरूरत हैं। ऐसा देखा गया है कि इलाज शुरू होने और मौत के बीच मात्र छह महीनें का फासला होता है। त्रिफला से शायद इस स्थिति को बदला जा सकेगा। बाघों से विहीन हो गया है माधव राष्ट्रीय उद्यानमध्यप्रदेश में शिवपुरी के माधव राष्ट्रीय उद्यान के टाइगर सफारी में अब बाघों की दहाड़ सुनाई नहीं देगी, क्योंकि यहाँ की एकमात्र बाघिन भोपाल भेजी गई हैं।उद्यान के सूत्रों ने बताया कि शुरु से ही टाइगर सफारी में रहने वाली बाघिन शिवानी अब उम्रदराज हो गई है, इसलिए उसे भोपाल के वन विहार में भेजा गया है। अब इस क्षेत्र में कोई बाघ नहीं बचा है।सेंट्रल जू अथारिटी के निर्देश हैं कि दुर्लभ और वृद्धावस्था में आने पर तीन चार साल से अकेले रहने वाले जानवरों को उस स्थान पर भेजा जाए जहाँ उनकी प्रजाति के जीव हों।तीन दशक पूर्व राष्ट्रीय उद्यान में टाइगर सफारी बनाकर उसमें पेटू बाघ और तारा बाघिन के जोड़े को रखा गया था। इनके एक दर्ज बच्चों में शिवानी भी शामिल हैं।तारा और पेटू समेत उनके बच्चों को समय-समय पर अन्य स्थानों पर भेजा जा चुका है, केवल शिवानी ही बचीथी। सूत्रों ने बताया कि उद्यान में बाघों के जोड़े लाने की तैयारी की गई है और इस पर शीघ्र ही सरकार स्वीकृति मिलने की संभावना है।मुंबई में पेड़ों की गिनती होगीकरीब नौ वर्ष के अंतराल के बाद बंबई महानगर पालिका (बीएमसी) शहर के पड़ों की गणना करेगी। गत वर्ष पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के विरोध में दायर एक जनहित याचिका में बीएमसी के वृक्ष प्राधिकारी ने अब जून २००७ तक इस कार्य को पूर्ण कर लेने की घोषणा की है।बीएमसी द्वारा १९९८ में पेड़ों की गणना की गई थी जबकि महाराष्ट्र (शहरी क्षेत्र) प्रोटेक्शन एंड प्रिजर्वेशन ऑफ ट्रीज एक्ट (१९७५) के अनुसार यह गणना हर पाँच साल में एक बार होना चाहिए थी। बीएमसी ने एक निजी संगठन को शहर के हरियाली से आच्छादित क्षेत्र का विस्तृत ब्योरा तैयार करने का कार्य सौंपा है। एन्वायरन्मेंट एंड बॉयोटेक्नालॉजी फाउंडेशन (एन्बीटेक) नामक यह संस्था नासिक, थाणे व मीरा भायंगर में वृक्ष गणना कर चुकी हैं।वर्तमान में एन्बीटेक के ३० उद्यानिकी विशेषज्ञों की टीम बारी-बारी से प्रत्येक वार्ड में निजी परिसरों व शासकीय भवन पर खड़े वृक्षों का सर्वे कर रही है।वर्तमान सर्वेक्षण में हरित क्षेत्र के बढ़ने के आसार हैं क्योंकि सर्वेक्षण का दायरा बढ़ चुका है। पिछले सर्वेक्षण (१९९८) के केवल उन्हीं पेड़ो को गणना में शामिल किया गया था जिनके तने का व्यास ६ इंच से ज्यादा था और जो ४ फुट से ज्यादा ऊँचे थे जबकि वर्तमान गणना में डेढ़ इंच व्यास वाले पेड़-पौधे भी शामिल कर लिए गए हैं।सर्वे टीम प्रत्येक पेड़ की मोटाई, ऊँचाई, आयु, स्थिति व संख्या व प्रजातीय विशेषता (दुर्लभ होना) आदि का पता लगा रही है। नगर निगम ने निजी संपत्ति को स्वामियों से सर्वेक्षण में सहयोग देने की अपील की है। पेड़ों की गणना से रोपित पौधों व पुराने दुर्लभ पेड़ों, बूढ़े वृक्षों, बीमार वृक्षों आदि की जानकारी एकत्रित हो जाएगी।१९९८ की गणना के अनुसार मुंबई शहर में पेड़ो की संख्या ५ लाख है। उत्तर मुंबई के दहीसर वार्ड में सर्वाधिक ६१,००७ वृक्ष हैं। दक्षिण मंुबई के भांडुप वार्ड में ५६,७५९ तथा नागपाड़ा वार्ड में सबसे कम ११,६५२ पेड़ हैं। विलेपार्ले हिन्दू कॉलोनी दादर, पेड़ों की विभिन्नता की दृष्टि से समृद्ध क्षेत्र हैं। यहाँ स्थानीय नागरिकों द्वारा पेड़ों को संरक्षण भी दिया गया है।कुछ सार्वजनिक क्षेत्रों जैसे एमजी रोड़, उन्नत नगर, यशवंत नगर, गोरेगाँव वार्ड में पुराने वृक्षों की संख्या काफी संतोषजनक है। मुंबई में निजी परिसरों में हरियाली ज्यादा है। गुलमोहर, आसापाला, करंज, अमलतास ज्यादा हैं निजी परिसरों में बड़, पीपल व जामुन के पेड़ ज्यादा हैं।हाइड्रो क्लोरो-फ्लोरो कार्बन को रोकने का आह्वानएक प्रमुख पर्यावरण संगठन ने पूरी दुनिया के देशों से ओजोन परत को नुकसान पहुँचाने वाली गैसों की बढ़ती मात्रा को रोकने के लिए एक नई संधि का आह्वान किया है क्योंकि क्योटो संधि ग्लोबल वार्मिंग को रोकने में काफी नहीं है।पर्यावरण अन्वेषण एजेंसी ने कहा है कि राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी द्वारा बताए गए मौसम संरक्षण के उद्देश्य को पाने में मांट्रियल संधि का लक्ष्य क्योंटो संधि से कहीं आगे हैं। अध्ययन में यह भी कहा गया कि ओजोन परत को नुकसान पहुँचाने वाली गैसों में सबसे खतरनाक हाइड्रो क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (एचसीएफसी) ओजोन परत को सबसे अधिक नुकसान पहुॅंचाता है।