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मंगलवार, 18 सितंबर 2012

ममता बनर्जी का कदम स्वागत योग्य

ममता बनर्जी का कदम स्वागत योग्य 
 -राजेश कश्यप

तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो और पंश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आम जनभावनाओं की अपेक्षाओं पर खरा उतरते हुए साहसिक व स्वागत योग्य निर्णय लिया है। यूपीए-दो से नाता तोड़ने और सभी छह मंत्रियों के इस्तीफा देने के निर्णय से ममता दीदी अपने माँ, माटी और मानुष पर एकदम खरा उतरी हैं। यही समय का तकाजा था। ममता के इस फेसले से निश्चित तौरपर आम जनमानस को राहत मिलेगी। कांग्रेस सरकार ने भ्रष्टाचार की सारी हदें तो पार कर ही डालीं हैं, साथ ही संसदीय मर्यादाओं को भी तार-तार करके रख दिया है। महंगाई और भ्रष्टाचार ने आम आदमी का जीना बेहद मुश्किल कर दिया है। लाखों करोड़ के घोटालों की लंबी कतार लगाकर भी यूपीए सरकार को जरा भी शर्म नहीं आ रही है। सहयोगी पार्टियों को हाशिये पर रखने वाली यूपीए सरकार अति आत्मविश्वास के साथ-साथ भारी अहंकार का शिकार हो गई है। आम आदमी के प्रति संजीदगी दिखाने और अपने दायित्व के प्रति गंभीरता दिखाने की बजाय यह कहना कि जाना ही है तो लड़ते हुए जाएंगे, बहुत बड़ा गैरजिम्मेदाराना रवैया है।
आम जनता मूर्ख नहीं है। लेकिन, यूपीए सरकार उसे मूर्ख ही नहीं, बल्कि महामूर्ख मानती है। इसी के चलते केन्द्रीय गृहमंत्री सरेआम बड़ी बेशर्मी के साथ हंसते हुए कहते हैं कि जिस तरह जनता बोफोर्स घोटाले को भूल गई, उसी प्रकार कुछ दिन बाद कोयला घोटाले को भी भूल जाएगी। निश्चित तौरपर यह लोकतंत्र का सबसे बड़ा मजाक है। देश की जनता भूख, भ्रष्टाचार, बेकारी और बेरोजगारी से त्रस्त है और सरकार घोटालों में व्यस्त है। किसान कर्ज के चलते आत्महत्या करने को मजबूर हैं। कमाल की बात तो यह है कि देश की आर्थिक विकास दर भ्रष्टाचार और बड़े-बड़े घोटालों की भेंट चढ़ गई। इसे सुधारने के लिए देश की अस्मिता को एफडीआई के जरिए गिरवी रख दिया गया है। किरयाना सैक्टर से जुड़े करोड़ों भारतीयों का गला काटकर विदेशियों को सरेआम लूट मचाने का न्यौता देने देश के लिए सबसे बड़ा आत्मघाती कदम है। एफडीआई एक तरह से परोक्ष रूप से गुलामी को आमंत्रण देने के समान है। सन् 1600 में भी ब्रिटिश कंपनी छोटा सा कारोबार करने के लिए आई थी और उसके बाद जिस तरह से देश गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा गया, उसका इतिहास गवाह है। विडम्बना का विषय है कि देश की आधारभूत संरचना मजबूत करने की बजाय देश के हितों को गिरवी रखा जा रहा है।
यूपीए सरकार की निरंकुशता पर लगाम लगाने के लिए ममता बनर्जी ने आम आदमी का विश्वास जीत लिया है। ममता द्वारा दो घण्टे की मैराथन बैठक के बाद अपने सीधे और सपाट निर्णय के साथ तीन शर्तें भी सराहनीय हैं। यदि यूपीए सरकार इन तीनों शर्तों को स्वीकार करती है तो यह लोकतंत्र की जीत होगी, जिसका सीधा श्रेय ममता बनर्जी को जाएगा। ममता बनर्जी ने जिस तरह सरकार में रहकर अन्य दलों की भांति सौदेबाजी से परहेज किया और जिस तरह मंत्रालयों का लालच त्यागा है, यह अत्यन्त सराहनीय है। ममता बनर्जी से यूपीए