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रविवार, 29 जनवरी 2012

1 फरवरी/ पुण्यतिथि पर विशेष 

ग्रामीण भारत की बुलन्द आवाज थे चौधरी रणबीर सिंह
-राजेश कश्यप
 

आजकल देश में जनप्रतिनिधियों के प्रति जनता में बढ़ता अविश्वास, जातिपाति-धर्म-मजहब की संकीर्ण राजनीति, राज्यों के विभाजन, जमीन अधिग्रहण पर बवाल, आरक्षण की संकीर्ण सियासत, ऑनर किलिंग, किसानों की आत्महत्या, फसलों का उचित मुआवजा न मिलना आदि असंख्य समस्याएं विकट चुनौती बनी खड़ी हैं और उनका समाधान दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है। देश के बहुत बड़े चिन्तक, विशेषज्ञ, अर्थशास्त्री एवं नीति-निर्माता इन समस्याओं के समाधान के लिए माथापच्ची कर रहे हैं, लेकिन परिणाम शून्य है। लेकिन, देश में एक ऐसे दूरदृष्टा इंसान भी थे, जिन्होंने देश को स्वतंत्रता प्राप्ति की भोर में ही इन सभी चिन्ताओं एवं चुनौतियों से अवगत करवा दिया था। वह अनूठी एवं अद्भूत शख्सियत थे संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य,
गांधीवादी नेता, प्रखर वक्ता और आर्यसमाजी विचारों से युक्त स्वर्गीय चौधरी रणबीर सिंह।

चौधरी रणबीर सिंह का जन्म 26 नवम्बर, 1914 को रोहतक (हरियाणा) के सांघी गाँव में महान् आर्यसमाजी एवं देशभक्त चौधरी मातूराम के घर, सुघड़ एवं सुशील गृहणी श्रीमती मामकौर की कोख से तीसरी संतान के रूप में हुआ था। वर्ष 1937 में दिल्ली के रामजस कॉलेज से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने गांधी जी से प्रभावित होकर स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़ने का फैसला किया। एक सच्चे स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान कुल साढ़े तीन वर्ष की कठोर कैद और दो वर्ष की नजरबन्दी की सजा झेली।
 
राष्ट्र के प्रति अटूट, अनुपम, अनूठी, अनुकरणीय सेवाओं, त्याग एवं बलिदानों को देखते हुए चौधरी रणबीर सिंह को 10 जुलाई, 1947 को संयुक्त पंजाब (हरियाणा सहित) भारत की संविधान सभा के सदस्य के तौरपर चुना गया और 14 जुलाई को उन्होंने शपथ ग्रहण की। संविधान सभा में उन्होंने देहात (गाँवों) में रहने वाले लोगों के पैरवीकार की पहचान बनाई और समग्र ग्रामीण भारत की आवाज बने। उन्होंने 6 नवम्बर, 1948 को अपने पहले ही भाषण में स्पष्ट कर दिया था, कि ‘‘मैं एक देहाती हूँ, किसान के घर पला हूँ और परवरिश पाया हूँ। कुदरती तौरपर उसका संस्कार मेरे ऊपर है। उसका मोह और उसकी सारी समस्याएं आज मेरे दिमाग में हैं।’’
 
चौधरी रणबीर सिंह ने संविधान निर्माण के दौरान अनेक ऐतिहासिक मसौदे पेश किए। उन्होंने बड़े-बड़े धुरन्धर नेताओं के बीच बड़ी निडरता के साथ बेबाक व दो टूक विचार रखे। चौधरी साहब की ग्रामीण समाज से जुड़े मुद्दों पर अनूठी दूरदर्शिता बड़ी लाजवाब रही। वे एकमात्र ऐसे नेता थे, जो लोकतंत्र के इतिहास में सर्वाधिक सात अलग-अलग सदनों वे संविधान सभा, विधायी (1947-50), अस्थाई लोकसभा (1950-52 ) पहली लोकसभा (1952-57), दूसरी लोकसभा (1957-62), संयुक्त पंजाब विधानसभा (1962-66), हरियाणा विधानसभा (1966-67 व 1968-72) और राज्य सभा (1972-78) सदस्य रहे। के सदस्य के रूप में चुने गए। वे जिस भी पद पर रहे, उन्होंने हमेशा गरीबों, किसानों, मजदूरों, दलितों, पिछड़ों, असहायों, पीड़ितों आदि के कल्याण पर जोर दिया। उन्होने ‘गाँवों में खुशहाली और किसानों के चेहरे पर लाली’ लाने के लिए अनेक प्रयत्न किए।

चौधरी रणबीर सिंह ने स्वतंत्रता की भोर में सुनहरे भारत के निर्माण के लिए गठित संविधान सभा के सदस्य के तौरपर ठोस तर्कों के साथ देहात से जुड़े मुद्दों पर बहस की और दूरगामी नीतियों के निर्माण पर जोर दिया। उन्होंने सदन में जो चिन्ताएं जाहिर कीं, वे आज आजादी के साढ़े छह दशक बाद देश के समक्ष विकट चुनौतियों के रूप में सत्तारूढ़ सरकार का सिरदर्द बनकर खड़ी हैं। यदि उस समय चौधरी रणबीर सिंह द्वारा दिए गए सुझावों पर गंभीरता से गौर कर लिया जाता तो संभवतः हर समस्या का हल हो चुका होता। भ्रष्टाचार व काले धन के विरूद्ध गतवर्ष अन्ना व बाबा रामदेव द्वारा चलाए गए राष्ट्रव्यापी आन्दोलनों के दौरान देश के लोगों ने जनप्रतिनिधियों के प्रति अत्यन्त रोष प्रकट किया। चुनावों के दौरान ‘अस्वीकृत’ व ‘वापस बुलाने’ जैसे अधिकार के लिए कानून बनवाने की मांग करके उनकीं योग्यता व निष्ठा पर भी सवालिया निशान लगाए। एक आदर्श जनप्रतिनिधि में कौन-कौन से गुण होने चाहिएं, यह सवाल अंतरिम संसद में 4 अपै्रल व 23 नवम्बर, 1950 को भी उठ चुका है। इस सन्दर्भ में चौधरी रणबीर सिंह ने जो विचार व्यक्त किए, वो आज की जनता के विचारों पर एकदम खरे उतरते हैं। 

तब चौधरी साहब ने सुझाव दिए थे कि ‘‘सांसद अथवा विधायक बनने के लिए आवष्यक योग्यता देश की सेवा होनी चाहिए। सदन का सदस्य होने से पहले देश और उन लोगों की सेवा करनी चाहिए, जिसका प्रतिनिधित्व वह करना चाहता है। संसद को ऐसे आदमी की आवश्यकता है, जो प्रशासनिक क्षमता रखता हो, बुद्धि रखता हो, मामले को जल्द समझ सकता हो और अभिव्यक्ति की काबलियत रखता हो। यदि सांसद अथवा विधायक की योग्यता यह रख दी जाए कि जो कोई कम से कम पाँच, सात या दस एकड़ नई जमीन को आबाद न करे और काश्त में न लाए तो वह सदन का सदस्य नहीं बन सकता तो इससे देश का भी बहुत भला होगा।’’ यदि उनके इस सुझाव पर गौर कर लिया जाता तो निःसन्देह आज भ्रष्ट, दागी और परिवारवादी नेताओं की बजाय, श्रेष्ठ, योग्य एवं सही जनप्रतिनिधि संसद व विधानसभाओं की शोभा बने हुए
होते। 

चौधरी रणबीर सिंह ने संसद में विभिन्न अवसरों पर वर्गविहिन समाज के निर्माण पर बल दिया। 6 नवम्बर, 1948 को उन्होंने भारतीय विधान-परिषद की बैठक में वाद-विवाद के दौरान स्पष्ट तौरपर कहा कि, ‘‘हम देश के अन्दर वर्गविहिन समाज बनाना चाहते हैं। यदि किसी को संरक्षण (आरक्षण) देना है तो उन्हीं आदमियों को देना है, जोकि किसान हैं, मजदूर हैं और पिछड़े हुए हैं।’’ 

देशभर में किसान कर्ज के नीचे दबकर निरन्तर आत्महत्याएं कर रहे हैं। बाजार में उन्हें फसलों का उचित मुआवजा तक नहीं मिल रहा है। उन्हें अपनी फसल कोड़ियों के भाव बेचनी पड़ रही है। कई जगह किसान अपनी फसल को सडकों पर डालने के लिए विवश हुए हैं। दूरदृष्टा चौधरी रणबीर सिंह ने 23 नवम्बर, 1948 को भारतीय विधान परिषद में इसी मुद्दे पर चेताया था कि, ‘‘जब तक हम उपज की कोई इकोनोमिक प्राइस मुकर्रर नहीं करेंगे, तब तक किसान के साथ बड़ा भारी अन्याय होता रहेगा। एग्रीकल्चर की चीजों की इकानामिक प्राइस मुकर्रर किये बिना किसान के आर्थिक जीवन में स्थायित्व नहीं आ सकता और उसको स्थायित्व देना बेहद जरूरी है।’’ इससे पूर्व 6 नवम्बर को इसी परिषद में किसानों पर टैक्स मसले पर बहुत बड़ा सवाल खड़ा किया था कि, ‘‘किसानों के साथ यह बहुत बड़ा अन्याय है और ऐसे देश में जिसके अन्दर किसानों का प्रभुत्व है और जो देश किसानों का ही है, उसके अन्दर उनके साथ यह अन्याय जारी रहेगा तो यह कैसा मालूम देगा?’’ 