एजेंसी के अभियान निदेशक अलेक्जेंडर वान बिस्मार्क ने कहा कि अध्ययन में हाइड्रो क्लोरो-फ्लोरो कार्बन को उत्पन्न होने से रोकने का आह्वान किया गया है जो ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को कम करने का अभूतपूर्व रास्ता हो सकता है। पर्यावरण अन्वेषण एजेंसी ने कहा कि अगर एचसीएफसी को रोक दिया जाए तो २.७५ करोड़ टन कार्बन डाईऑक्साइड के पैदा होने पर रोक लगाई जा सकती है जो जैविक इंर्धन को जलाने से पैदा होती है।एजेंसी के सुझाव के अनुसार अगर हाइड्रो क्लोरो-फ्लोरो कार्बन के स्थान पर क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का रेफ्रिजेटर और एयर कंडीशनर में इस्तेमाल किया जाए जो ओजाने परत को कम नुकसान पहुँचाती है। मांट्रियल संधि में विकसित देशों द्वारा २०१५ तक हाइड्रो क्लोरो-फ्लोरो कार्बन के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध का लक्ष्य है जबकि विकासशील देशों को लिए यह लक्ष्य २०४० तक हैं।देश में बूँद-बूँद पानी का संकट होगाअगले चालीस साल में देश में बँूद-बँूद पानी का संकट होगा। यदि इस पर तत्काल काम नहीं किया गया तो हो सकता है कि आने वाले समय में सामाजिक ताना-बाना केवल पानी के कारण गड़बड़ा जाएयदि देश की सभी नदियाँ लबालब भरी रहें तो भी २०४५ तक देश की आबादी इतनी ज्यादा होगी कि इतना पानी भी जरुरत पूरी नहीं कर सकेगा। यह चेतावनी ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी के प्रो. जे.वुड ने की, वे ख्यात अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ हैं। उन्होंने नर्मदा बाँध विवाद पर भी पुस्तक लिखी है। वे जल समस्या के राजनीतिक हल की बात करते हैं। राजनीतिक औजार के रुप में वे देश के जल न्यायाधिकरण की ओर इंगित करते हैं। नर्मदा मामले में उनका कहना है कि १९७८ में न्यायाधिकरण का फैसला अहम था। हालाँकि बाद में गुजरात और मध्यप्रदेश में पानी को लेकर विवाद की स्थिति बनी। इसके बाद अदालत से भी इसी तरह का आदेश पारित हुआ। वुड संेटर फॉर इंडिया एंड साउथ एशिया रिसर्च के संस्थापक निदेशक रह चुके हैं। शास्त्री इंडो-कैनेडियन इंस्टीट्यूट के स्थानीय निदेशक भी रह चुके हैं।वे महात्मा गाँधी से भी प्रभावित रहे और उन्होंने गुजरात के स्कूलों में बच्चों को पढ़ाया भी। १९६२ में वे नर्मदा बाँध के मामले से जुड़ेऔर इसमें सक्रियता से भाग लिया।जलकुंभी की सब्जी से, कैंसर भगाइए !क्या अपने कभी जलकुंभी की सब्जी खाई है ? अगर नहीं, तो इसे जरूर आजमाइए, क्योंकि जलकुंभी में कैंसर निरोधक तत्व पाए जाते है। शोधकर्ताआें का तो मानना है कि जलकुंभी को पका कर खाने की तुलना में उसे कच्चा खाना कहीं अधिक फायदेमंद है।उल्लेखनीय है कि जलकुंभी यूरोप से लेकर मध्य एशिया और दक्षिण एशिया सभी क्षेत्रों में पाई जाती है। इतिहास इसका गवाह है कि प्राचीन काल में लोग इसकी पत्तियों और फूली हुई टहनियों की सब्जी बनाकर खाते थे। कुछ ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि यह इंसान द्वारा उपभोग में लाई जाने वाली सबसे पुरानी सब्जियों में से एक है।अलस्टर विश्वविद्यालय के प्रमुख शोधकर्ता इयान रॉलैड के नेतृत्व में शोधकर्ताआें ने उन लोगों के रक्त नमूनों की जांच की जो जलकुंभी खाते रहे हैं। निष्कर्ष से पता चला कि जो लोग जलकुंभी खाते रहे हैं, उनके श्वेत रक्त कणिकाआें में डीएनए के क्षतिग्रस्त होने की दर सामान्य लोगों की तुलना में २३ फीसदी कम पाई गयी। डेली मेल अखबार के मुताबिक जिन लोगों में श्वेत रक्त कणिकाआें में डीएनए के क्षरण की दर अधिक होती है, उनके कैंसर की गिरफ्त में आने का खतरा अधिक होता है।जब शोधकर्ताआें ने श्वेत रक्त कणिकाआें की कोशिकाआें पर फ्री रेडिकल के असर का आकलन किया तो यह निष्कर्ष सामने आया कि जो लोग जलकुंभी की सब्जी खाते रहे हैं, उनके फ्री रेडिकल के दुष्प्रभावों की चपेट में आने का खतरा १० फीसदी कम था। ऐसे लोगों के शरीर में एंटी-ऑक्सीडेंट की मात्रा में करीब १०० फीसदी की बढ़क्वोत्तरी दर्ज हुई।