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शुक्रवार, 4 मई 2012

फिल्म समीक्षा /  
चन्द्रावल-2
 लौटकर भी नहीं लौटी चन्द्रावल ! 
-राजेश कश्यप

जिस ‘चन्द्रावल’ के लौट आने के लिए हरियाणवी सिनेमा बेसब्री से पलकें बिछाए बाट जोह रहा था, वह लौटकर भी नहीं लौटी! 28 वर्ष पहले जिस चन्द्रावल ने बॉलीवुड तक तहलका मचाकर हरियाणवी सिनेमा को एक नया आयाम दिया था, उसी चन्द्रावल से उम्मीद थी कि वह मरणासन्न हरियाणवी सिनेमा के लिए संजीवनी बनकर लौटेगी। इन संभावनाओं को तब और भी पंख लग गए, जब प्रभाकर फिल्मस के बैनर तले ही ‘चन्द्रावल-दो’ बनने की घोषणा हुई। एक बार फिर बहुत सारी उम्मीदें जगीं थीं कि एक बार फिर हरियाणवी सिनेमा फर्श से अर्श पर पहुंचेगा और नई प्रतिभाओं के बलपर एक नए युग की शुरूआत होगी।
काफी चर्चाओं, उम्मीदों और संभावनाओं के बीच 4 मई को अंततः बहुप्रतिक्षित फिल्म ‘चन्द्रावल-दो’ प्रदर्शित हो ही गई। इसी के साथ हरियाणवी सिनेमा के इतिहास में फिल्मों के सिक्वल बनाने की नींव भी रख दी गई। ‘चन्द्रावल-दो’ में पहली चन्द्रावल के नायक सूरज (जगत जाखड़) और नायिका चन्द्रो (उषा शर्मा) के पुनर्जन्म को दिखाया गया है और रवि (कुलदीप राठी) व चाँद (शिखा नेहरा) के रूप में अजीबो-गरीब मिलन करवाकर दर्शकों की भावनाएं जीतने का भरसक प्रयास किया गया है। फिल्म में कई नए प्रयोग अनावश्यक तौरपर किए गए हैं। आधुनिक दर्शकों के दृष्टिकोण की दुहाई देते हुए फिल्म में मुम्बईया फिल्मों के कई तड़के लगाए गए हैं।
फिल्म को सफल बनाने के लिए आईटम गीत ‘मत छेड़ बलम मेरे चुन्दड़ नै, ना तै हो ज्यागी तकरार’ भी रखा गया, जोकि उम्मीदों पर भी खरा नहीं उतर पाया। फिल्म के निदेशन से लेकर उसकी कहानी, पटकथा, संवाद, गीत, संगीत और कॉमेडी आदि सबकुछ लचर है। बड़ा आश्चर्य होता है कि पहली चन्द्रावल की नायिका उषा शर्मा की छत्रछाया में उस फिल्म का सिक्वल तैयार हुआ है। एक भी ऐसा गीत नहीं बन पड़ा है, जो लंबे समय तक दर्शकों के दिल पर अपनी छाप छोड़े रखे। कॉमेडी के नाम पर सूण्डू और भूण्डू को बेकार में थोपा गया है। फिल्म में हरियाणवी बोली के साथ भी न्याय नहीं हो पाया है। हरियाणवी बोली में शहरीकरण की छाप स्पष्ट झलकती है।
फिल्म में नायक कुलदीप राठी और नायिका शिखा नेहरा का अभिनय अत्यन्त सराहनीय है और उनसे हरियाणवी सिनेमा भविष्य में अच्छी उम्मीदें कर सकता है। फिल्म के खलनायक सम्पूर्ण सिंह (दीपक कपूर) के अभिनय कौशल का सदुपयोग नहीं हो पाया है। फिल्म के कई दृश्य और संवाद दर्शकों को प्रभावित करते हैं। फिल्म में कहीं-कहीं युवाओं को कृषि की तरफ आकर्षित करने, समाज में घटती कन्याओं के प्रति सजग रहने और हरियाणवी बोली के प्रति स्वाभिमान जतलाने जैसे कई सामाजिक सन्देश देने की भी कोशिश की गई है, लेकिन प्रभावी अन्दाज नदारद रहा है। फिल्म के कई दृश्य तो एकदम अतार्किक और बचकाने हैं। फिल्म का अंत भी दर्शकों के गले कतई नहीं उतरने वाला है।