चौधरी रणबीर सिंह ने बाजार में किसानों की फसल को उचित दाम न मिलने के मुद्दे को 2 अगस्त, 1950 में संविधान सभा में बड़ी प्रखरता के साथ इन शब्दों में उठाया था, ‘‘किसान गेहूं मण्डी में ले जाते हैं, लेकिन, उसे खरीदने वाला कोई नहीं है और वे इसे अपने घरों में वापस ले जाते हैं या कम कीमत पर व्यपारियों को बेचने को विवश होते हैं। केन्द्र सरकार हो या प्रान्तीय सरकार, मार्केट को कन्ट्रोल करने में सफल नहीं हुई हैं व व्यापारियों पर अपना दबाव नहीं बना पाई हैं। मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि एकमुश्त नीति अपनाई जाए।’’ उन्होंने 24 फरवरी, 1948 की बहस में साफ तौरपर कहा कि, ‘‘व्यापारी कुछ भी मेहनत नहीं करता, वह सारा मुनाफा ले जाता है और इसी वजह से ब्लैक मार्केट बढ़ता है।’’ 

चौधरी साहब कालाबाजारी को देश के लिए कलंक मानते थे। उन्होंने 15 फरवरी, 1951 को अंतरिम संसद सबको चेताया था कि, ‘‘जितना हमारे देश को कालाबाजारी करने वालों से खतरा है, उतना शायद दूसरे किसी आदमी से नहीं है। जहां तक कालाबाजारी करने वालों के खिलाफ आम कानून इस्तेमाल करने का सवाले है, अदालत में वकील लोग अधिकतर अपराधियों को बेकसूर साबित करन में कामयाब हो जाते हैं और वे रिहा हो जाते हैं। ऐसे में उन्हें कोई दण्ड नहीं मिल पाता। मैं समझताह हूँ कि मौजूदा कानून कालाबाजारी को रोकने में नाकाफी है।’’ 

16 मार्च, 1948 की संसदीय बहस में चौधरी साहब ने स्पष्ट चेताया कि, ‘‘हमारा देश देहाती और किसानों का देश है। अगर, देहातियों और किसानों की आर्थिक हालत खराब होती है तो तमाम हिन्दुस्तान की आर्थिक स्थिति खराब समझनी चाहिए।’’ उन्होंने 24 नवम्बर, 1949 को भारतीय संविधान सभा में बहस करते हुए कहा कि, ‘‘किसानों को आर्थिक आजादी तभी मिल सकती थी, जब ऐसा कायदा बनाया जाता कि जिस चीज को वह पैदा करते हैं, उसे उसकी लागत से कम कीमत पर बेचने के लिए विवश न किया जा सकता होता।’’ चौधरी रणबीर सिंह ने हमेशा देहात के विकास को प्राथमिकता देने की पैरवी की। 6 नवम्बर, 1948 को उन्होंने भारतीय विधान-परिषद की बैठक में वाद-विवाद के दौरान स्पष्ट तौरपर कहा, ‘‘इस देश के निर्माण में जितना बड़ा योगदान देहातियों का है, उतना हक उन्हें मिलना चाहिए और हर चीज में देहात का प्र्रभुत्व होना चाहिए।’’ 

इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए उन्होंने 22  अगस्त, 1949 की बहस में देहात के विद्यार्थियों के लिए लोक सेवा आयोग की परीक्षा में आरक्षण की जोरदार वकालत की। उन्होंने कहा कि, ‘‘जब लोक सेवा आयोग द्वारा कोई प्रतियोगिता आयोजित की जाती है, तब एक ही प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं और निर्णय करने की कसौटी वही होती है। हमारा देश गांवों का देश है और ग्रामीण जनता अधिक है। लेकिन, तथ्यों के आधार पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि शहर के लोगों का विकास अपेक्षाकृत तीव्र गति से हुआ है और वे ग्रामीण जनता की अपेक्षा बहुत अधिक उन्नत हैं और इन परिस्थितियों में यदि ग्रामीण क्षेत्र के किसी व्यक्ति का शहरी क्षेत्र के व्यक्ति के साथ मुकाबला करवाया जाता है और उनसे एक ही प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं तो इस बात में संदेह नहीं कि ग्रामीण व्यक्ति, शहरी व्यक्ति के साथ सफलतापूर्वक अथवा समानता के आधार पर मुकाबला नहीं कर सकेगा।’’

इस समस्या के सरल समाधान भी चौधरी साहब ने सुझाए। उन्होंने कहा कि, ‘‘इस स्थिति के समाधान के दो तरीके हैं। एक यह है कि ग्रामवासी उम्मीदवारों के लिए सरकारी सेवाओं में कुछ अनुपात आरक्षित कर दिया जाए और सेवाओं में उन्हें आरक्षित संख्या के पद आबंटित किये जाएं। उन पदों के लिए केवल ग्रामीण जनता के उम्मीदवारों को ही मुकाबला करने के लिए केवल ग्रामीण जनता के उम्मीदवारों को ही मुकाबला करने की अनुमति दी जाए। दूसरा तरीका यह है कि लोक सेवा आयोग के सदस्यों को नियुक्त करते समय इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखा जाए कि उनमें 60-70 प्रतिशत सदस्य ऐसे होने चाहिएं, जो ग्रामवासियों की कठिनाईयों को समझते हों और उनके साथ सहानुभूति रखें।’’ 

आजकल उत्तरांचल, बुन्देलखण्ड, तेलंगाना आदि नए राज्यों के निर्माण के लिए कई तरह की सियासती चालें देश में चल रही हैं। इस मुद्दे पर चौधरी रणबीर सिंह सबसे हटकर विचार रखते थे। 1 अगस्त, 1949 को भारतीय संविधान सभा में उन्होंने एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पर विचार व्यक्त करते हुए कहा कि, ‘‘छोटे-छोटे टुकड़ों को अलहदा सूबों की शक्ल में रखना देश के हित में नहीं है। अगर हम इन्हें अलहदा रखेंगे तो हमें इतना ही भारी प्रशासनिक ढ़ाचा खड़ा करने के लिए भी मजबूर होना पड़ेगा।’’ हालांकि उन्होंने 2 अगस्त, 1949 की बहस में यह स्वीकार किया था कि, ‘‘उत्तर प्रदेश बहुत बड़ा प्रान्त है और इतने बड़े प्रान्त का राज्य आसानी से नहीं चल सकेगा। इसलिए एक न एक दिन उनको उसके दो हिस्से करने ही होंगे।’’ उनकी यह भविष्यवाणी पूर्णतः सही साबित हुई हो चुकी है और उत्तर प्रदेश का दूसरा हिस्सा उत्तराखण्ड बन चुका है। 
 
गाँव में स्वास्थ्य सुविधाओं पर भी चौधरी साहब ने जो स्थिति बयां की वह आज भी जस की तस नजर आती है। उन्होंने 10 मार्च, 1948 को संविधान सभा में इस मुद्दे पर बोलते हुए कहा था कि, ‘‘देहातों के अन्दर हजारों ऐसे आदमी हैं, जो अपने आपको वैद्य कहते हैं और देहातियों की जिन्दगियों से खेलते हैं। हर कोई आदमी किसी वैद्य के पास जाता है और एक दिन में ही देहात के लोगों के लिए वैद्य बनकर बैठ जाता है। एलोपैथ डाक्टरों की तर्ज पर उन वैद्दों रजिस्टर्ड किया जाना चाहिए और आपसे सर्टिफाइड वैद्दों को ही चिकित्सा की इजाजत मिले।’’ 

इन दिनों जमीन अधिग्रहहण के मसले पर देशभर में बवाल मच रहा है। इस मुद्दे पर किसान व सरकार के बीच सीधा टकराव सामने आ चुका है। जमीन अधिग्रहण से विस्थापित होने वाले लोग अपने दर्द को बयां करने के लिए धरनों, प्रदर्शनों और रैलियों का सहारा ले रहे हैं, लेकिन, उनके दर्द को कोई सुनने वाला नहीं है। जमीन अधिग्रहण के कारण विस्थापित होने वाले लोगों के प्रति चौधरी रणबीर सिंह के हृदय में अत्यन्त सहानुभूति थी। इस मसले पर उन्हांेन 6 सितम्बर, 1948 को संविधान सभा (विधायी) में विस्थापितों की पैरवी करते हुए दो टूक शब्दों में कहा था, ‘‘जहां पर आज हम बैठे हैं, यहां कुछ लोग आबाद थे। 25-30 साल पहले उनकीं जमीनें ले ली गईं थीं और उन्हें बेघर कर दिया गया था। उनमें से आज भी बहुत सारे बेघर हैं। मैं एक किसान और खेती करने वाला होने के नाते इस बात को अच्छी तरह समझता हूँ कि जमीन का मुआवजा क्या होता है? आप उसको मुआवजा दीजियेगा, मगर उसका जो पेशा है, वह इन रूपयों से पूरा नहीं होगा। अगर आप उसको दूसरा पेशा नहीं देते हैं तो आप उसे जमीन के बदले जमीन दें। बिल के अन्दर जो पैसे की शर्त है, उसको छोड़ दिया जाए और उसकी जगह यह रख दिया जाए कि उसको जमीन के बदले में उसी कीमत के बराबर की जमीन दी जाएगी।’’ चौधरी रणबीर सिंह ने जमीन अधिग्रहण से संबंधित मुद्दे पर अपनी बेबाक राय प्रस्तुत करते हुए सुझाव दिए थे कि, ‘‘जहां तक हो सके कृषि भूमि को छोड़ दें, क्योंकि, वहां काफी अन्न पैदा होता है। उसके बदले, जहां तक हो सके परती भूमि में से जमीन लें और उपजाऊ जमीन को छोड़ दें। परती जमीन पर जो सरकारी चीज बनाना हो वहां बनायें। अगर, किसी जरूरत के लिए वह समझें कि वे उस उपजाऊ कृषि भूमि को नहीं छोड़ सकते, तभी वे ऐसी जमीन पर अपना हाथ रखें या डालें, अन्यथा नहीं। लेकिन, उसके साथ-साथ, जैसाकि अधिग्रहण कानून में दर्ज है, बहुत मामूली सा मुआवजा देकर काश्तकार से अपना पल्ला छुटाना कोई अच्छी नीति नहीं है।’’ यदि चौधरी साहब के इन सुझावों पर गंभीरता से गौर किया जाए तो जमीन अधिग्रहण के विवादों को सहज हल किया जा सकता है।
 