उल्लेखनीय है कि एंटी-ऑक्सीडेंट ऐसा रसायन है तो कोशिकाआें को क्षतिग्रस्त होने से बचाता है। इन शोधकर्ताआें के मुताबिक खासकर, धूम्रपान करने वाले लोगों के लिए जलकुंभी कहीं अधिक लाभदायक है। इसकी वजह यह है कि धूम्रपान करने से एंटी-ऑक्सीडेंट के स्तर में भारी गिरावट आती हैं । जलकुंभी खाने से इसका स्तर बढ़ जाता है। जिन पशुआें को प्रयोग के तौर पर जलकुंभी खिलायी जाती है, वे दूसरे पशुआें की तुलना में कहीं अधिक स्वस्थ पाए जाते हैं। उल्लेखनीय है कि प्रसिद्ध अभिनेत्री एलिजाबेथ हर्ली रोजाना ७ कप जलकुंभी सूप पीती है। प्रदूषण खात्मे की तरकीब बताने पर 1 अरब मिलेंगेपर्यावरण में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड को ठिकाने लगाने की तरकीब निकालने वाले को 2.5 करोड़ डॉलर (लगभग 1.09अरब रुपए) का इनाम मिलेगा। यह घोषणा अर्थ चैलेंज वर्जिन एयरलाइंस के प्रमुख सर रिचर्ड ब्रेनसन और अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अल गोर ने मिलकर की है।वाहनों की बढ़ती संख्या से भी यह गैस बढ़ती जा रही है। सर रिचर्ड ने कहा कि कार्बन उत्सर्जन की रोकने के वर्तमान विकल्प काफी नहीं है। हमें पृथ्वी पर मंडराते खतरे को भांपना होगा। हमारे वर्तमान विकल्प ज्यादा से ज्यादा साठ साल चलेंगे। मुझे अपने और अपने बच्चों के बच्चों का भविष्य सुरक्षित करना है। पृथ्वी को बचाने के लिए जरुरी हैकि ग्रीनहाउस गैस कार्बन डाइऑक्साइड से छुटकारा पा लिया जाए। वर्जिन के प्रमुख के साथ इस अभियान से जुड़ने वाले अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अल गोर ने कहा कि एक ऐसी प्रक्रिया की तलाश है जो हर साल पर्यावरण में छोड़ी जा रही लगभग एक अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड को ठिकाने लग सके। अब पर्यावरण चेतना कार्यक्रमों से जुड़ चुके अल गोर ने हाल ही में ग्लोबल वार्मिंग के विषय पर केन्द्रित फिल्म द इनकान्विनिएंट टूथ बनाई थी।खेतों को बंजर होने से बचाना होगाअगर पारंपरिक खेती की ओर जल्द नहीं लौटे तो खेत बंजर हो जाएँगे। कृषि विभाग की ओर से पिछले दिनों उ.प्र. के सभी नौ कृषि जलवायु क्षेत्र (एग्री क्लाइमेट जोन) में कराए गए एक सर्वेक्षण के बाद जो चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई है, उसके आधार पर विभाग किसानों को सचेत करने जा रहा है।रिपोर्ट के अनुसार राज्य के बहुत से क्षेत्रों में रसायनों का इतना अधिक इस्तेमाल हो चुका है कि खेत लगभग बंजर होने की स्थिति में पहॅुच चुके हैं। रिपोर्ट के अनुसार पौधे के वानस्पतिक विकास के लिए जिम्मेदार पोषक तत्व नाइट्रोजन प्रदेश के सभी कृषि जलवायु क्षेत्र में न्यूनतम स्तर पर पहंॅुच चुका है, जबकि जड़ के विकास के लिए महत्वपूर्ण पोषक तत्व फास्फोरस तो कई क्षेत्रों में अति न्यूनतम स्तर पर है। अन्य पोषक तत्वों में जिंक व सल्फर पश्चिमी मैदानी क्षेत्र में बहुत तेजी से काम हो रहा है, जबकि बुंदेलखंड को छोड़कर सभी कृषि जलवायु क्षेत्र में आयरन की काफी कमी है।पश्चिमी मैदानी क्षेत्र तथा मध्य पश्चिमी मैदानी क्षेत्र को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में मैगनीज की भारी कमी है। रिपोर्ट में इस बात पर विशेष टिप्पणी की गई कि कई क्षेत्रों मे सूक्ष्म पोषक तत्व की स्थिति लगातर दयनीय हो रही है, अगर जल्द ही इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में इन जमीनों पर उत्पादन की आशा निरर्थक होगी। सरकार को भेजी गई रिपोर्ट में विभागीय विशेषज्ञों का कहना है कि पंजाब और हरियाणा की भाँति उत्तरप्रदेश में भी तेजी से खेती का मशीनीकरण हो रहा है। बैल गायब हो चुके हैं और थोड़े बहुत वन क्षेत्र हैं, वहाँ की पत्तियों का इस्तेमाल लोग खाद की बजाय ईंधन के रुप में कर रहे हैं। ट्रैक्टर से खेती होने के कारण मेड़ सुरक्षित नहीं रहे जिससे पानी बह जाता है। इसी के बाद पोषक तत्व भी चले जाते हैं।हालाँकि यह भी सुझाव दिया गया है कि हरी खाद, गोबर की खाद, कम्पोस्ट खाद तथा फसल अवशेष का उपयोग कर भूमि की जल धारण क्षमता तथा फसलों में जल की उपलब्धता हो बढ़ाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त फसल चक्र में दलहनी फसलों का इस्तेमाल कर सूक्ष्म पोषक तत्वों के साथ रक्षा के उपाय भी किए जा सकते है।नेपाल में गिध्दों के लिए अनूठा भोजनालयविकसित देशों में पालतू कुत्तों व दूसरे जीवों के लिए होटल और भोजनालय उपलब्ध हैं, लेकिन दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक नेपाल में विलुप्तप्राय गिध्दों के लिए एक अनूठा भोजनालय स्थापित किया है। इस तरह के भोजनालय कई और इलाकों में स्थापित किए जाएंगे।