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बुधवार, 11 जुलाई 2012

एनजीओ पर नकेल क्यों और कैसे?

मुद्दा

एनजीओ पर नकेल क्यों और कैसे? 
 -राजेश कश्यप

देश में एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) का मकड़जाल चरम पर पहुंच चुका है। इन एनजीओ की प्रकृति परजीवी अमरबेल की तरह हो चुकी है, जो ऊपरी तौरपर तो सुनहरी दिखाई देती है, लेकिन वास्तव में वह उसी पेड़ की शाखाओं को चूसती रहती है और धीरे-धीरे अपना तिलिस्मी मकड़जाल बढ़ाते हुए, पूरे पेड़ को अपने शिकंजे में लेकर बिल्कुल सुखा डालती है। एनजीओ भी एक तरह से परजीवी संस्थाएं हैं। ये गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) सरकारी अनुदान (ग्रान्ट) और सामाजिक दान व चन्दा लेकर अपनी गतिधियां संचालित करती हैं। ऊपरी तौरपर इन एनजीओ के कार्य समाजहित में अत्यन्त अनुकरणीय एवं कल्याणकारी होते हैं। इनके संविधान में समाज उत्थान से संबंधित शायद ही कोई पहलू अछूता रहता है। लगभग हर एनजीओ के प्रमुख कार्यों व उद्देश्यों में महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण संरक्षण, वृद्ध सेवा, बाल कल्याण, युवा कल्याण आदि दो दर्जन के करीब दावे सामान्यतः देखे जा सकते हैं। लेकिन, वास्तविकता इन दावों से लाखों कोस दूर होती है।
अभी हाल में रोहतक का ‘अपना घर’ राष्ट्रीय सुर्खियों में है। इसमें मासूम, बेसहारा, गरीब, शोषित, निराश्रित और विपरीत परिस्थितयों की शिकार महिलाएं, युवतियां और बच्चे आश्रय लिए हुए थे। गत 9 मई को राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसी) द्वारा छापा डालने के बाद पता चला कि यहां हर तरह का महापाप होता था। जबरन देह व्यापार से लेकर बाल यौन शोषण तक, निर्मम पिटाई से लेकर बाल मजदूरी तक और बच्चों को बेचने से लेकर युवतियों को उम्रदराज लोगों को विवाह के नाम पर सौदा करने तक, ऐसे महापाप आरोपी संचालिका व उसके सगे संबधियों द्वारा अंजाम दिए जा रहे थे, जिन्हें सुनकर रौंगटे खड़े हो जाते हैं। समाजसेवा के नाम पर काम करने वाली ‘अपना घर’ जैसी गैर सरकारी समाजसेवी संस्थाओं के इन कुकर्त्यों की जितनी भी निन्दा की जाए, उतनी ही कम है। बड़ी विडम्बना का विषय है कि इस तरह की गैर सरकारी सामाजिक संस्थाएं पूरे देश व समाज के लिए नासूर बन चुकी हैं। इस नासूर का इलाज सहज संभव नहीं है। इसके लिए कई क्रांतिकारी कदम उठाने की आवश्यकता है।
सबसे पहले इन सामाजिक संस्थाओं के पंजीकरण प्रक्रिया को बदलने की आवश्यकता है। सामान्यतः देश में इन एनजीओ का पंजीकरण सोसाइटीज एक्ट 1860, इंडियन ट्रस्ट एक्ट 1882, पब्लिक ट्रस्ट एक्ट 1950, इंडियन कंपनीज एक्ट 1956 (दफा 25), रिलीजियस इनडाउमेंट एक्ट 1863, द चैरिटेबल एण्ड रिलीजियस ट्रस्ट एक्ट 1920, मुसलमान वक्फ एक्ट 1923 आदि के तहत होता है। एनजीओ के पंजीकरण की प्रक्रिया इतनी सरल और सुगम है कि कोई भी व्यक्ति चंद कागजों की खानापूर्ति करके अपनी एनजीओ बना लेता है। कमाल की बात तो यह है कि काफी शातिर लोगों ने तो संस्थाओं का पंजीकरण करवाने की दुकान ही खोल रखी हैं। ये लोग एनजीओ पंजीकरण से लेकर प्रोजेक्ट बनाने तक का ठेका लेते हैं और बदले में मुंहमांगी रकम ऐंठते हैं। बेहद आश्चर्य की बात तो यह है कि ये ठेकेदार प्रत्येक वित्त वर्ष के अंत में पंजीकृत संस्था की वार्षिक गतिविधियों से लेकर उसके खर्च तक के दस्तावेज भी तैयार करके देते हैं, भले ही संस्था ने किसी को मटके का एक गिलास पानी तक न पिलाया हो। ऐसे शातिर लोग अपने पूरे परिवार और सगे संबंधियों के नाम पर दर्जनों एनजीओ का संचालन इसी तरह कागजों में करते रहते हैं।