आजकल सगोत्र विवाह और ऑनर किलिंग का मुद्दा राष्ट्रीय स्तर पर चिंता एवं चुनौती का विषय बना हुआ है। देहात के लोग इस मुद्दे के हल के लिए ‘हिन्दु विवाह अधिनियम’ में संशोधन करने का अभियान चलाए हुए हैं और दूसरी तरफ सरकार इस रूख पर उदासीन नजर आ रही है। ‘हिन्दू विवाह वैधता अधिनियम’ के प्रस्ताव पर 11 फरवरी, 1949 को बहस करते हुए चौधरी रणबीर सिंह ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि, ‘‘यह हिन्दू कोड बिल देश के अन्दर कुछ सुधार करने के लिये या सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिये, उनमें तबदीली करने के लिये, लाया जाता रहा है। आज जिस तरीके से जिस बैक डोर से यह बढ़ा है, वह कोई बहुत अच्छा ढ़ंग नहीं है। हमारा समाज इतनी उन्नति नहीं कर पाया है कि हम मान जायें कि यह सगोत्र विवाह ठीक है। इसको आप दस साल के लिये अपनी किताब में जमा रखें। दस साल बाद उस पर फिर गौर कर लिया जाएगा। अगर ठीक होगा तो मान लेंगे और अगर उस समय तक समाज की उतनी तरक्की नहीं हुई तो वह कायदा किताब में ही रहेगा।’’
 
कुल मिलाकर चौधरी रणबीर सिंह ग्रामीण भारत की बुलन्द आवाज थे और देहातियों के जबरदस्त पैरवीकार थे। वे धरती से जुड़े आदमी थे और दिखावे की बजाय यथार्थ में यकीन रखते थे। उनकी दूरदर्शिता बड़ी लाजवाब थी। उन्होंने जो भी सुझाव, विचार अथवा चेतावनी दी, वो दूरगामी सिद्ध हुए और सच साबित हुए। यदि उनके दिखाए मार्ग पर आज भी चलने का प्रयास किया जाए तो निसन्देह बेहद प्रभावी और सकारात्मक परिणाम हासिल होंगे। राष्ट्र के प्रति उनकी अनमोल देनों को देखते हुए कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरूक्षेत्र ने उन्हें वर्ष 2007 में डी.लिट की उपाधि से विभूषित किया। 1 फरवरी, 2009 को ये ग्रामीण भारत के प्रखर प्रहरी अपनी सांसारिक यात्रा पूरी करके हमेशा के लिए परमपिता परमात्मा के पावन चरणों में जा विराजे। पूरा देश उनके सिद्धान्तों, अनूठे कार्यों, महत्वपूर्ण देनों और दूरदर्षी विचारों का कायल रहा और हमेशा रहेगा। उन्हें कोटि-कोटि नमन है।
(नोट: लेखक महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक में स्थापित 'चौधरी रणबीर सिंह शोध पीठ' में शोध-सहायक हैं।)

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

चुनौतियों के चक्रव्यूह में गणतंत्र !

 26 जनवरी / गणतंत्र दिवस विशेष 
चुनौतियों के चक्रव्यूह में गणतंत्र !
-राजेश कश्यप

    छह दशक पार कर चुके गौरवमयी गणतंत्र के समक्ष यत्र-तत्र-सर्वत्र समस्यांए एवं विडम्बनाएं मुंह बाए खड़ी नजर आ रही हैं। देशभक्तों ने जंग-ए-आजादी में अपनी शहादत एवं कुर्बानियां एक ऐसे भारत के निर्माण के लिए दीं, जिसमें गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, बेकारी, शोषण, भेदभाव, अत्याचार आदि समस्याओं का नामोनिशान भी न हो और राम राज्य की सहज प्रतिस्थापना हो। यदि हम निष्पक्ष रूप से समीक्षा करें तो स्थिति देशभक्तों के सपनों के प्रतिकूल प्रतीत होती है। आज देश में एक से बढ़कर एक समस्या, विडम्बना और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति को सहज देखा जा सकता है।
    देश में भ्रष्टाचार न केवल चरम पर पहुंच चुका है, बल्कि यह एक नासूर का रूप धारण कर चुका है। इस समय भी देश आदर्श सोसायटी, राष्ट्रडल खेल और टू-जी स्पेक्ट्रम आदि घोटालों के दंश से तिलमिला रहा है। देश स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर आज तक जीप घोटाला, हर्षद मेहता काण्ड, हवाला काण्ड, हर्षद मेहता काण्ड, झामूमो रिश्वत काण्ड, दूरसंचार घोटाला, चारा घोटाला, यूरिया घोटाला, सत्यम घोटाला, तहलका काण्ड आदि सेकड़ों घोटालों  के दंश का शिकार हो चुका है। कई लाख करोड़ रूपये घोटालों की भेंट चढ़ चुके हैं। इसके अलावा देश व विदेश में कई हजार करोड़ रूपये कालेधन के रूप में जमा हैं। लेकिन, भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों पर कोई अंकुश नहीं लग पा रहा है।
    भ्रष्टतंत्र के समक्ष लोकतंत्र दम तोड़ता नजर आ रहा है। भ्रष्टाचारियों को नकेल डालने के लिए सशक्त जन लोकपाल बिल लाने और विदेशों में जमा काले धन को लाकर राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने के लिए क्रमशः वयोवृद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे और योग गुरू बाबा रामदेव ने गतवर्ष राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलाए। लेकिन, वे सत्तारूढ़ सरकार के चक्रव्युह और राजनीतिकों के कुचक्रों की भेंट चढ़ गए। अन्ना के आन्दोलन को जहां ‘आजादी की दूसरी जंग’ कहा गया तो दिल्ली के रामलीला मैदान में बाबा रामदेव के आन्दोलन के दमन को ‘जलियांवाला बाग काण्ड’ के पुर्नावलोकन की संज्ञा दी गई। ये दोनों ही संज्ञाएं छह दशक पार कर चुके गणतंत्र के लिए विडम्बना ही कही जाएंगीं।
    देश के समक्ष आतंकवादी घटनाएं बड़ी चिंता एवं चुनौती का विषय बनी हुई हैं। पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आंतकवाद पर भी अंकुश नहीं लग पा रहा है। दिल्ली, जोधपुर, जयपुर, मालेगाँव आदि आतंकवादी हमलों के बाद भी आतंकवाद के प्रति सरकार का रवैया ढूलमूल रहा, जिसका खामियाजा पूरे देश ने मुम्बई आतंकवादी हमले के रूप में भुगतना पड़ा। सबसे बड़ी विडम्बना का विषय यह है कि मुम्बई आतंकवादी हमले के दोषी कसाब को आज तक फांसी नहीं हो पाई है। संसद हमले के आरोपी अफजल गुरू की फांसी का मामला भी ठण्डे बस्ते में पड़ा हुआ है। देश आतंकवादी के खौफ से उबर नहीं पा रहा है, यह गौरवमयी गणतंत्र के लिए बेहद शर्मिन्दगी का विषय है।
देश का अन्नदाता किसान कर्ज के असहनीय बोझ के चलते आत्महत्या करने को विवश है। नैशनल क्राइम रेकार्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में प्रतिदिन 46 किसान आत्महत्या करते हैं। रिपोर्टों के अनुसार वर्ष 1997 में 13,622, वर्ष 1998 में 16,015, वर्ष 1999 में 16,082, वर्ष 2000 में 16,603, वर्ष 2001 में 16,415, वर्ष 2002 में 17,971, वर्ष 2003 में 17,164, वर्ष 2004 में 18241, वर्ष 2005 में 17,131, वर्ष 2006 में 17,060, वर्ष 2007 में 17,107 और वर्ष 2008 में 16,632 किसानों को कर्ज, मंहगाई, बेबशी और सरकार की घोर उपेक्षाओं के चलते आत्महत्या करने को विवश होना पड़ा। इस तरह से वर्ष 1997 से वर्ष 2006 के दस वर्षीय अवधि में कुल 1,66,304 किसानों ने अपने प्राणों की बलि दी और यदि 1995 से वर्ष 2006 की बारह वर्षीय अवधि के दौरान कुल 1,90,753 किसानों ने अपनी समस्त समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या का सहारा लेना पड़ा।