कभी ये गिध्द नेपाल के विभिन्न इलाकों में झुंड में नजर आते थे, लेकिन रहस्यमय तरीके से ये जीव गायब होते जा रहे हैं। भारत, नेपाल, पाकिस्तान जैसे देशों में 90 फीसदी से अधिक गिध्द मौत के शिकार बन चुके हैं। माना जाता है कि पशुओं और खासकर गायों के इलाज में डिक्लोफैनक नामक दवा के इस्तेमाल के कारण गिध्दों की आबादी खतरे में पड़ी। पशुओं के मरने के बावजूद उनके कंकाल में इस दवा की मात्रा बरकरार रहती है।जैसे ही गिध्द इन मृत पशुओं का मांस खाते हैं, इस दवा के कारण गिध्दों का गुर्दा बर्बाद हो जाता है। इन एशियाई देशों में तीन प्रजातियों के गिध्दों में से 90 फीसदी से अधिक के खात्मे के पीछे इस दवा की खास भूमिका है। यूं तो नेपाल समेत कई देशों की सरकारों ने इस दवा के इस्तेमाल पर रोक लगा दी, लेकिन अभी भी नेपाल ने पशुओं के लिए इलाज के लिए इस दवा का इस्तेमाल किया जाता है। इससे चिंतित होकर नेपाल के एक संगठन बर्ड कंजरवेशन नेपाल (बीसीएन) ने अनूठी पहल की है।इस संगठन ने गिध्दों के लिए रसायन मुक्त भोजनालयों की व्यवस्था की है। गिध्दों के लिए पहला ऐसा भोजनालय पश्चिमी नेपाल के नवलपरासी जिले के कावासोती गांव में स्थापित किया गया हैं बीसीएन ने वहां एक भूखंड खरीदा है जहां मरणासन्न पशुओं को रखा जाता है यह कंपनी किसानों से बूढ़े और बीमार पशुओं की खरीददारी करता है और फिर इनका डिक्लोफैनक के बजाय किसी और वैकल्पिक दवा से इलाज किया जाता है। पब पशु की मौत हो जाती है तो उसके पार्थिव अवशेष को खुले मैदान में छोड़ दिया जाता है।डिक्लोफैनक से मुक्त यह मांस गिध्दों के लिए लाभदायक होता है। डिक्लोफैनक के बजाय मरणासन्न पशुओं को मेलोक्सीकम दवा दी जाती है जो गिध्दों के लिए खतरनाक नहीं है। इस तरह के कई और रेस्तरां गिध्दों के लिए बनेंगे। पंचनगर गांव में भी गिध्दों के लिए एक ऐसा ही भोजनालय बना है।एयर कंडीशनर से बढ़ती है शहर की गर्मीघरों को ठंडा करने के लिए इस्तेमाल होने वाले एयर कंडीशनर से बाहर का वातावरण गरम होता है और इस तरह से आखिरकार शहर की गर्मी बढ़ जाती है। अध्ययनकर्ताओं ने उपरोक्त खुलासा किया है।एक जानकारी के अनुसार ओकायामा यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस के यूकीताका ओहाशी और उनके सहयोगी शोधकर्ताओं ने जापान के एक शहर के तापमान का विस्तृत अध्ययन किया। इन शोधकर्ताओं ने अलग-अलग मौसम में टोक्यो के तापमान का अध्ययन करने के बाद यह खुलासा किया है। अध्ययन में बताया गया है कि एयर कंडीशनर से निकलने वाली गर्मी से सड़कें और गलियां गरम हो जाती हैं। एयर कंडीशनर से इतनी अधिक गरमी निकलती है कि तापमान में कम से कम एक से दो डिग्री सेल्सियस तक की वृध्दि हो जाती है। एयर कंडीशनर से न सिर्फ किसी इमारत या घर के अंदर की गरमी बाहर आती है, बल्कि बिजली का इस प्रक्रिया में जिस तरह से उपयोग होता है, उससे भी अच्छी खासी मात्रा में गरमी बाहर आती है। अन्य शब्दों में कूलर न सिर्फ अंदर की गरमी को बाहर लाता है, बल्कि बाहर की गरमी में वह और अधिक गरमी घोलता है। मशीनें जिस तरह से ऊर्जा का उपयोग करती हैं, उससे बाहर के परिवेश के तापमान में वृध्दि होती है। वस्तुतः जापानी शोधकर्ताओं के अनुसार टोक्यो किसी भी गरम दिन के दौरान लगभग 1.6 गीगावाट बिजली की खपत करता है। यह 1.5 परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से निकलने वाली बिजली के बराबर है। किस बड़े शहर के वायुतापमान का सही-सही अनुमान लगाने के लिए मौसम विभाग के विशेषज्ञों को यह जानने की जरुरत है कि कैसे बड़ी इमारतों से गर्मी बाहर जाती है।शिकार की खोज में लोहे की बूयह तो आपने भी महसूस किया होगा कि लम्बे समय तक लोहे के औजारों से काम करने के बाद शरीर से एक विचित्र किस्म की गंध आने लगती है। इसी तरह रेलगाड़ी में लम्बी यात्रा के बाद भी शरीर से एक अजीब-सी धातुई गंध निकलती है। यदि सूक्ष्म स्तर पर देखें तो सिक्कों या चाबी को संभालते-संभालते भी हाथों में यह गंध सूंघी जा सकती है। क्या है यह गंध? लोहे में तो कोई गंध होती नहीं, फिर यह गंधी कैसी है ? दरअसल यह गंध लोहे की नहीं होती।हमारी त्वचा वसा का निर्माण करती है। यह वसा जब लोहे के संपर्क में आती है तो इसका विघटन होता है और तरह-तरह के कीटोन्स और एल्डीहाइट्स बनते हैं। ये वाष्पशील होते हैं और इनकी गंध काफी तीखी होती है। यह वह धातुई गंध होती है जो लोहे से संपर्क के बाद पैदा होती है। मज़ेदार बात यह है कि यह लोहा किसी भी तरह का हो सकता है। मतलब यह पर्यावरण में पाया जाने वाला लोहा हो या हमारे अपने खून के हीमोग्लोबिन का, कोई फर्क नहीं पड़ता। वर्जीनिया पोलीटेक्निक संस्थान तथा ब्लैक्सबर्ग स्टेट विश्वविद्यालय के रसायनज्ञ डाएटमार ग्लिंडमैन का यही विचार है।