सबसे हैरत की बात तो यह है कि यदि रिकार्ड़ जांचा जाए तो इन संस्थाओं की मॉनिटरिंग से लेकर चार्टेटेड एंेकाउंटेट तक से वैरिफाईड कागजातों का ढ़ेर मिलेगा, बावजूद इसके कि संस्था ने भले ही कोई काम न किया हो। ऐसा असंभव होते हुए भी कैसे संभव हो सकता है? निःसंदेह यह सब पैसे के बल पर होता है और संबधित स्थानीय प्रशासन इसमें सम्मिलित होता है। अतः संस्थाओं के पंजीकरण की प्रक्रिया को सख्त और पारदर्शी बनाया जाना, अब समय की कड़ी मांग बन चुकी है। संस्थाओं का पंजीकरण करते समय ग्राम पंचायतों, पंचायत समितियों और जिला परिषद के जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ स्थानीय विधायक और सांसद की अनुमति भी अनिवार्य कर देनी चाहिए। इसके साथ ही इलाके की किसी प्रमुख शख्सियत को जमानती के तौरपर भी शामिल करने का प्रावधान बनाया जाना चाहिए। जो भी संस्था पंजीकृत हो, उसके कार्यालय, लक्ष्य, सदस्य आदि का पूरा खुलासा सार्वजनिक स्तर पर होना चाहिए। हर संस्था का कार्यक्षेत्र तय कर दिया जाना चाहिए। इससे एक ही स्थान पर एक ही कार्य के लिए दर्जनों एनजीओ के पंजीकरण का कोई औचित्य नहीं है। एक ही छत के नीचे रहने वाले परिवार के एक से अधिक सदस्यों के नाम संस्था पंजीकृत करवाना गैर-कानूनी होना चाहिए। एक एनजीओ को एक समय पर एक ही प्रोजेक्ट देने का प्रावधान करना चाहिए। जब तक एक प्रोजेक्ट पूरा न हो, दूसरे प्रोजेक्ट के लिए अनुदान जारी नहीं किया जाना चाहिए, ताकि एनजीओ संचालकों में अधिक से अधिक पैसा हड़पने की प्रवृति पर अंकुश लग सके। संस्थाओं का पंजीकरण सीमित अवधि पाँच या दस साल के लिए होना चाहिए। संतोषजनक कार्य निष्पादन के आधार पर उन्हें आगामी निश्चित अवधि के लिए नवीनीकृत करने का प्रावधान किया जाना चाहिए।
पंजीकृत संस्थाओं को सरकारी अनुदान व सामाजिक चन्दा व दान देने के मामले में भी पारदर्शिता होनी चाहिए। वर्तमान कानूनी प्रावधानों के तहत उन्हीं संस्थाओं को सरकारी अनुदान दिया जाता है, जो संस्था कम से कम तीन साल से पंजीकृत है और समाजसेवा का अच्छा रिकार्ड़ रखती है। ऐसे में सरकारी अनुदान पास होने से पूर्व किसी स्वतंत्र एजेन्सी से पिछले तीन वर्षों के कार्यों का मूल्यांकन गहराई से करवाना चाहिए और स्थानीय इकाई ग्राम सभा आदि से तसदीक करवानी चाहिए। संस्था द्वारा किया गया कार्य संतोषजनक पाए जाने पर ही उसे सरकारी अनुदान के लिए नामित करना चाहिए।