देश में गरीबी और भूखमरी का साम्राज्य स्थापित है। एशिया विकास बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के 75 फीसदी लोग निर्धन मध्य वर्ग में आते हैं, जिनकी मासिक आय 1035 रुपये से कम है। निम्न मध्य वर्ग, जिसकी आय 1035 से 2070 रुपये के बीच है, में लगभग 22 करोड़ लोग हैं। 2070-5177 आय वर्ग वाले मध्य-मध्य वर्ग के लोगों की संख्या पांच करोड़ से कम है। उच्च मध्य वर्ग के लगभग 50 लाख लोगों की मासिक आय 10 हजार का आंकड़ा छूती है। केवल 10 लाख लोग, जिन्हें अमीर समझा जाता है, की आय 10 हजार रुपये से अधिक है। गत वर्ष प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्व अध्यक्ष सुरेश तेन्दुलकर की अध्यक्षता में गठित समिति के अध्ययन के अनुसार देश का हर तीसरा आदमी गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहा है। गाँवों में रहने वाले 41.8 प्रतिशत लोग जीवित रहने के लिए हर माह सिर्फ 447 रूपये खर्च कर पाते हैं। देश के 37 प्रतिशत से ज्यादा लोग गरीब हैं। जबकि भारत सरकार द्वारा नियुक्त अर्जुन सेन गुप्त आयोग के अनुसार भारत के 77 प्रतिशत लोग (लगभग 83 करोड़ 70 लाख लोग) 20 रूपये से भी कम रोजाना की आय पर किसी तरह गुजारा करते हैं। जाहिर है कि महज 20 रूपये में जरूरी चीजें भोजन, वस्त्र, मकान, शिक्षा एवं स्वास्थ्य आदि पूरी नहीं की जा सकती। इनमें से 20 करोड़ से अधिक लोग तो केवल और केवल 12 रूपये रोज से अपना गुजारा चलाने को विवश हैं।
भूख और कुपोषण की समस्या राष्ट्रीय शर्म का विषय बन चुकी है। हाल ही में भूख और कुपोषण सर्वेक्षण रिपोर्ट (हंगामा-2011) ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक और विश्व की दूसरी सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देश को हकीकत का आईना दिखाया। इस सर्वेक्षण के तथ्यों के अनुसार देश के 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं और उनका वजन सामान्य से कम है।  रिपोर्ट के अनुसार देश के 100 जिलों के 60 प्रतिशत बच्चों की वृद्धि भी सामान्य नहीं हो रही है। सबसे बड़ी हैरानी वाली बात तो यह है कि देश की 92 प्रतिशत माताओं ने ‘कुपोषण’ शब्द कभी सुना तक नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का इस रिपोर्ट के तथ्यों को राष्ट्रीय शर्म करार देना स्थिति की गंभीरता का सहज अहसास करवाता है।
विष्व भूख सूचकांक, 2011 के अनुसार 81 विकासशील देशों की सूचनी में भारत का 15वां स्थान है। इस सूचकांक के मुताबिक भूखमरी के मामले में पाकिस्तान, बांग्लादेश, युगांडा, जिम्बाबे व मलावी देशों की भारत की तुलना में स्थिति कहीं अधिक बेहतर है। यदि गरीबी के आंकड़ों पर नजर डाला जाए तो विश्व बैंक के अनुसार भारत में वर्ष 2005 में 41.6 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे थे। एशियाई विकास बैंक के अनुसार यह आंकड़ा 62.2 प्रतिशत बनता है। केन्द्र सरकार द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समूह द्वारा सुझाए गए मापदण्डों के अनुसार देश में गरीबों की संख्या 50 प्रतिशत तक हो सकती है। गरीबों की गिनती के लिए मापदण्ड तय करने में जुटे विशेषज्ञों के समूह की सिफारिश के मुताबिक देश की 50 प्रतिशत आबादी गरीबी की रेखा से नीचे (बीपीएल) पहुंच जाती है।
बड़ी विडम्बना का विषय है कि देश में प्रतिवर्ष हजारों-लाखों टन अनाज देखरेख के अभाव में गोदामों में सड़ जाता है और देश के 20 करोड़ से अधिक व्यक्ति, बच्चे एवं महिलाएं भूखे पेट सोने को विवश होते हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 1997 से अक्तूबर, 2007 तक की दस वर्षीय अवधि में एफसीआई के गोदामों में 10 लाख, 37 हजार, 738 मीट्रिक टन अनाज सड़ गया। इस अनाज से अनुमानतः एक करोड़ से अधिक लोग एक वर्ष तक भरपेट खाना खा सकते थे। लेकिन, सरकार को यह मंजूर नहीं हुआ। सबसे रोचक बात तो यह भी है कि गतवर्ष 12 अगस्त, 2011 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार को आदेशात्मक सुझाव दिया कि अनाज सड़ाने की बजाय गरीबों को ‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ (पीडीएस) के जरिए मुफ्त बांटने का आदेशात्मक सुझाव दिया था। इसे भी सरकार ने नकार दिया।
देश  का नौजवान बेकारी व बेरोजगारी के चंगुल में फंसकर अपराधिक मार्ग का अनुसरण करने के लिए विवष है। पैसे व ऊंची पहुँच रखने वाले लोग ही सरकारी व गैर-सरकारी नौकरियों पर काबिज हो रहे हैं। पैसे, सिफारिष, गरीबी, और भाई-भतीजावाद के चलते देष की असंख्य प्रतिभाएं दम तोड़ रही हैं। निरन्तर महंगी होती उच्च शिक्षा गरीब परिवार के बच्चों से दूर होती चली जा रही है। आज की  शिक्षा पढ़े लिखे बेरोजगार व बेकार तथा अपराधी तैयार करने के सिवाय कुछ नहीं कर पा रही है। क्या शिक्षा में आचूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है?
    दहेजप्रथा, कन्या-भ्रूण हत्या, नारी-प्रताड़ना, हत्या, बलात्कार जैसी सामाजिक कुरीतियां व अपराध समाज को विकृत कर रहे हैं। नशा, जुआखोरी, चोरी, डकैती, अपहरण, लूटखसोट जैसी प्रवृतियां देश की नींव को खोखला कर रही हैं। बढ़ती जनसंख्या, बढ़ता लिंगानुपात, घटते रोजगार, प्रदूषित होता पर्यावरण, पिंघलता हुआ हिमालय, गन्दे नाले बनती पवित्र नदियां आदि विकट समस्याएं गणतंत्र के समक्ष बहुत बड़ी चुनौतियां हैं। कुल मिलाकर इस समय हमारा गौरवमयी गणतंत्र अनेक विकट समस्याओं के सशक्त चक्रव्युह में फंसा हुआ है। गणतंत्र की गौरवमयी गरिमा बनाए रखने के लिए इस चक्रव्युह का शीघ्रातिशीघ्र भेदन किया जाना अति आवश्यक है। इसके लिए हर भारतवासी को चुनौतियों का डटकर मुकाबला करने, इनसे निपटने की कारगर रणनीति बनाने, सार्थक चिन्तन करने और अपनी सकारात्मक भूमिका सुनिश्चित करने का संकल्प लेने की नित्तांत आवश्यकता है।