श्री डाएटमार और उनके सहयोगियों ने सात व्यक्तियों के शरीरों पर लोहा घिसने के बाद निकलने वाली वाष्प का विश्लेषण करके उसमें मौजूद रसायन पहचाने। इनमें सबसे तेज गंध वाले रसायन का नाम था 1-ऑक्टीन-3-ओन। यह एक कीटोन पदार्थ है।जर्मन शोध पत्रिका आंगवांडे केमी के अंतर्राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित अपने शोध पत्र में डाएटमार व साथियों ने बताया कि जब उन्होंने अपना ही खून खुद की त्वचा पर रगड़ा और वाष्प का विश्लेषण किया तो इसी तरह के रसायन उपस्थित थे। यानी खून में मौजूद लौह भी त्वचा की वसा के साथ उसी प्रकार क्रिया करता है।श्री डाएटमार का मत है कि मनुष्यों में यह गंध पहचानने की क्षमता शिकार में मददगार रही होगी। इस गंध की मदद से वे हाल ही में घायल हुए पशुओं को ढूंढ पाते होंगे। अलबत्ता यह उनका मत है, इसकी पुष्टि करना काफी मुश्किल काम होगा।चीन सरकार की नई रिपोर्ट के मुताबिक चीन पर्यावरण संरक्षण और इसमें सुधार की राह में आगे बढ़ने में नाकाम रहा है। इस रिपोर्ट में चीन को पर्यावरण प्रदूषण फैलाने वाले में काफी ऊपर रखा गया है और वर्ष 2004 के बाद इस स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है।शैक्षिक और सरकारी विशेषज्ञों द्वारा तैयार इस रिपोर्ट में 118 देशों में से चीन को 100वें स्थान पर रखा गया है। पारिस्थितिकी मानकों का स्तर तय करने के लिए करीब 30 सूचकों का इस्तेमाल किया गया। इनमें कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन, गंदे पानी की निकासी और पीने के पानी की सफाई भी शामिल है।शोधकर्ता दल के निदेशक ही चुआनकी ने कहा - सामाजिक और आर्थिक आधुनिकीकरण के मुकाबले चीन पारिस्थितिकी सुधारों में बहुत पीछे हैं। दुनिया की कुल आबादी का पाँचवा हिस्सा रखने के बावजूद चीन प्रतिदिन दुनिया के कुल तेल उत्पादन की तीन करोड़ बैरल आयात करता है, यानी सिर्फ चार फीसदी खपत करता है। लेकिन तेज आर्थिक विध्दि से उसकी ऊर्जा जरुरतों में दिन-प्रतिदिन इजाफा हो रहा है। चीन की मौजूदा योजना के अनुसार हर हफ्ते एक नई ऊर्जा परियोजना शुरु की जानी है, इनमें से अधिकांश योजनाएँ कोयला आधारित है।विश्व बैंक का अनुमान है कि चीन में अगले 15 वर्षो में आर्थिक वृध्दि की दर हर साल छः फीसदी के लगभग रहेगी, जो कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की अनुमानित दर की दुगुनी है।चीन अक्षय ऊर्जा पर भारी निवेश कर रहा है और उसकी योजना है कि कुल ऊर्जा खपत में 15 फीसदी हिस्सा अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं से हो। बिजिंग से बीबीसी संवाददाता डेनियल ग्रीफिथ्स का कहना है कि यह रिपोर्ट उन नेताओं के लिए चिंता का विषय है जो प्रदूषण कम करने का लगातार वादा करते रहे एक वह जेन थी टार्जन की सखी। एक यह जेन है, जेन गुडाल के कॉमिक्स की दीवानी थी। बड़ी होकर यह जेन भी अफ्रीका के जंगलों में जा पहुँची। सन् 1960 की बात है जब 20 वर्षीय जेन ने प्रोफेसर लेविस लीकी का चिम्पांजियों पर भाषण सुना। वह उनसे इतनी प्रभावित हुई कि सब छोड़छाड़ कर वह तंजानिया के गोम्बे राष्ट्रीय उद्यान जा पहुँची। उसने वर्षो तक वहीं रहकर चिम्पांजियों का इतने पास से अध्ययन किया कि वह उन्हीं के साथ रहने लगी। उसने एक-एक चिम्पांजी को उसका नाम दिया। सन् 1997 में उसने जेन गुडाल संस्था बनाई और चिम्पांजियों को खत्म होने से बचाने का अभियान शुरु कर दिया। उसी का नतीजा है कि अफ्रीका में अभी भी चिम्पांजी हैं। संयुक्त राष्ट्र के पूर्व सचिव कोफी अन्नान, पहले वाले जेम्स बॉण्ड पियर्स ब्रोस्नान, एंजेलिना जोली जैस दोस्तों की मदद से जेन दुनियाभर में जंगलों और वन्य प्राणियों को बचाने के काम में लगी है। इसके लिए वह देश-देश घूमकर अपने संस्मरण सुनाती हैं, अफ्रीका के जंगलों की रोचक तस्वीरें दिखाती है ताकि लोगों को पता चले कि उनके शहरो से बाहर क्या कुछ हो रहा है।पुणे के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मिटिरियोलॉजी (भारतीय कटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान) के कृष्ण कुमार ने पिछले करीब सवा सौ वर्षो के आंकड़ों का अध्ययन करके भारतीय मानसून पर असर डालने वाला एक कारक खोज निकाला है। यह कारक पूर्वी प्रशांत महासागर में स्थित है।