सरकार अनुदान व सामाजिक चन्दा व दान प्राप्त राशि को भी सार्वजनिक करने के लिए सशक्त, सुलभ और अनिवार्य प्रावधान बनाने की भी कड़ी आवश्यकता है। शातिर लोग समाजसेवा के नाम पर करोड़ों रूपया सरकारी व सामाजिक दान के रूप में प्रतिवर्ष हासिल करते हैं और किसी को कानोंकान तक खबर नहीं लगती है। संस्था द्वारा बनाए गई आगामी समयबद्ध वार्षिक कार्य योजना (एक्शन प्लान) को भी समुचित तरीके से सार्वजनिक किये जाने का प्रावधान होना चाहिए, ताकि आम जनमानस न केवल उन योजनाओं का लाभ उठा सके, अपितु उन गतिविधियों के क्रियान्वयन का साक्षी भी बन सके। इन संस्थाओं की वार्षिक प्रगति रिपोर्ट को स्थानीय इकाईयों ग्राम सभा आदि से पास करवाने के बाद आगे बढ़ानी चाहिए। तमाम प्रक्रियाओं के बाद वह पूरी रिपोर्ट समस्त दस्तावेजों के साथ प्रमुख कार्यालयों और पुस्तकालयों में भी जरूर उपलब्ध करवाई जानी चाहिए और उस संस्था की समस्त गतिविधियों का अपडेट समयबद्ध तरीके से इंटरनेट पर भी ऑन लाईन होना चाहिए। इससे न केवल पारदर्शिता बढ़ेगी, अपितु शोधार्थियों को भी बहुत लाभ मिलेगा।
इसके साथ ही एनजीओ के हस्तांतरण पर भी प्रतिबंध लगाना चाहिए। क्योंकि शातिर लोग अनेकों संस्थाओं का पंजीकरण पंजीकरण केवल इसीलिए करवाते हैं, ताकि बाद मंे उन्हें मुंहमांगी कीमत पर बेचकर मोटी कमाई कर सकें। इस तरह हस्तांतरण के जरीये खरीद-फरोख्त की हुई संस्थाओं का काम सिर्फ कागजों में ही होता है और आगे उनका प्रयोग उनसे भी शातिर लोग पैसे के दम पर बड़े-बड़े प्रोजेक्ट हासिल करके सरकार व समाज को करोड़ों का चूना लगाकर ऐशोआराम व अय्याशी का जीवन जीते हैं। इसके अलावा प्रत्येक एनजीओ के मुख्य कार्यालय के बाहर एक विशेष सूचना पट्ट (नोटिस बोर्ड) लगवाना अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए, जिस पर मुख्यतः संस्था को मिलने वाले सरकारी अनुदानों व चन्दा अथवा दान राशियों का पूरा विवरण, खर्च राशि का विवरण, संस्था के पदाधिकारियों का परिचय, संस्था के उद्देश्य, कार्यक्षेत्र, लाभार्थियों का विवरण, प्रस्ताविक कार्यक्रम, वर्तमान मंे जारी कार्यक्रमों का पूरा विवरण, सूचना अधिकारी का नाम, संस्था का टेलीफोन नंबर व ईमेल आदि सभी प्रमुख जानकारियां अंकित होनी चाहिएं।
संस्थाओं का निरीक्षण यानी मॉनीटरिंग प्रक्रिया एकदम व तुरन्त बदलने की आवश्यकता है। संस्थाओं का समयबद्ध तरीके से औचक निरीक्षण होना चाहिए। क्योंकि निरीक्षणकर्ता पहले ही निरीक्षण का दिन और समय घोषित कर देते हैं। ऐसे में शातिर संस्था संचालक अपने प्रोजैक्ट का आकर्षक डैमो लगाकर तैयार हो जाते हैं। इसके साथ ही निरीक्षणकर्ता के लिए पैसे के साथ-साथ शराब, शबाब और अय्याशी की हर चीज की व्यवस्था कर ली जाती है। निरीक्षण गोपनीय तरीके से औचक किया जाना चाहिए और साथ ही फोटोग्राफी व विडियोग्राफी भी करवाई जानी चाहिए। इसके साथ ही निरीक्षणकर्ता द्वारा परियोजना के लाभार्थियों व स्थानीय लोगों से भी अकेले में बात करनी चाहिए और उनके सभी गिले-शिकवे व सुझाव दर्ज करने चाहिएं। निरीक्षण के दौरान कार्य से संबंधित हर दस्तावेज का बारीकी से निरीक्षण होना चाहिए और उनको तस्दीक व हस्ताक्षरित करने वाले व्यक्तियों की भी पड़ताल करनी चाहिए। काफी संस्थाएं नकली हस्ताक्षर और गैर-कानूनी तौरपर बड़े-बड़े अधिकारियों की मोहरें व पैड बनवाकर दस्तावेज तैयार करती हैं और भारी फर्जीवाड़े को अंजाम देती हैं। निरीक्षणकर्ता की पूरी रिपोर्ट भी यथाशीघ्र सार्वजनिक किए जाने का प्रावधान बनाया जाना चाहिए।
