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शुक्रवार, 26 मार्च 2010

मरते हुए ग्रामोफोन को, कोई तो बचाओ !!!



सर्वविद्यित है कि संगीत के बिना पूरी सृष्टि ही शून्य है। संगीत से जीवन में उमंग, उत्साह, चेतना एवं जोश  का अद्भूत संचार होता है। आधुनिक युग में तो संगीत की दुनिया ही निराली है। आज संगीत बहुत बड़ा व्यवसाय बन चुका है। तकनीकी के मामले में आज संगीत अपने चरम पर है। संगीत का तकनीकी स्वरूप १९ वीं शताब्दी से शुरू हुआ था। इससे पूर्व संगीत का क्या स्वरूप था, यह सोचना ही रोमांच पैदा करता है।
दूनिया को संगीत की सौगात देने का श्रेय अमेरिकी टॉमस अल्वा एडीसन को जाता है, जिन्होने १८७७ में ग्रामोफोन का आविष्कार किया। उनके इस आविष्कार ने संगीत की दुनिया ही स्थापित कर दी। इसके बाद तो १८९० के दशक में अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैण्ड आदि देशों  में संगीत रिकार्ड़ करने वाली कंपनियां बाजारों में छा गईं।
इंग्लैण्ड की ग्रामोफोन कंपनी १८९८ से ही अंग्रेजी गानों के रिकार्ड़ भारत में भेजने लगी थी। इनकी अच्छी खासी माँग के चलते कंपनी ने १९०१ में भारत में ही कोलकाता में एक शाखा खोल ली। कंपनी में पहला रिकार्ड़ १९०२ में गौहर खान की आवाज में भरा। पहले जहां भारत मंे सिर्फ रिकार्डिंग ही होती थी और डविट जर्मनी से करवाई जाती थी, अब यह व्यवस्था भी भारत में ही कर दी गई। इस तरह पूरी तरह भारत में निर्मित पहला रिकार्ड++ २९ जून, १९०८ को कंपनी ने जारी किया।
अब तो ग्रामोफोन भारत में सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया था। घर-घर में रिकार्डर होता था, जो चाबी से चलता था। इसका वजन लगभग चार किलोग्राम के आसपास होता था। इस सामान्यत: दस इंच व्यास वाली ७८ आर.पी.एम. डिस्क चलती थी। इसकी एक तरफ ही गाना रिकार्ड़ किया होता था। कंपनी ने दोनों तरफ गानों के रिकार्ड़ों की शुरूआत १९०८ में की।
सन् १९२८ में ग्रामोफोन की दुनिया में इलैक्ट्रीक पद्धति आ गई और संगीत की दुनिया में नए युग का सूत्रपात हुआ। अब तकनीकी रूप में भी भारी सुधार हुआ। कंपनी ने देशभर में घूम-घूमकर शास्त्रीय गायकों से रिकार्ड़ करवाए। प्रारंभ में संभ्रांत परिवार की महिलाओं का गाना अच्छा नहीं माना जाता था। इसीलिए प्रारंभ के दो-तीन दशकों तक हिजड़ों और महफिलों की शान समझी जाने वाली औरतों के गायन ही रिकार्ड़ किए जाते थे। इस कड़ी में मलिका जान, कावेरी जान, चेतनबाई, अमीर जान, मुन्नी बाई, जोधाबाई, अंगूरबाला, जानकीबाई, इन्दुबाला, छप्पन छुरी जैसी लोकगायिकाओं के रिकार्ड़ बाजार में छाए रहे। इसके साथ ही उस्ताद झण्डे खां, उस्ताद भल्ले खां, उस्ताद अब्दुल कलीम खां, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर जैसे गायकों के रिकार्ड़ भी खूब लोकप्रिय हुए।
संगीत की बदलती दुनिया में कई कंपनियां बाजार में उतरीं, लेकिन नवीनता के अभाव में लंबे समय तक टिक नहीं पाईं। इस तरह सिर्फ ग्रामोफोन कंपनी ही शीर्ष पर रही। हिन्दुस्तान कंपनी के रिकार्ड़ की पहली डिस्क गुरू रविन्द्र नाथ टैगोर के स्वर में रिकार्ड़ की गई थी, जिसमें एक तरफ उनका गायन था तो दुसरी तरफ उनका काव्य पाठ। मैगाफोन के पहले रिकार्ड़ में प्रख्यात गायक व संगीतकार काजी जनरूली इस्लामी का स्वर था। एक अन्य कंपनी सेलोना ने अपना पहला रिकार्ड़ आधुनिक बांग्ला गायन का निकाला था।
हिन्दुस्तान कंपनी के संस्थापक एवं कर्णधार चण्डीचरण साहा संगीत की गहरी समझ रखते थे। उन्होने ही अमर गायक सहगल की प्रतिभा को पहचाना, तराशा  और संगीत की दुनिया को एक अनमोल तोहफा दिया। उन्होने सहगल की आवाज में असंख्य रिकार्ड़ बनाए। उन्होने ही उस्ताद फैयाज खां, उस्ताद बड़े गुलाम अली खां जैसी संगीत हस्तियों को तराशा  था। इनके बाद तो ग्रामोफोन डिस्कों पर लता, मोहम्मद रफी, मुकेश, नूरजहां आदि गायक-गायिकाओं के स्वर गूंजने लगे।
आधुनिक संगीत की दुनिया में ग्रामोफोन जैसी अनूठी धरोहर आज संरक्षण की मोहताज बन गई है। आधुनिक दौर में ग्रामोफोन बनने बंद हो गए हैं। सिर्फ पुराने ग्रामोफोन व डिस्क ही अचरज का विषय बनकर रह गई हैं। हालांकि आज भी संगीत की इस प्राचीन धरोहर ग्रामोफोन के दिवानों की कोई कमी नहीं है। इन दीवानों के चलते ही आज भी ग्रामोफोन अपनी जीवन्तता बनाए हुए हैं। यदि ग्रामोफोन के दीवानों की दिवानगी जिन्दा रही तो निश्चित  तौरपर संगीत की अनूठी धरोहर एवं संरक्षण का मोहताज ग्रामोफोन इक्कीशवीं सदी में भी संगीत की दुनिया में अपनी उपस्थिति का विशेष अहसास करवाता रहेगा. लेकिन इस दीवानगी के साथ साथ यह भी जरूरी है की मरते हुए ग्रामोफोन जैसी अनमोल संगीत धरोहर  को आखिर बचाया कैसे जाये...? यही सब सोचकर अनायास ही मेरे मुंह के द्वारा दिल से चीख निकल जाती है----- अरे ! कोई तो मरते हुए ग्रामोफोन को बचाओ----!!!!
(राजेश कश्यप)

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