सोमवार, 16 जनवरी 2012

कुपोषण: राष्ट्रीय शर्म बनाम राष्ट्रीय भ्रम

‘भूख और कुपोषण’ सर्वेक्षण रिपोर्ट

कुपोषण: राष्ट्रीय शर्म बनाम राष्ट्रीय भ्रम
-राजेश कश्यप 


हाल ही में प्रधानमंत्री ने भूख और कुपोषण सर्वेक्षण रिपोर्ट (हंगामा-2011) जारी करते हुए, स्पष्टतः स्वीकार किया कि देश में भूखमरी और कुपोषण की स्थिति राष्ट्रीय शर्म का विषय है। निःसन्देह यह रिपोर्ट दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक और विश्व की दूसरी सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देश को हकीकत का आईना दिखाती है और इसके साथ ही उसके इस भ्रम को भी तोड़ती प्रतीत होती है कि वह वैश्विक महाशक्ति बनने के बिल्कुल करीब है। रिपोर्ट के आंकड़े इस कटू हकीकत के द्योतक हैं कि सत्तारूढ़ सरकारों द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली आंकड़ों की बाजीगरी कितनी बड़ी सुनियोजित चाल और आम जनता के प्रति धोखाधड़ी है? ‘सिटीजन्स अलायंस अगेंस्ट मालन्यूट्रीशन’ के अनुरोध पर ‘नंदी फाउण्डेशन’ द्वारा करवाए गए इस सर्वेक्षण के तथ्यों के अनुसार देश के 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं और उनका वजन सामान्य से कम है। हालांकि इससे पूर्व यह 53 प्रतिशत था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा इसे राष्ट्रीय शर्म करार देना, सर्वथा उचित और स्वागत योग्य ईमानदार आत्म-स्वीकारोक्ति कहा जाना चाहिए। देश के प्रधानमंत्री की यह ईमानदार आत्म-स्वीकृति सहज बोध कराती है कि सरकारी दावे, ‘हो रहा है भारत का नवनिर्माण’ में कितना दम है? 
यह सर्वेक्षण 9 राज्यों के 112 जिलों में 73,000 घरों के 1,09,093 बच्चों और 74,000 माताओं पर आधारित है। ‘सिटीजन्स अलायंस अगेंस्ट मालन्यूट्रीशन’ में युवा सांसद, कलाकार, निर्देशक, सामाजिक कार्यकर्ता और नीति निर्माता शामिल थे। रिपोर्ट के अनुसार देश के 100 जिलों के 60 प्रतिशत बच्चों की वृद्धि भी सामान्य नहीं हो रही है। सबसे बड़ी हैरानी वाली बात तो यह है कि देश की 92 प्रतिशत माताओं ने ‘कुपोषण’ शब्द कभी सुना तक नहीं है। सरकार व सर्वेक्षणकर्ताओं ने इस हकीकत को भी सहज स्वीकार किया है कि मात्र ‘एकीकृत बाल विकास योजना’ (आईसीडीएस) से देष के भावी कर्णधारों को कुपोषण के भंवरजाल से नहीं निकाला जा सकता।
‘हंगामा-2011’ सर्वेक्षण रिपोर्ट में कई चौंकाने वाले तथ्य प्रकाश में आए हैं। सर्वेक्षण में शामिल किए गए 100 जिलों में से 41 जिले तो अकेले उत्तर प्रदेश के हैं। उत्तर प्रदेश के इन जिलों में 50 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार और 70 फीसदी बच्चे ऐसे हैं, जिनकी सामान्य रूप से वृद्धि नहीं हो पा रही है। इस मामले में अन्य प्रदेशों बिहार, उड़ीसा, राजस्थान, झारखण्ड, मध्य प्रदेश व छतीसगढ़ आदि की भी स्थिति काफी बदतर है। सर्वेक्षण के अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों में यह भी सामने आया है कि निम्न आय वर्ग के परिवारों और अनुसूचित जाति व अनजाति से संबधित बच्चों में कुपोषण का स्तर अधिक है। अशिक्षित माताओं के बच्चे सर्वाधिक कुपोषित पाए गए।
देश के भावी कर्णधारों के कुपोषण से संबंधित चिंतित तथ्यों वाली यह कोई नई रिपोर्ट नहीं है। इससे पूर्व भी कई सर्वेक्षणों और अध्ययनों की रिपोर्टें इस समस्या से अवगत करवा चुके हैं। लेकिन, उन्हें आश्चर्यजनक तरीके से नजरअंदाज कर दिया गया। विश्व स्तरीय रिपोर्टों के अनुसार विश्व में कुल 14 करोड़ 60 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, जिनमें 5 करोड़, 70 लाख बच्चे भारतीय हैं। इसका अभिप्राय यह है कि दुनिया के हर तीन कुपोषित बच्चों में एक भारतीय है। संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास सूचकांक के आंकड़े भी काफी समय से चीख-चीखकर बतला रहे हैं कि भारत में महिलाओं और बच्चों में कुपोषण की स्थिति अत्यन्त चिन्तनीय है और कई अफ्रीकी  निर्धन देशों से भी बदतर है। बाल कुपोषण के मामले में भारत की स्थिति अन्य देशों नेपाल (48 प्रतिशत), बांग्लादेश (48 फीसदी), इथोपिया (47 प्रतिशत), अफगानिस्तान (39 प्रतिशत), सब-सहारा अफ्रीका (24 प्रतिशत), थाईलैण्ड (18 प्रतिशत), चीन (8 प्रतिशत) आदि की तुलना में बेहद शर्मनाक है। यूनिसेफ के पोषण संबंधी मामलों के प्रमुख डॉ. विक्यर अनुयाओं के मुताबिक भारत में वर्ष 2005-06 के दौरान 6 करोड़ 10 लाख (46 प्रतिशत) बच्चे कुपोषण के अभिशाप से जूझ रहे थे और 2 करोड़ 5 लाख बच्चे जिन्दा लाश की तरह जीने को बाध्य थे। इन अत्यन्त गम्भीर एवं चिन्तनीय तथ्यों के बावजूद सरकार का उदासीन रवैया, उसकी नीयत एवं नीतियों पर गहरे प्रश्नचिन्ह खड़े करता है।
यह बेहद आश्चर्य की बात है कि देश में बाल-कुपोषण की समस्या से निजात पाने के लिए ‘एकीकृत बाल विकास योजना’ (आईसीडीएस) योजना के अलावा पंचवर्षीय योजनाओं मंे भी करोड़ों-अरबों की राशि निर्धारित की जाती है। इसके बावजूद समस्या लगभग जस की तस ही है। यह भी कितनी बड़ी विडम्बना का विषय है कि देश में प्रतिवर्ष हजारों-लाखों टन अनाज देखरेख के अभाव में गोदामों में सड़ जाता है और देश के 20 करोड़ से अधिक व्यक्ति, बच्चे एवं महिलाएं भूखे पेट सोने को विवश होते हैं। सरकारी आंकड़ांे के मुताबिक वर्ष 1997 से अक्तूबर, 2007 तक की दस वर्षीय अवधि में एफसीआई के गोदामों में 10 लाख, 37 हजार, 738 मीट्रिक टन अनाज सड़ गया। इस अनाज से अनुमानतः एक करोड़ से अधिक लोग एक वर्ष तक भरपेट खाना खा सकते थे। लेकिन, सरकार को यह मंजूर नहीं हुआ। सबसे रोचक बात तो यह भी है कि गत वर्ष 12 अगस्त, 2011 को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार को आदेषात्मक सुझाव दिया कि अनाज सड़ाने की बजाय गरीबों को ‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ (पीडीएस) के जरिए मुफ्त बांटने दिया जाए। लेकिन, इसे भी सरकार ने नकार दिया। कितने बड़े शर्म की बात है कि एक तरफ देश के लोग भूख से बेहाल आम की गुठली, घास, सिलीकॉन युक्त मिट्टी के ढ़ेले, चूहे आदि खाकर भयंकर बीमारियों का शिकार होने को विवश होते हैं, दूसरी तरफ सरकारें ‘फील गुड’ और ‘नव-निर्माण’ का अहसास कराने के लिए करोड़ों रूपए विज्ञापनों व प्रचार-प्रसार पर खर्च करती रहती हैं और बढ़ती जीडीपी का राग अलापती रहती हैं। असल में यही देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है।
बाल कुपोषण के प्रमुख कारकों में गरीबी, बेरोजगारी, बेकारी, अशिक्षा और जागरूकता आदि का भारी अभाव है। ‘हंगामा-2011’ सर्वेक्षण रिपोर्ट में भी ये तथ्य सामने आए हैं। गरीब परिवारों में पल रहे बच्चे सर्वाधिक कुपोषित मिले हैं। सर्वेक्षण में स्कूली शिक्षा से वंचित 66 फीसदी माताएं मिलीं। निरक्षर माताओं के बच्चों में कुपोषण का स्तर 45 प्रतिशत मिला और 63 प्रतिशत बच्चों में समान्य वृद्धि का अभाव मिला। शिक्षा और जागरूकता के अभाव के कारण ही 51 प्रतिशत माताओं ने अपने नवजात शिशु को अपना पहला दूध ही नहीं पिलाया। सर्वेक्षण में यह तथ्य भी सामने आया कि  58 प्रतिशत महिलाएं बच्चे को छह माह से पहले ही पानी पिलाना शुरू कर देती हैं।
भूख व कुपोषण की समस्या अशिक्षा व जागरूकता के अभाव से कहीं अधिक गरीबी, बेरोजगारी व बेकारी की वजह से विकराल बनी हुई है। विष्व भूख सूचकांक, 2011 के अनुसार 81 विकासशील देशों की सूचनी में भारत का 15वां स्थान है। इस सूचकांक के मुताबिक भूखमरी के मामले में पाकिस्तान, बांग्लादेश, युगांडा, जिम्बाबे व मलावी देशों की तुलना में भारत की स्थिति बेहद बदतर है। यदि गरीबी के आंकड़ों पर नजर डाला जाए तो विश्व बैंक के अनुसार भारत में वर्ष 2005 में 41.6 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे थे। एशियाई विकास बैंक के अनुसार यह आंकड़ा 62.2 प्रतिशत बनता है। केन्द्र सरकार द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समूह द्वारा सुझाए गए मापदण्डों के अनुसार देश में गरीबों की संख्या 50 प्रतिशत तक हो सकती है। गरीबों की गिनती के लिए मापदण्ड तय करने में जुटे विशेषज्ञों के समूह की सिफारिश के मुताबिक देश की 50 प्रतिशत आबादी गरीबी की रेखा से नीचे (बीपीएल) पहुंच जाती है।
गरीबी, भूखमरी, महंगाई, बेरोजगारी और बेकारी की मार के चलते बच्चों और माताओं को समुचित मात्रा में पौष्टिक भोजन नहीं मिल पाता। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 63 फीसदी बच्चों को भरपेट खाना नहीं मिल पाता है। इसका बच्चों के स्वास्थ्य पर भारी कुप्रभाव पड़ रहा है। एक अनुमान के मुताबिक 5 वर्ष से कम आयु वाले 47 प्रतिशत बच्चे कम वजन वाले हैं, 45 प्रतिशत बच्चों की वृद्धि रूकी हुई है और 16 प्रतिशत बच्चे भीषण कुपोषण के शिकार हैं। एक अनुमान के अनुसार 43.8 प्रतिशत बच्चे औसत अंश के प्रोटीन ऊर्जा कुपोषण के शिकार हैं और 8.7 प्रतिशत बच्चे भयानक कुपोषण के शिकार हैं। देश में लगभग 60 हजार बच्चे प्रतिवर्ष विटामीन ‘ए’ की कमी के साथ-साथ प्रोटीन ऊर्जा कुपोषण के चलते अन्धेपन का शिकार होने को मजबूर होते हैं।
यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में 5 वर्ष से कम उम्र के लगभग 8 करोड़ 30 लाख बच्चे कुपोषित जीवन जीने को बाध्य हैं। इससे बड़ा चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इनमें अकेले भारत के 6.1 बच्चे शामिल हैं, जोकि देश की कुल जनसंख्या का 48 प्रतिशत बनता है। यह पड़ौसी देश पाकिस्तान (42 प्रतिशत) और बांग्लादेश (43 प्रतिशत) से भी अधिक है। केवल इतना ही नहीं, विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ो के अनुसार ऐसे बच्चे जिनका विकास अवरूद्ध हो चुका है, उनमें 34 प्रतिशत बच्चे भारत में है। रिपोर्ट के अनुसार देश में मध्य प्रदेश, बिहार और झारखण्ड में सर्वाधिक कुपोषित बच्चों की संख्या है।
अंतर्राष्ट्रीय आंकड़े बताते हैं कि भूख, गरीबी, शोषण, रोग तथा बाल-दुर्व्यवहार, प्राथमिक स्वास्थ्य व शिक्षण सुविधाओं के मामले में भारत की हालत अत्यन्त दयनीय है। ‘द स्टेट ऑफ वल्डर््स चिल्ड्रन’ नाम से जारी होने वाली यनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक 5 वर्ष की उम्र के बच्चों के मौतों के मामले में भारत विश्व में 49वाँ स्थान है, जबकि पड़ौसी देशों बांग्लादेश का 58वाँ और नेपाल का 60वाँ स्थान है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में प्रतिवर्ष लगभग 2.5 करोड़ बच्चे जन्म लेते हैं और प्रति 1000 बच्चों में से 124 बच्चे 5 वर्ष होने के पूर्व ही, जिनमें से लगभग 20 लाख बच्चे एक वर्ष पूरा होने के पहले ही मौत के मुँह में समा जाते हैं। ये मौतें अधिकतर कुपोषण एवं बीमारियों के कारण ही होती हैं।
देश में मातृ-मृत्यु दर के आंकड़े भी बड़े चाैंकाने वाले हैं। यूनिसेफ के अनुसार वर्ष 1995-2003 के दौरान भारत में प्रति लाख जीवित जन्मों पर 540 मातृ-मृत्यु दर थी। रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में प्रतिवर्ष लगभग 5.30 लाख माताएं प्रसव के दौरान मर जाती हैं और भारत में लगभग एक लाख माताएं प्रसव के दौरान प्रतिवर्ष मृत्यु का शिकार हो जाती हैं। लगभग 90 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी का शिकार होती हैं और 56 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं अपने गर्भावस्था के तीसरे चरण में आयरन की कमी से ग्रसित होती हैं।
कुल मिलाकर राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षणों, अध्ययनों और शोध रिपोर्टों के सनसनीखेज आंकड़े स्वतंत्रता के छह दशक पार करने वाले विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के लिए न केवल चिन्तनीय एवं चुनौतिपूर्ण हैं, बल्कि, बेहद शर्मनाक भी हैं। देश से भूखमरी व कुपोषण को मिटाने के लिए अचूक कारगर योजनाओं के निर्माण एवं उन्हें ईमानदारी से क्रियान्वित करने, सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति और स्वास्थ्य व शिक्षा के स्तर को सुधारना बेहद जरूरी है। यदि त्वरित रूप से ऐसा नहीं हुआ तो निश्चित तौरपर देश का भविष्य एकदम अंधकारमय होगा। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)


