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शनिवार, 3 अप्रैल 2010

पिछड़ों को पिछड़ा बनाये रखने की संकीर्ण मानसिकता क्यों?/राजेश कश्यप

 
एक अप्रेल  से देश की सातवीं जनगणना का महापर्व शुरू हो चुका है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस जनगणना के दौरान बड़े महत्वपूर्ण आंकड़े एकत्रित होंगे और जिनका प्रयोग अगामी दस वर्षों के दौरान लागू होने वाली योजनाओं के निर्माण में  किया जाएगा। इस बार जनगणना के दौरान कुछ नए कार्यक्रम जोड़े गए हैं, मसलन राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) तैयार करना, जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरों के मद्देनजर हर व्यक्ति की फोटो और उंगलियों के निशान लिए जाने हैं, ताकि नागरिकों का एक व्यापक बायोडाटा तैयार किया जा सके।

सरकार द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार इस जनगणना के दौरान २५ लाख कर्मचारी आगामी ११ माह तक २४ करोड़ घरों तक जाएंगे और कई तरह के आँकड़े एकत्रित करेंगे। इसके साथ ही दलितों, आदिवासियों के अलावा धर्म के आधार पर भी डाटा तैयार करेंगे। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण एवं हैरानी पैदा करने वाली बात यह है कि इस जनगणना के दौरान ओबीसी अर्थात् अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों का अलग से कोई डाटा तैयार नहीं किया जाएगा। सरकार ने ओबीसी जनगणना करने से साफ मना करते हुए दलील दी है कि दलित व आदिवासी के मामले में सत्यापन आसान है, लेकिन ओबीसी जातियों का सत्यापन आसान नहीं है। सरकार ने दोगलापन दिखाते हुए यहाँ तक कहा है कि आजाद भारत का सपना जातिविहिन समाज बनाने का था, इसलिए भी ओबीसी की गणना नहीं होगी।

कहना न होगा कि सरकार द्वारा ओबीसी की जनगणना न करने के पीछे जो दलील, तर्क अथवा बहाना पेश किया गया है, वह न केवल बेहुदा, बचकाना और दोहरी मानसिकता वाला है, बल्कि ओबीसी जाति के लोगों के साथ एक भारी छलावा भी है। क्या सरकार यह स्पष्ट करेगी कि जनगणना में ओबीसी की अलग से जनगणना न करने से यह देश जातिविहिन हो जाएगा? यदि ‘हाँ’ तो क्या इसका मतलब क्या देश में केवल ओबीसी जातियाँ ही ‘जातिपाति’ का पर्याय हैं? यदि ‘नहीं’ तो फिर सरकार ने जनगणना के माध्यम से ओबीसी की स्थिति स्पष्ट न होने देने की अपनी संकीर्ण मानसिकता का परिचय क्यों दिया?

कितनी बड़ी विडम्बना का विषय है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को यह भी नहीं पता है कि उसके यहाँ ओबीसी की वास्तविक स्थिति है क्या? सरकार सिर्फ कयासों, अनुमानों और सैम्पल सर्वे रिपोर्टों के आधार पर ही ओबीसी के उत्थान के लिए प्रतिवर्ष करोड़ों-अरबों रूपयों का बजट खर्च करने के दावे करके स्वयं को ओबीसी हितैषी सिद्ध करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती है। शिक्षण संस्थानों एवं नौकरियों में भी ओबीसी को अलग से आरक्षण देने की व्यवस्था की गई है तो वहाँ सरकार ओबीसी का सत्यापन कैसे कर लेती है? सबसे बड़ा सवाल यही है कि जब सरकार द्वारा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़े वर्ग की जातियों की बाकायदा सूची जारी की गई है तो फिर उनके सत्यापन का सवाल कहाँ से पैदा हो गया। यदि अकेले आन्ध्र प्रदेश  में मुसलमानों को ओबीसी में शामिल करने का मुद्दा संकीर्ण राजनीति का शिकार हो गया है तो इसका मतलब शेष सभी राज्यों को भी इसी मुद्दे का हिस्सा बना दिया जाए? सहसा एक बार तो गहरा सन्देह पैदा होता है कि कहीं पिछड़ों को पिछड़ा बनाये रखने की संकीर्ण मानसिकता के चलते ही तो आन्ध्र प्रदेश का ओबीसी मुद्दा तो नहीं उछाला गया है?

यदि वास्तविकता देखी जाए तो ओबीसी जातियों का उत्थान आरक्षण के ढ़कोसले के बावजूद नहीं हो पा रहा है। क्योंकि जब हमें यह ही नहीं पता होगा कि हमारा लक्ष्य क्या है और उस लक्ष्य को भेदने के लिए कैसे प्रयासों की जरूरत होगी तो भला कोई लक्ष्य हासिल कैसे किया जा सकता है? जब ओबीसी की वास्तविक स्थिति का ही नहीं पता है तो ओबीसी उत्थान योजनाएं क्या खाक रंग दिखाएंगी? इसके बाद सबसे बड़ा सवाल यह कि ओबीसी को अनुमानित आँकड़ों की बाजीगरी में उलझाकर क्यों रखा जा रहा है? मण्डल कमीशन कहता है कि ओबीसी की आबादी ५२ फीसदी है, नेशनल सैम्पल सर्वे ३५ फीसदी का दावा करता है तो ग्रामीण विकास मंत्रालय ३८.५ फीसदी ओबीसी आबादी होने की लकीर पीट रहा है। आखिर सही किसको माना जाए?

यहाँ ओबीसी की जनगणना की वकालत महज आरक्षण के मुद्दे को लेकर नहीं की जा रही है। यहाँ मुख्य मुद्दा है भेदभाव बरतने का। जब जनगणना में सभी धर्मों की जनगणना हो रही है, सभी आदिवासियों के तथ्य इक्कठे किए जा रहे हैं और सभी दलितों की स्थिति जानी जा रही है तो पिछड़ों ने ऐसा क्या गुनाह कर दिया कि उसे सरेआम नजरअन्दाज कर दिया जाये? कहीं इस संकीर्ण मानसिकता के पीछे यह सोच तो नहीं है कि यदि ओबीसी को उसकी वास्तविक स्थिति का पता चल गया तो वर्तमान राजनीति में भूचाल आ जाएगा और सरकार के सभी समीकरण धराशायी हो जाएंगे या फिर ओबीसी वर्ग एक नए सिरे से अपने प्रति अव्यवस्थाओं व भेदभावों के विरूद्ध लामबन्द हो जाएगा? चाहे कुछ भी हो, इस तरह के सवाल पैदा होने स्वभाविक ही हैं।

यदि सरकार ओबीसी के मामले में निर्लेप एवं निष्पक्ष भूमिका में है तो उसे चाहिए कि ओबीसी सत्यापन में जो भी रूकावटें हैं, उन्हें शीघ्रातिशीघ्र दूर करवाए और देश की की एक बहुत बड़ी आबादी को यह स्पष्ट विश्वास दिलाए कि भविष्य में शीघ्र ही ओबीसी की वास्तविक स्थिति का पता लगाया जाएगा और वास्तविक आँकड़ों के आधार पर ही ओबीसी कल्याण के लिए योजनाओं का निर्माण एवं निष्पादन किया जाएगा। यदि सरकार ऐसा नहीं करती है तो निश्चित तौरपर ओबीसी वर्ग में यह शंका और भी प्रबल हो जाएगी कि सरकार भी पिछड़ों को पिछड़ा बनाये रखने की संकीर्ण मानसिकता पाले हुए है।



(राजेश कश्यप)

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