यह तो जानी-मानी बात है कि एल नीनो नामक प्राकृतिक घटना के साथ जब प्रशांत महासागर गर्म होता है तो इसका असर भारत के मानसून पर पड़ता है। यह देखा गया है कि मानसून उन्हीं वर्षो में असफल रहा है जिन वर्षो मं एल नीनो होता है। मगर इसी से संबंधित तथ्य यह है कि हर एल नीनो वर्ष में मानसून असफल नहीं होता। एल नीनो और मानसून की इस कड़ी को बेहतर समझने के लिए कृष्ण कुमार और उनके सहयोगियों ने 1871 से सारे आंकड़ों की खाक छानी। इनमें भारत में वर्षा की मात्रा और भूमध्य रेखा के आसपास प्रशांत महासागर की सतह के तापमान के आंकड़े खात तौर से देखे।उन्होंने पाया कि जिन वषो्र में एल नीनो की वजह से मध्य प्रशांत सागर खूब तपा उन वर्षो में भारत में सूखे की स्थिति रही। दूसरी ओर जब तापमान में वृध्दि पूर्वी प्रशांत सागर तक सीमित रही, उन वर्षो में एल नीनो के बावजूद सामान्य वर्षा हुई। मानसून की भविष्यवाणी एक कठिन काम है। इसका एक कारण यह है कि मानसून कोई स्थानीय घटना नहीं है। इस पर तमाम दूर-दूर के कारकों का असर पड़ता है। दूसरा कारण यह है कि मानसून के मामले में कार्य-कारण संबंध स्थापित करना मुश्किल है। हम इतना ही देख पाते हैं कि कई चीजें होने से मानसून अच्छा या खराब रहता है मगर इसका मतलब यह नहीं है कि उनके कारण ऐसा होता है। इसलिए कृष्ण कुमार के दल द्वारा एक और कारक पहचाना जाना महत्वपूर्ण है। वैसे इस इल के एक सदस्य यू.एस. नेशनल ओशिएनिक एण्ड एट्मॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के मार्टिन होर्लिंग का कहना है कि उपरोक्त अन्तर्सम्बंध का कारण यह है कि जब मध्य प्रशांत सागर गर्म होता है तो उसके ऊपर की हवा गर्म होकर ऊपर उठती है। इसकी वजह से सूखी हवा का एक पिण्ड भारत के ऊपर उतर आता है और बारिश नहीं हो पाती। इन शोधकर्ताओं का मत है कि धरती गर्माने के साथ मानसून तेज होगा, जो कि पिछले कुछ वर्षो में दुर्बल पड़ता नजर आ रहा है।बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर। यह मुहावरा दर्शाता है कि पेड़ों की ऊंचाई हमेशा से अचंभे का विषय रहा है। यह सवाल बार-बार उठता है कि दुनिया का सबसे ऊंचा पेड़ कौन-सा है। और अभी हाल तक सबसे ऊंचा पेड़ होने का रिकार्ड उत्तरी कैलिफोर्निया के एक रेडवुड वृक्ष के नाम था जिसकी ऊंचाई 112.8 मीटर है। मगर फिर हम्बोल्ट स्टेट विश्वविद्यालय के एक दल ने कैलिफोर्निया रेडवुड नेशनल पार्क में रेडवुड का एक और पेड़ खोज निकाला जिसकी ऊंचाई 115.2 मीटर निकली। यानी इसने पुराने रिकार्ड को पूरे 2.4 मीटर से ध्वस्त कर दिया। सवाल यह उठता है कि क्या पेड़ों की ऊंचाई की कोई सीमा है।चीन के त्सिंगहुआ विश्वविद्यालय के क्वानशुई जेंग का मत है कि ऊंचाई की एक अधिकतम सीमा निश्चित तौर पर है। नेचर में प्रस्तुत अपने पर्चे में उन्होंने इसके कारण भी स्पष्ट किए हैं। जेंग ने बताया कि पेड़ों की अधिकतम ऊंचाई की सीमा का संबंध पानी और कोशिकाओं की स्थिति से है।यह तो सभी जानते है कि पत्तियों से पानी का वाष्पन होता रहता है। जब पानी भाप बनकर उड़ता है तो इसकी पूर्ति के लिए पानी की जरुरत होती हैं। जड़ें जमीन से पानी खींचती है, जिसे ठेठ ऊपर की पत्तियों तक पहुचाना होता है। इसका मतलब है कि ऊंचाई बढ़ने के साथ यह काम कठिन होता जाता हैं क्योंकि इतने पानी को गुरुत्व बल को विरुध्द ऊपर चढ़ाना होता है। जेंग के दल ने इसी प्रक्रिया का विश्लेषण पेड़ों की 22 प्रजातियों के संदर्भ में करके अधिकतम ऊंचाई की सीमा पहचानी ।होता यह है कि पत्ती पेड़ पर जिनती अधिक ऊंचाई पर होगी, उसकी मीजोफिल कोशिकाओं में ऋणात्मक दबाव उतना ही कम होता है। इसी ऋणात्मक दबाव के कारण पानी ऊपर चढ़ता है। यदि यह दबाव बहुत कम हो जए तो कोशिकाएं पिचक जाती हैं। यानी इस दबाव को कम करते जाने की एक हद है। इसी कारण से ऊपरी पत्तियों में मीजोफिल कोशिकाएं बहुत छोटी होती हैं। इससे छोटी वे हो नहीं सकतीं और यही पेड़ की ऊंचाई की सीमा है।वैसे जेंग ने पाया कि भूजल के स्तर, हवा में नमी की मात्रा, तापमान वगैरह का प्रभाव मीजोफिल कोशिकाओं के ऋणात्मक दबाव पर होता है। इसीलिए एक ही प्रजाति के वृक्ष अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग ऊंचाई तक पहुंचते हैं। कार, बस, ट्रक, ऑटो, स्कूटर, मोटरसाइकल, ठेलागाड़ी, बैलगाड़ी, साइकल और कभी-कभी हाथी सड़क पर और इन सबके बीच आदमी। सड़कों पर जमकर घुटन है और १ अरब १० करोड़ की आबादी वाले देश में हर वर्ग किलोमीटर में ३३६ लोग रहते हैं। क्षेत्रफल के लिहाज से देश में जनसंख्या धनत्व पाकिस्तान के मुकाबले दुगुना और बांग्लादेश के मुकाबले तिगुना है।