गुरुवार, 12 जनवरी 2012

पानीपत के युद्धों का पूरा सच

14 जनवरी / पानीपत युद्ध की 251वीं वर्षगांठ पर विशेष

पानीपत के युद्धों का पूरा सच 
-राजेश कश्यप

हरियाणा प्रदेश पौराणिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से राष्ट्रीय स्तर पर बेहद गौरवमयी एवं उल्लेखनीय स्थान रखता है। हरियाणा की माटी का कण-कण शौर्य, स्वाभिमान और संघर्ष की कहानी बयां करता है। महाभारतकालीन ‘धर्म-यृद्ध’ भी हरियाणा प्रदेश की पावन भूमि पर कुरूक्षेत्र के मैदान में लड़ा गया था और यहीं पर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ‘गीता’ का उपदेश देकर पूरे विश्व को एक नई दिशा दी थी। उसी प्रकार हरियाणा का पानीपत जिला भी पौराणिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से राष्ट्रीय स्तर पर अपना विशिष्ट स्थान रखता है। महाभारत काल में युद्ध को टालने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने शांतिदूत के रूप में पाण्डव पुत्र युद्धिष्ठर के लिए जिन पाँच गाँवों को देने की माँग की थी, उनमें से एक पानीपत था। ऐतिहासिक नजरिए से देखा जाए तो पानीपत के मैदान पर ऐसी तीन ऐतिहासिक लड़ाईयां लड़ीं गईं, जिन्होंने पूरे देश की तकदीर और तस्वीर बदलकर रख दी थी। पानीपत की तीसरी और अंतिम ऐतिहासिक लड़ाई 250 वर्ष पूर्व 14 जनवरी, 1761 को मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ और अफगानी सेनानायक अहमदशाह अब्दाली के बीच हुई थी। हालांकि इस लड़ाई में मराठों की बुरी तरह से हार हुई थी, इसके बावजूद पूरा देश मराठों के शौर्य, स्वाभिमान और संघर्ष की गौरवमयी ऐतिहासिक दास्तां को स्मरण एवं नमन करते हुए गर्व महसूस कर रहा है।
इतिहास के पटल पर पानीपत की तीनों लड़ाईयों ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है। हर लड़ाई के अंत में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। पानीपत की पहली लड़ाई के उपरांत लोदी वंश के अंत और मुगल साम्राज्य की नींव की कहानी लिखी गई। दूसरी लड़ाई के उपरांत सूरवंश के अंत और मुगल साम्राज्य के सशक्तिकरण का इतिहास लिखा गया। तीसरी लड़ाई ने मराठों को हार और अहमदशाह अब्दाली को इतिहास में सुनहरी अक्षरों में अपना नाम लिखवाने का उपहार देने के साथ ही ईस्ट इण्डिया कंपनी के प्रभुत्व की स्थापना भी की। पानीपत की हर लड़ाई हमें जहां भारतीय वीरों के शौर्य, स्वाभिमान एवं संघर्ष से परिचित कराती है, वहीं आपसी फूट, स्वार्थता और अदूरदर्शिता जैसी भारी भूलों के प्रति भी निरन्तर सचेत करती है।

पानीपत की प्रथम लड़ाई
पानीपत की पहली लड़ाई 21 अप्रैल, 1526 को पानीपत के मैदान में दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी और मुगल शासक बाबर के बीच हुई। इब्राहीम लोदी अपने पिता सिकन्दर लोदी की नवम्बर, 1517 में मृत्यु के उपरांत दिल्ली के सिंहासन पर विराजमान हुआ। इस दौरान देश अस्थिरता एवं अराजकता के दौर से गुजर रहा था और आपसी मतभेदों एवं निजी स्वार्थों के चलते दिल्ली की सत्ता निरन्तर प्रभावहीन होती चली जा रही थी। इन विपरीत परिस्थितियों ने अफगानी शासक बाबर को भारत पर आक्रमण के लिए लालायित कर दिया। उसने 5 जनवरी, 1526 को अपनी सेना सहित दिल्ली पर धावा बोलने के लिए अपने कदम आगे बढ़ा दिए। जब इसकी सूचना सुल्तान इब्राहीम लोदी को मिली तो उसने बाबर को रोकने के लिए हिसार के शेखदार हमीद खाँ को सेना सहित मैदान में भेजा। बाबर ने हमीद खाँ का मुकाबला करने के लिए अपने पुत्र हुमायुं को भेज दिया। हुमायुं ने अपनी सूझबूझ और ताकत के बलपर 25 फरवरी, 1526  को अंबाला में हमीद खाँ को पराजित कर दिया।
इस जीत से उत्साहित होकर बाबर ने अपना सैन्य पड़ाव अंबाला के निकट शाहाबाद मारकंडा में डाल दिया और जासूसांे के जरिए पता लगा लिया कि सुल्तान की तरफ से दौलत खाँ लोदी सेना सहित उनकीं तरफ आ रहा है। बाबर ने दौलत खाँ लोदी का मुकाबला करने के लिए सेना की एक टुकड़ी के साथ मेहंदी ख्वाजा को भेजा। इसमें मेहंदी ख्वाजा की जीत हुई। इसके बाद बाबर ने सेना सहित सीधे दिल्ली का रूख कर लिया। सूचना पाकर इब्राहिम लोदी भी भारी सेना के साथ बाबर की टक्कर लेने के लिए चल पड़ा। दोनों योद्धा अपने भारी सैन्य बल के साथ पानीपत के मैदान पर 21 अप्रैल, 1526  के दिन आमने-सामने आ डटे।
 दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी


 मुगल शासक बाबर
सैन्य बल के मामले में सुल्तान इब्राहिम लोदी का पलड़ा भारी था। ‘बाबरनामा’ के अनुसार बाबर की सेना में कुल 12,000 सैनिक शामिल थे। लेकिन, इतिहासकार मेजर डेविड के अनुसार यह संख्या 10,000 और कर्नल हेग के मुताबिक 25,000 थी। दूसरी तरफ, इब्राहिम की सेना में ‘बाबरनामा’ के अनुसार एक लाख सैनिक और एक हजार हाथी शामिल थे। जबकि, जादुनाथ सरकार के मुताबिक 20,000 कुशल अश्वारोही सैनिक, 20,000 साधारण अश्वारोही सैनिक, 30,000 पैदल सैनिक और 1,000 हाथी सैनिक थे। बाबर की सेना में नवीनतम हथियार, तोपें और बंदूकें थीं। तोपें गाड़ियों में रखकर युद्ध स्थल पर लाकर प्रयोग की जाती थीं। सभी सैनिक पूर्ण रूप से कवच-युक्त एवं धनुष-बाण विद्या में एकदम निपुण थे। बाबर के कुशल नेतृत्व, सूझबूझ और आग्नेयास्त्रों की ताकत आदि के सामने सुल्तान इब्राहिम लोदी बेहद कमजोर थे। सुल्तान की सेना के प्रमुख हथियार तलवार, भाला, लाठी, कुल्हाड़ी व धनुष-बाण आदि थे। हालांकि उनके पास विस्फोटक हथियार भी थे, लेकिन, तोपों के सामने उनका कोई मुकाबला ही नहीं था। इससे गंभीर स्थिति यह थी कि सुल्तान की सेना में एकजुटता का नितांत अभाव और सुल्तान की अदूरदर्शिता  का अवगुण आड़े आ रहा था।
दोनों तरफ से सुनियोजित तरीके से एक-दूसरे पर भयंकर आक्रमण हुए। सुल्तान की रणनीतिक अकुशलता और बाबर की सूझबूझ भरी रणनीति ने युद्ध को अंतत: अंजाम तक पहुंचा दिया। इस भीषण युद्ध में सुल्तान इब्राहिम लोदी व उसकी सेना मृत्यु को प्राप्त हुई और बाबर के हिस्से में ऐतिहासिक जीत दर्ज हुई। इस लड़ाई के उपरांत लोदी वंश का अंत और मुगल वंश का आगाज हुआ। इतिहासकार प्रो. एस.एम.जाफर के अनुसार, "इस युद्ध से भारतीय इतिहास में एक नए युग का आरंभ हुआ। लोदी वंश के स्थान पर मुगल वंश की स्थापना हुई। इस नए वंश ने समय आने पर ऐसे प्रतिभाशाली तथा महान् शासकों को जन्म दिया, जिनकी छत्रछाया में भारत ने असाधारण उन्नति एवं महानता प्राप्त की।"