फिल्म की शुरूआत जोधा सरदार (गाड़िया लूहार) के बेड़े से शुरू होती है। वे उसी जगह पर डेरा लगाने आते हैं, जहां कभी सूरज व चन्द्रावल की मौत हुई थी। रास्ते में उन्हें चौधरी शमशेर सिंह हादसे का शिकार होकर दम तोड़ता हुआ मिलता है। दम तोड़ने से पहले वह अपनी छोटी सी बच्ची चाँद (शिखा नेहरा) को उनके हवाले कर जाता है। नन्हीं चाँद जोधा सरदार के डेर में ही बड़ी होती है। उधर रवि (कुलदीप राठी) गाँव के जमींदार का बेटा है और कृषि में डिग्री लेने के बाद खेतीबाड़ी करने गाँव आता है। वह गाँव में होने वाली कबड्डी कप्तान है और विपक्षी टीम को हरा देता है, जिसका कप्तान सम्पूर्ण सिंह (दीपक कपूर) है। वह इसे अपनी बेइज्जती समझता है और रवि को अपना दुश्मन समझने लगता है। वह जहरीली शराब का गाँव में धन्धा करता है, जिसे रवि पुलिस की मदद से बन्द करवा देता है। इसके बाद सम्पूर्ण सिंह रवि की जान का दुश्मन बन जाता है और ट्रक के साथ उसका एक्सीडेन्ट करवा देता है। इस सड़क हादसे में रवि अपनी याद गवां बैठता है।
 इसी बीच नाटकीय अन्दाज में उसे पिछले जन्म सूरज की याद हो आती है। वह पिछले जन्म की प्रेमिका चन्द्रो से मिलने के लिए भटकने लगता है। अंततः वह उसे ढूंढ लेता है। बिना किसी रूकावट के रवि के माता-पिता और जोधा सरदार अपने दोनों बच्चों की शादी करवाने के लिए तैयार हो जाते हैं और विवाह का दिन तय कर दिया जाता है। विवाह से पूर्व समाधि पर सम्पूर्ण सिंह अपने साथियों के साथ रवि पर हमला करता है, जिसमें चाँद मारी जाती है। वैद्य भी चाँद को मृत घोषित कर देता है। लेकिन, अंत में मुम्बईया फिल्मों की भांति फिल्म को सुखांत तक पहुंचाने के लिए चाँद को अर्थी पर ही पुनर्जीवित कर दिया जाता है।
फिल्म के साथ एक विवाद और भी जुड़ गया है। फिल्म की पटकथा और संवाद लेखक दिनेश टण्डवाल ने आरोप लगाया है कि उसने फिल्म का निर्देशन भी किया है, लेकिन उसका श्रेय नहीं दिया जा रहा। इसलिए उसके साथ धोखा हुआ है। इन सब आरोप को फिल्म की निर्माता उषा शर्मा सिरे से ही खारिज करती है। कुल मिलाकर, चन्द्रावल-दो उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाई है। नए प्रयोगों के चक्कर में फिल्म न घर की रही और न घाट की। निश्चित तौर पर फिल्म की असफलता हरियाणवी फिल्मकारों और प्रतिभाओं को भारी धक्का पहुंचाएगी। कुल मिलाकर चन्द्रावल लौटकर भी नहीं लौटी। जिस चन्द्रावल की हरियाणवी सिनेमा को जरूरत है, वह जाने कब लौटकर आएगी?

(राजेश कश्यप)
स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक।

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