आबादी तक तो ठीक है, लेकिन यातायात शहरों तक ही सीमित है। भारत में आधुनिकता का अर्थ है गाड़ियों की चमचमाती लाइटें और ड्रेनेज के गड्ढे। जितनी गाड़ियाँ है, उतनी ट्राफिक लाइटें नही हैं।गाड़ियों का शोर और उनके ध्वनियंत्र यानी हॉर्न का शोर तो ठीक है, लेकिन भारतीय सड़को पर चलने वाले १७ भाषाएँ और ८४४ बोलियाँ बोलते हैं।देश में होने वाली कार दुर्घटना की दर दुनिया में सबसे ज्यादा है। फिलहाल देश में दुनिया की १ प्रतिशत कारें हैं यानी करीब ४५ लाख कारें चल रही हैं। हर साल यहाँ सड़क दुर्धटना में १,००,००० लोग मारे जाते है। यह आँकड़ा पूरी दुनिया में होने वाली सड़क दुर्घटनाआें का १० प्रतिशत है। अमेरिका में दुनिया की ४० प्रतिशत कारें है, लेकिन दुर्घटनाआें में मरने वालेां की संख्या ४३,००० है।हालाँकि ये आँकड़ा नहीं है कि शहरों में कितने ऑटो रिक्शा और दोपहिया सड़क की छाती पर मँूग दलते हैं। मोटरसाइकल, स्कूटर और साइकलों के बारे में अनुमान है कि ये ५०० लाख से अधिक होंगी। बजाज ऑटो हर साल २० लाख दोपहिया और तिपहिया बनाता है।ऐसा लगता है कि देश में वाहन भी बड़ी बेतरतीबी से बाँटे गए हों, दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और बेंगलूर में देश की ५ फीसदी आबादी हैं, लेकिन इन शहरों में देश के १४ फीसदी वाहन हैं।एशिया में प्रदूषण तीन गुना तक बढ़ेगाएशिया विकास बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक अगले २५ वर्षो में एशिया में ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन तीन गुना बढ़ जाएगा।इस रिपोर्ट में परिवहन और जलवायु परिवर्तन के बीच संबंध होने का विस्तृत विवरण दिया गया है। रिपोर्ट के अनुसार ग्रीनहाऊस गैसो के बारे मे यह आकलने जितनी भयावह तस्वीर पेश करता है, वास्तविक स्थिति उससे भी गंभीर हो सकती है। एशिया में सड़क यातायात से संबंधित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्तमान में एशिया के लोगों के पास व्यक्तिगत वाहनों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। अगर है भी तो ज्यादातर लोगों के पास दुपहिया वाहन ही हैं।इन देशों में जिस तरह से लोगों की आय बढ़ रही है और शहरी आबादी भी फैल रही है, उससे वाहनों की संख्या भी बढ़ने की संभावना जताई गई है। रिपोर्ट के अनुसार चीन पहले ही विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और तीस सालों में वाहनो की संख्या आज के स्तर से १५ गुनी बढ़कर १९ करोड़ से भी अधिक हो जाने की संभावना है। भारत में भी इसी अवधि के दौरान वाहनों में समान रुप से बढ़ोत्तरी होने की संभावना है।गाड़ियों से कार्बन डाईऑक्साइड गैस के उत्सर्जन की मात्रा भी भारत में ३.४ गुना और चीन में ५.८ गुना बढ़ जाने की संभावना हैं। ब्रितानी विदेश मंत्री मारग्रेट बेकेट ने भारत से अनुरोध किया था कि वह जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों में सहयोग करे। उनका बयान ब्रिटिश सरकार की उस रिपोर्ट के पहले आया था, जिसमें ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के लिए धनी देशों से तुरंत कार्रवाई करने को कहा गया था।इस बीच इंडोनेशिया में हुए एक fसम्मेलन में कहा गया कि हालाँकि कुछ एशियाई सरकारों ने गाड़ियों के उत्सर्जन मानकों को कड़ा बनाया है। कई देशों ने सीसा वाले गैसोलीन का इस्तेमाल भी रोक दिया है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि एशिया में बढ़ रहा प्रदूषण प्रत्येक वर्ष ५ लाख ३७ हजार लोगों की अकाल मृत्यु का कारण बन सकता है। हृदय और साँस संबंधी रोगो में भी बढ़ोत्तरी हो सकती है।सब्जियों में मिले प्रतिबंधित कीटनाशकउ.प्र. में नोएडा और ग्रेटर नोएडा शहरों के ईद-गिर्द के खतों में ऐसे कीटनाशकों का इस्तेमाल हो रहा है जो पूरी दुनिया में अपनी जहरीली तासीर के कारण प्रतिबंधित है। यह खुलासा जल संवर्द्धन एवं पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र की एक स्वयंसेवी संस्था जनहित फाउंडेशन ने अपनी रिपोर्ट में किया है।संस्था ने देहरादून स्थित पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट (पीएसआई) की प्रयोगशाला में जिले की खेतिहर भूमि, पानी और सब्जियों की जाँच कराने के बाद यह निष्कर्ष निकाला है। साफ आबोहवा और ताजे खानपान की चाहत में दिल्ली से नोएडा, ग्रेटर नोएडा का रुख करने वाले यह जानकर दंग रह जाएँगे कि जो पानी वे पी रहे हैं और सब्जियाँ खा रहे हैं, वे इन कीटनाशकों की बदौलत जहरीली हो चुकी है।