पानीपत की दूसरी लड़ाई
पानीपत की दूसरी लड़ाई 5 नवम्बर, 1556 को पानीपत के ऐतिहासिक मैदान पर ही शेरशाह सूरी के वंशज और मुहम्मद आदिलशाह के मुख्य सेनापति हेमू तथा बाबर के वंशज अकबर के बीच लड़ी गई। इस लड़ाई के बाद भी एक नए युग की शुरूआत हुई और कई नए अध्याय खुले। आदिलशाह शेरशाह सूरी वंश का अंतिम सम्राट था और ऐशोआराम से सम्पन्न था। लेकिन, उनका मुख्य सेनापति हेमू अत्यन्त वीर एवं समझदार था। उसने अफगानी शासन को मजबूत करने के लिए 22 सफल लड़ाईयां लड़ी। इसी दौरान 26 जनवरी, 1556 को दिल्ली में मुगल सम्राट हुमायुं की मृत्यु हो गई। उस समय उसके पुत्र अकबर की आयु मात्र 13 वर्ष थी। इसके बावजूद उनके सेनापति बैरम खां ने अपने संरक्षण में शहजादे अकबर को दिल्ली दरबार के बादशाह की गद्दी पर बैठा दिया।
मुहम्मद आदिलशाह के मुख्य सेनापति हेमू 


बाबर के वंशज अकबर
जब बैरम खां को सूचना मिली कि हेमू भारी सेना के साथ दिल्ली की तरफ बढ़ रहा है तो वह भी पूरे सैन्य बल के साथ दिल्ली से कूच कर गया। हालांकि सैन्य बल के मामले में हेमू का पलड़ा भारी था। इतिहासकारों के अनुसार हेमू की सेना में कुल एक लाख सैनिक थे, जिसमें 30,000 राजपूत सैनिक, 1500 हाथी सैनिक और शेष अफगान पैदल सैनिक एवं अश्वारोही सैनिक थे। जबकि अकबर की सेना में मात्र 20,000 सैनिक ही थे। दोनों तरफ के योद्धा अपनी आन-बान और शान के लिए मैदान में डटकर लड़े। शुरूआत में हेमू का पलड़ा भारी रहा और मुगलों में भगदड़ मचने लगी। लेकिन, बैरम खां ने सुनियोजित तरीके से हेमू की सेना पर आगे, पीछे और मध्य में भारी हमला किया और चक्रव्युह की रचना करते हुए उनके तोपखाने पर भी कब्जा कर लिया। मुगल सेना ने हेमू सेना के हाथियों पर तीरों से हमला करके उन्हें घायल करना शुरू कर दिया। मुगलों की तोपों की भयंकर गूंज से हाथी भड़क गए और वे अपने ही सैनिकों को कुचलने लगे। परिणामस्वरूप हेमू की सेना में भगदड़ मच गई और चारों तरफ से घिरने के बाद असहाय सी हो गई। इस भीषण युद्ध में हेमू सेना के मुख्य सहयोगी वीरगति को प्राप्त हो गए। इसी दौरान दुर्भाग्यवश एक तीर हेमू की आँख में आ धंसा। इसके बावजूद शूरवीर हेमू ने आँख से तीर निकाला और साफे से आँख बांधकर युद्ध जारी रखा। लेकिन, अधिक खून बह जाने के कारण हेमू बेहोश हो गया और नीचे गिर पड़ा। इसके बाद हेमू की सेना में भगदड़ मच गई और सभी सैनिक युद्धभूमि छोड़कर भाग खड़े हुए।
बेहोश एवं अत्यन्त घायल हेमू को मुगल सैनिक उठाकर ले गए। क्रूर मुगल सेनापति बैरम खाँ ने मुर्छित अवस्था में ही हेमू के सिर को तलवार से काट दिया। उसने हेमू के सिर को काबूल भेजा और धड़ को दिल्ली के प्रमुख द्वार पर लटका दिया, ताकि उनका खौफ देशभर में फैल जाए और कोई भी ताकत उनसे टकराने की हिम्मत न कर सके। इस प्रकार पानीपत की दूसरी लड़ाई में अकबर को उसके सेनापति बैरम खाँ की बदौलत भारी विजय हासिल हुई। इस विजय ने मुगल शासन को भारत में बेहद मजबूत स्थिति में पहुंचा दिया। इसके साथ ही अकबर ने दिल्ली तथा आगरा के साथ-साथ हेमू के नगर मेवात पर भी अपना कब्जा जमा लिया।

पानीपत की तीसरी लड़ाई
पानीपत की तीसरी लड़ाई भारतीय इतिहास की बेहद महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी बदलावों वाली साबित हुई। पानीपत की तीसरी जंग 250 वर्ष पूर्व 14 जनवरी, 1761 को मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ और अफगान सेनानायक अहमदशाह अब्दाली के बीच हुई। इस समय उत्तर भारत में सिक्ख और दक्षिण में मराठों की शक्ति का ग्राफ तेजी से ऊपर चढ़ रहा था। हालांकि इस दौरान भारत आपसी मतभेदों व निजी स्वार्थों के कारण अस्थिरता का शिकार था और विदेशी आक्रमणकारियों के निशाने पर था। इससे पूर्व नादिरशाह व अहमदशाह अब्दाली कई बार आक्रमण कर चुके थे और भयंकर तबाही के साथ-साथ भारी धन-धान्य लूटकर ले जा चुके थे।
सन् 1747 में अहमदशाह अब्दाली नादिरशाह का उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ। अहमदशाह अब्दाली ने अगले ही वर्ष 1748 में भारत पर आक्रमण की शुरूआत कर दी। 23 जनवरी, 1756 को चौथा आक्रमण करके उसने कश्मीर, पंजाब, सिंध तथा सरहिन्द पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। वह अप्रैल, 1757 में अपने पुत्र तैमुरशाह को पंजाब का सुबेदार बनाकर स्वदेश लौट गया। इसी बीच तैमूरशाह ने अपने रौब को बरकरार रखते हुए एक सम्मानित सिक्ख का घोर अपमान कर डाला। इससे क्रोधित सिक्खों ने मराठों के साथ मिलकर अप्रैल, 1758 में तैमूरशाह को देश से खदेड़ दिया। जब इस घटना का पता अहमदशाह अब्दाली को लगा तो वह इसका बदला लेने के लिए एक बार फिर भारी सैन्य बल के साथ भारत पर पाँचवां आक्रमण करने के लिए आ धमका। उसने आते ही पुन: पंजाब पर अपना आधिपत्य जमा लिया। इस घटना को मराठों ने अपना अपमान समझा और इसका बदला लेने का संकल्प कर लिया। पंजाब पर कब्जा करने के उपरांत अहमदशाह अब्दाली रूहेला व अवध नवाब के सहयोग से दिल्ली की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए। उसने 1 जनवरी, 1760 को बरारघाट के नजदीक दत्ता जी सिन्धिया को युद्ध में परास्त करके मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद उसने 4 मार्च, 1760 को मल्हार राव होल्कर व जनकोजी आदि को भी युद्ध में बुरी तरह पराजित कर दिया।

मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ


अफगान सेनानायक अहमदशाह अब्दाली
अहमदशाह के निरन्तर बढ़ते कदमों को देखते हुए मराठा सरदार पेशवा ने उत्तर भारत में पुन: मराठा का वर्चस्व स्थापित करने के लिए अपने शूरवीर यौद्धा व सेनापति सदाशिवराव भाऊ को तैनात किया और इसके साथ ही अपने पुत्र विश्वास राव को प्रधान सेनापति बना दिया। सदाशिवराव भाऊ भारी सैन्य बल के साथ 14 मार्च, 1760 को अब्दाली को सबक सिखाने के लिए निकल पड़ा। इस जंग में दोनों तरफ के सैन्य बल में कोई खास अन्तर नहीं था। दोनों तरफ विशाल सेना और आधुनिकतम हथियार थे। इतिहासकारों के अनुसार सदाशिवराव भाऊ की सेना में 15,000 पैदल सैनिक व 55,000 अश्वारोही सैनिक शामिल थे और उसके पास 200 तोपें भी थीं। इसके अलावा उसके सहयोगी योद्धा इब्राहिम गर्दी की सैन्य टूकड़ी में 9,000 पैदल सैनिक और 2,000 कुशल अश्वारोहियों के साथ 40 हल्की तोपें भी थीं। जबकि दूसरी तरफ, अहमदशाह अब्दाली की सेना में कुल 38,000 पैदल सैनिक और 42,000 अश्वारोही सैनिक शामिल थे और उनके पास 80 बड़ी तोपें थीं। इसके अलावा अब्दाली की आरक्षित सैन्य टूकड़ी में 24 सैनिक दस्ते (प्रत्येक में 1200 सैनिक), 10,000 पैदल बंदूकधारी सैनिक और 2,000 ऊँट सवार सैनिक शामिल थे। इस प्रकार दोनों तरफ भारी सैन्य बल पानीपत की तीसरी लड़ाई में आमने-सामने आ खड़ा हुआ था।
14 जनवरी, 1761 को सुबह 8 बजे मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ ने तोपों की भयंकर गर्जना के साथ अहमदशाह अब्दाली का मुँह मोड़ने के लिए धावा बोल दिया। दोनों तरफ के योद्धाओं ने अपने सहयोगियों के साथ सुनियोजित तरीके से अपना रणकौशल दिखाना शुरू कर दिया। देखते ही देखते शुरूआत के 3 घण्टों में दोनों तरफ वीर सैनिकों की लाशों के ढ़ेर लग गए। इस दौरान मराठा सेना के छह दल और अब्दाली सेना के 8,000 सैनिक मौत के आगोश में समा चुके थे। इसके बाद मराठा वीरों ने अफगानी सेना को बुरी तरह धूल चटाना शुरू किया और उसके 3,000 दुर्रानी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। अब्दाली सेना में मराठा सेना के आतंक का साया बढ़ने लगा। लेकिन, दूसरे ही पल अब्दाली व उसके सहयोगियों ने अपने युद्ध की नीति बदल दी और उन्होंने चक्रव्युह रचकर अपनी आरक्षित सेना के ऊँट सवार सैनिकों के साथ भूख-प्यास से व्याकुल हो चुकी मराठा सेना पर एकाएक भीषण हमला बोल दिया। इसके बाद बाजी पलटकर अब्दाली की तरफ जा पहुंची।
मराठा वीरों को अब्दाली के चक्रव्युह से जान बचाकर भागना पड़ा। सदाशिवराव भाऊ की स्थिति भी एकदम नाजुक और असहाय हो गई। दिनभर में कई बार युद्ध की बाजी पलटी। कभी मराठा सेना का पलड़ा भारी हो जाता और कभी अफगानी सेना भारी पड़ती नजर आती। लेकिन, अंतत: अब्दाली ने अपने कुशल नेतृत्व व रणकौशल की बदौलत इस जंग को जीत लिया। इस युद्ध में अब्दाली की जीत के साथ ही मराठों का एक अध्याय समाप्त हो गया। इसके साथ ही जहां मराठा युग का अंत हुआ, वहीं, दूसरे युग की शुरूआत के रूप में ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभुत्व भी स्थापित हो गया। इतिहासकार सिडनी ओवेन ने इस सन्दर्भ में लिखा कि - "पानीपत के इस संग्राम के साथ-साथ भारतीय इतिहास के भारतीय युग का अंत हो गया।" 