जिन एनजीओ में बच्चों व महिलाओं से संबंधित परियोजनाओं का संचालन होता है अथवा जहां महिलाएं काम करती हैं, उन संस्थाओं पर बारीकी से नजर रखने की आवश्यकता है। ऐसी संस्थाओं में बड़े पैमाने पर एनजीओ संचालक महिलाओं व बच्चों का शारीरिक व मानसिक शोषण करते रहते हैं और उनकी खबर किसी को भी नहीं लग पाती है। ऐसी संस्थाओं में कदम-कदम पर पारदर्शिता की आवश्यकता है और विश्वसनीय एजेन्सियों व अधिकारियों द्वारा प्रतिमाह निरीक्षण किया जाना चाहिए। स्थानीय प्रशासन की जिम्मेदारी भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। ऐसी संस्थाओं मंे किसी भी आम व सभ्य आदमी द्वारा वहां के आश्रित बच्चों व महिलाओं की कुशलक्षेम पूछने की अनुमति होनी चाहिए। प्रत्येक त्यौहार व राष्ट्रीय पर्व पर संस्था में रह रहे बेबस व निराश्रित बच्चों व महिलाओं की सार्वजनिक भागीदारी भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। किसी भी संस्था में, किसी भी स्तर पर कोई शिकायत मौखिक अथवा लिखित मिलती है, तुरंत उसका संज्ञान जिला प्रशासन के साथ-साथ राज्य स्तर भी लेने का प्रावधान होना चाहिए।
गैर सरकारी संगठनों को पारदर्शी व कारगर बनाने के लिए कई अन्य कदम भी उठाये जा सकते हैं। मसलन, संस्था के प्रधानों की अवधि भी सुनिश्चित की जा सकती है। इससे संस्था में कई तरह के सकारात्मक परिणाम आएंगे। ऐसे संगठनों की गतिविधियों में मीडिया की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। अधिकतर संस्थाएं पेड न्यूज अथवा विज्ञापनों की ऐवज में अपनी फर्जी गतिविधियां समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाती हैं और उन्हीं कंटिग्स के सहारे वार्षिक रिपोर्ट तैयार होती हैं और उन्हीं को दिखाकर नए-नए प्रोजेक्ट हथियाए जाते हैं। ऐसे में संस्थाओं की खबरें प्रेस विज्ञप्ति पर आधारित नहीं होनी चाहिएं। यदि ऐसा कोई मामला संज्ञान में आए तो उस पर तुरन्त कड़ी कार्यवाही का प्रावधान होना चाहिए। यदि मीडिया स्वयं ऐसी गतिविधियों की कवरेज करेगा तो योजनाओं में काफी हद तक पारदर्शिता आएगी।
इसके साथ ही एनजीओ को जन लोकपाल और लोकायुक्तों के दायरे में लाया जाना चाहिए। इससे एनजीओ में होने वाले गोलमाल और गैर कानूनी कार्यों पर काफी हद तक अंकुश लग सकेगा और समाज कल्याण के नाम पर प्रतिवर्ष जो लाखांे-करोड़ों रूपया पानी की तरह बहाया जाता है, उसका सदुपयोग भी हो सकेगा। इसके अलावा बनाए जाने वाले नए नियमों की कसौटी पर पुरानी पंजीकृत गैर सरकारी संगठनों को भी आंकना चाहिए और मानकों पर खरा न उतरने वाले संगठनों को तुरन्त हमेशा के लिए प्रतिबन्धित (ब्लैकलिस्ट) कर देना चाहिए। इसके साथ ही प्रतिबंधित (ब्लैकलिस्ट) संगठन के सदस्यों को भी पर भी किसी तरह की कोई संस्था पंजीकृत करवाने के लिए पूर्णतः प्रतिबंधित और गैर-कानूनी कर देना चाहिए। इससे चालबाज लोगों को कड़ा सबक मिलेगा और वे हर कदम फूंक-फूंककर रखेंगे। इसी तरह के अन्य विकल्प एवं सुझाव बुद्धिजीवियों एवं सुधी पाठकों से खुले रूप से आमंत्रित किए जाने चाहिएं और उत्कृष्ट सुझावों पर तुरन्त गौर भी फरमाना चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

(राजेश कश्यप)
स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक।


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राजेश कश्यप
स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक
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