जनहित फाउंडेशन ने जाँच के लिए गाँव छलैरा, झूंडपुरा, बरोला फार्म, कुलेसरा, भगेल, सूरजपुर सब्जी मंडी से नमूने लिए। इनकी जाँच से यह पता लगा कि इनमें ऐसे कीटनाशकों के अंश समा चुके हैं जिन्हें स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में हुई अंतरराष्ट्रीय संधि के तहत प्रतिबंधित कर दिया गया था। ये कीटनाशक हैं - क्लोरडेन, डीडीटी, डाइएल्ड्रिन, एन्ड्रिन, हेक्लाक्लोर।रिपोर्ट में यह भी इशारा किया गया है कि सब्जियों में इन कीटनाशकों की इतनी मात्रा धुल चुकी है कि उन्हें खाने का मतलब सीधे तौर पर बीमारियों को दावत देना है। इन कीटनाशकों का पाया जाना यह भी साबित कर रहा है कि प्रतिबंध के बावजूद ये बाजार में उपलब्ध हैं। मूली, गोभी, प्यास, बैंगन, आलू भी इसकी चपेट में हैं। इनमें बीएचसी-एल्फा, बीटा, गामा व डेल्टा, हेप्लाक्लोर और एल्ड्रिन शामिल है।डॉक्टर सलाद खाने की सलाह देते हैं, लेकिन गौतम बुद्धनगर की हरी सब्जियाँ बीमारियाँ परोस रही हैं। इन सब्जियों के सेवन से हार्ट अटैक, ब्लड प्रेशर, दिमागी बुखार, लकवा, चर्म रोग व अन्य गंभीर बीमारियाँ लोगों को शिकंजे में ले रही है। समय रहते कीटनाशकों का प्रयोग न रोका गया तो जमीन के साथ-साथ सेहत पर भी बुरा असर पड़ते देर नहीं लगेगी।सरदार सरोवर बांध का कार्य पूर्णपिछले दिनों देश के सबसे विवादास्पद बाँध सरदार सरोवर की ऊँचाई १२१.९२ मीटर करने का कार्य पूर्ण हो गया है। पिछले दो दशक से ये परियोजना चल रही थी। इसका काम १९८७ से शुरु हुआ था।अधिकारियों के मुताबिक इससे चार राज्य के लोगों को पेयजल मुहैया कराया जा सकेगा। नर्मदा नदी पर बने इस बाँध से बिजली की जरुरत को बहुत हद तक पूरा किया जा सकेगा। १२२ मीटर ऊँचे और १२५० मीटर लंबे बाँध पर काम १९८७ में शुरु हुआ, लेकिन तमाम विरोध, विलंब और कानूनी बाधाआें में यह उलझा रहा।अदालत ने बाँध की ऊँचाई १२१.९२ मीटर करने की अनुमति दे दी थी, लेकिन कुछ आंदोलनकारियों ने इसे ११०.६४ मीटर से ज्यादा बढ़ाने पर खतरे का अंदेशा व्यक्त किया था। इनका कहना था कि इससे हजारों लोगों की जान को खतरा है।इसका शिलान्यास १९६१ में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने किया था। काम शुरु हो सका १९८७ से। इसके बाद नर्मदा बचाआें आंदोलन ने इसका विरोध शुरु किया। यह आंदोलन इस बाँध की वजह से चार राज्यों के हजारों लोगों के विस्थापन के खिलाफ आवाज उठा रहा था। इसके बाद अदालत के स्थगनादेश, भूख हड़ताल और वाद-विवाद का दौर चलता रहा।पिछले वर्ष ६माह पहले प्रधानमंत्री कार्यालय ने सुप्रीम कोर्ट को यह आश्वासन दिया कि इस बाँध की इतनी ऊँचाई पूरी होने से जो विस्थापित होंगे, उनको पुन: बसाया जाएगा। इसके बाद २७ अक्टूबर से दिन-रात एक करके इंजीनियर और श्रमिकों ने इसे इस ऊँचाई तक पहुँचाया।नर्मदा भारत की पाँचवी सबसे बड़ी नदी है। मध्यप्रदेश की जीवन रेखा कही जाने वाली यह नदी अमरकंटक नामक स्थान पर ९०० मीटर की ऊँचाई से निकलती हैऔर १३१२ किलोमीटर बहती है। नदी प्रारंभ में १०७७ किमी मध्यप्रदेश में बहती है। फिर ३५ किमी मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र की तथा ३५ किमी महाराष्ट्र व गुजरात की सीमा बनाती हुईबहती है। आखरी १६५ किमी का बहाव गुजरात में है। फिर भी गुजरात राज्य नर्मदा नदी का उपयोग करने में सबसे आगे रहा है। सरदार सरोवर बाँध का काम पूरा हो गया और नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण तथा नर्मदा बचाओ आंदोलन की कार्रवाई चलती रही। नर्मदा घाटी विकास की योजना पर विचार-विमर्श तो सन् १९४६ में ही शुरु हो गया था। नर्मदा में १६ स्थानों पर ३००० मेगावाट जलविद्युत ऊर्जा उत्पन्न करने तथा ६० लाख हैक्टेयर भूमि पर सिंचाई करने की क्षमता का आकलन किया गया था। गुजरात राज्य ने सरदार सरोवर बाँध की तथा मध्यप्रदेश ने इंदिरा सागर, आेंकारेश्वर, महेश्वर, मान, जोबट, बरगी, बरगी डायवर्शन, अवंति सागर, हालोन, अपर नर्मदा, बेटा अपर, लोअर गोई जैसी तीस योजनाआें की रुपरेखा को अंतिम रुप दिया। आश्चर्य यही है कि योजनाआें पर काम चल रहा है और पुनर्वास का काम ही पूरा नहीं हो पया हैइसके लिये गुजरात, महाराष्ट्र व मध्यप्रदेश की सरकारों को पहल करनी होगी ।बाँध का जल तो मध्यप्रदेश से ही बहकर जाता है और उस जल का प्रवाह मध्यप्रदेश के लिए भी मूल्यवान है। कोई उपयोग करे या न करे नर्मदा बहती रहेगी।