पानीपत के तीसरे संग्राम में भारी हार के बाद सदाशिवराव भाऊ के सन्दर्भ में कई किवदन्तियां प्रचलित हैं। पहली किवदन्ती यह है कि सदाशिवराव भाऊ पानीपत की इस जंग में शहीद हो गए थे और उसका सिर कटा शरीर तीन दिन बाद लाशों के ढ़ेर में मिला था। दूसरी किवदन्ती के अनुसार सदाशिवराव भाऊ ने युद्ध में हार के उरान्त रोहतक जिले के सांघी गाँव में आकर शरण ली थी। तीसरी किवदन्ती यह है कि भाऊ ने सोनीपत जिले के मोई गाँव में शरण ली थी और बाद में नाथ सम्प्रदाय में दक्ष हो गए थे। एक अन्य किवदन्ती के अनुसार, सदाशिवराव भाऊ ने पानीपत तहसील में यमुना नदी के किनारे ‘भाऊपुर’ नामक गाँव बसाया था। यहां पर एक किले के अवशेष भी थे, जिसे ‘भाऊ का किला’ के नाम से जाना जाता था।
पानीपत की लड़ाई मराठा वीर विपरित परिस्थितियों के कारण हारे। उस दौरान दिल्ली और पानीपत के भीषण अकालों ने मराठा वीरों को तोड़कर कर रख दिया था। मैदान में हरी घास का तिनका तक दिखाई नहीं दे रहा था। मजबूरी में पेड़ों की छाल व जड़ें खोदकर घास के स्थान पर घोड़ों को खिलानी पड़ीं। सेनापति सदाशिवराव भाऊ भी भूख से जूझने को विवश हुआ और सिर्फ दूध पर ही आश्रित होकर रह गया। छापामार युद्ध में माहिर मराठा सेना को पानीपत के समतल मैदान में अपनी इस विद्या का प्रयोग करने का भी मौका नहीं मिल पाया। अत्याधुनिक हथियारों और तोपों का मुकाबला लाखों वीरों ने अपनी जान गंवाकर किया। परिस्थिति और प्रकृति की मार ने मराठा वीरों के हिस्से में हार लिख दी।
सांसद यशोधरा राजे सिंधिया के अनुसार, ‘पानीपत का तृतीय संग्राम एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर रहा है। पानीपत संग्राम में लाखों मराठाओं ने अपना जीवन न्यौछावर कर दिया।’ इतिहासकार डा. शरद हेवालकर के कथनानुसार, ‘पानीपत का तीसरा युद्ध, विश्व के इतिहास का ऐसा संग्राम था, जिसने पूरे विश्व के राजनीतिक पटल को बदलकर रख दिया। पानीपत संग्राम हमारे राष्ट्रीय जीवन की जीत है, जो हमारी अखण्डता के साथ चलती आई है।’
पानीपत की तीसरी लड़ाई भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण धरोहर है। इस जंग में बेशक मराठा वीरों को हार का सामना करना पड़ा हो, लेकिन भारतीय इतिहास में उनकी वीरता का अमिट यशोगान अंकित हो चुका है। हरियाणा की धरती पर लड़ी गई यह लड़ाई, आज भी यहां के लोगों के जहन में गहराई तक रची बसी है। मराठा वीरों के खून से सनी पानीपत की मिट्टी को आज भी बड़े मान, सम्मान एवं गौरव के साथ नमन किया जाता है। मराठा वीरों के खून से मैदान में खड़ा आम का पेड़ भी काला पड़ गया था। इसी कारण यहां पर युद्धवीरों की स्मृति में उग्राखेड़ी के पास ‘काला अंब’ स्मारक बनाया गया और इसे हरियाणा प्रदेश की प्रमुख धरोहरों में शामिल किया गया। इन सबके अलावा पानीपत में ही एक देवी का मन्दिर है। यह मन्दिर मराठों की स्मृति का द्योतक है। इसे मराठा सेनापति गणपति राव पेशवा ने बनवाया था।

देवी का मन्दिर
 मराठा वीरों की वीरता से जुड़े गीत, भजन, आल्हा, अलग-अलग किस्से, कहानियों का ओजस्वी रंग हरियाणवी लोकसंस्कृति में सहज देखा जा सकता है। जोगी मराठा वीरों की वीरता के लोकगीत गाते हुए गर्व महसूस करते हैं। एक हरियाणवी गीत में सदाशिवराव भाऊ की माँ युद्व के लिए निकल रहे भाऊ को शनवार बाड़े की ड्योढ़ी पर रोक लेती है और अपनी चिन्ता प्रकट करते हुए कहती है -

तू क्या शाह से लड़ेगा मन में गरवाया।
बड़े राव दत्ता पटेल का सिर तोड़ भगाया।
शुकताल पै भुरटिया ढूंढा ना पाया।
बेटा, दक्खिन बैठ करो राज, मेरी बहुत ही माया।

(अर्थात्, बेटा! तू अब्दाली से लड़ने और उसे हराने के अहंकार को मन से निकाल दो। तुम जानते हो कि उसने शुक्रताल पर दत्ता जी की गर्दन उतारकर कैसी दुर्दशा कर दी थी। इसलिए बेटा, तू दक्षिण में बैठकर राज कर ले, हमारे पास बहुत बड़ी धनमाया है।)

माँ के मुँह से ऐसी बात सुनकर इस लोकगीत में शूरवीर भाऊ जवाब देता है -

भाऊ माता से कहै एक अर्ज सुणावै।
कहै कहाणी बावली, क्यूं हमनैं डरावै।
मेरा नवलाख लेज्या दखनी कौण सामनै आवै।
अटक नदी मेरी पायगा घोड़ों के जल प्यावै।
तोप कड़क कै खुणे देश गणियर गरजावै।
दखन तो सोई आवैंगे जिननैं हरलावै।

(अर्थात्, हे माता, तुम मुझे क्यों रोक रही हो? मुझे यह कहानी सुनाकर इतना क्यो डरा रही हो? मेरे सामने भला कौन ठहर सकता है। मैं अपने घोड़ों को अटक नदी का पानी पिलाकर आऊँगा। अपनी शक्तिशाली तोपों की मार से सभी शत्रुओं के छक्के छुड़ा दुँगा। भगवान की कृपा से मैं दक्षिण सकुशल वापस तो आऊँगा ही, इसके साथ ही गिलचा को पूरा तबाह करके आऊँगा।)
इस प्रकार मराठा वीरों की गाथाएं न केवल हरियाणा की संस्कृति में गहराई तक रची बसी हैं, इसके साथ ही यहां के लोगों में उनके प्रति अगाध श्रद्धा भरी हुई है। उदाहरण के तौरपर जब कोई छोटा बच्चा छींकता है तो माँ के मुँह से तुरन्त निकलता है, ‘जय छत्रपति माई रानियां की।’ इसका मतलब यहां की औरतें अपनी ईष्ट देवी के साथ-साथ मराठो की वीरता का प्रतीक छत्रपति शिवाजी का भी स्मरण करती हैं। केवल इतना ही नहीं हरियाणा में निवास करने वाली रोड़ जाति उसी पुरानी मराठा परंपरा को संजोए हुए है। इस जाति का मानना है कि पानीपत के तीसरे युद्ध में करारी हार होने के कारण काफी संख्या में मराठे वीर दक्षिण नहीं गए और यहीं पर बस गए और वे उन्हीं वीरों के वंशज हैं। जो मराठा वीर यहीं बस गए थे, वे ही बाद में रोड़ मराठा के नाम से जाने गए। इस प्रकार हरियाणा प्रदेश मराठों के शौर्य एवं बलिदान को अपने हृदय में बड़े गर्व एवं गौरव के साथ संजोए हुए है (नोट : लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
राजेश कश्यप