के अन्य सहयोगी दलों को भी सीख लेनी चाहिए। यह माना कि ममता के 19 सांसदों के सरकार से बाहर होने के बाद यूपीए सरकार पर कोई बड़ा संकट आने वाला नहीं है। क्योंकि बिना पैंदी के लोटे की तरह बार-बार ढुलकने और गिरगिट की तरह देखते ही देखते रंग बदलने वाले समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव, अपने नीजि हित साधने व अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए यूपीए सरकार के हाथों गिरवी रखकर आत्मघाती कदम उठाने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती और एम. करूणानिधि आदि यूपीए सरकार को समर्थन दे रहे हैं। अभी तक उनमें आम जनता का दर्द कहीं नजर नहीं आ रहा है। मुलायम सिंह और मायावती एक दूसरे को मात देने के चक्कर में आम जनता को मारने में लगे हैं। यदि ये भी ममता बनर्जी की भांति आम जनता के हित में अपने स्वार्थों को छोड़कर बड़े साहसिक कदम उठाने का निर्णय लें तो निश्चित तौरपर उनके कद में इजाफा होगा। यदि वे ममता बनर्जी के क्रांतिकारी आगाज के बावजूद यूपीए सरकार के साथ बने रहते हैं तो वे जनता की नजरों से गिर जाएंगे, जिसका भारी भुगतान उन्हें आगामी वर्ष 2014 के चुनावों में करना पड़ेगा।
इसके साथ ही यूपीए सरकार एवं उसके सहयोगी दलों को भी यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि उनके दिन अब लद चुके हैं। बड़े-बड़े घोटालों के बावजूद बेशर्मी का प्रदर्शन करने वाली यूपीए सरकार जनता की नजरों में एकदम गिर चुकी हैं। जिस तरह से संसद का मानसून सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया और इससे नुकसान हुए करोड़ों रूपये का नुकसान की जिम्मेदार भी सीधे तौरपर यूपीए सरकार ही उतरदायी रही है। जिस तरह से कोयले की खदानों की लूट हुई, टू-जी स्पैक्ट्रम में जमकर लूट हुई, राष्ट्र मण्डल खेल में सरेआम डाका डाला गया और कई अन्य बड़े घोटालों को अंजाम दिया गया, उससे आम जनता अत्यन्त आक्रोशित हो चुकी है। जिस तरह से कांग्रेस सरकार ने कैग व चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं को अपना निशाना बनाया है, उसके परिणाम भी बेहद घातक सिद्ध होंगे। यूपीए सरकार को यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि जनता की चोट जब भी पड़ती है, वह लंबे समय तक उसकी दर्द से उबर नहीं पाता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक हैं।)   

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

हिन्दी के ह्रास का सबब बनी ‘हिंग्लिश’

14 सितम्बर/राष्ट्रीय हिन्दी दिवस विशेष /
 हिन्दी के ह्रास का सबब बनी ‘हिंग्लिश’ 
 -राजेश कश्यप

आजकल राष्ट्रभाषा हिन्दी बेहद नाजुक दौर से गुजर रही है। वैश्विक पटल पर अपनी प्रतिष्ठा को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए विभिन्न चुनौतियों से जूझ रही हिन्दी के समक्ष भारी धर्मसंकट खड़ा हो चुका है। इस धर्मसंकट का सहज अहसास भारत सरकार के गृह मंत्रालय और राजभाषा विभाग की सचिव वीणा उपाध्याय द्वारा गतवर्ष 26 सितम्बर, 2011 को ‘सरकारी कामकाज में सरल और सहज हिन्दी के प्रयोग के लिए नीति-निर्देश’ विषय पर भारत सरकार के समस्त मंत्रालयों व विभागों को लिखे गए पत्र से हो जाता है। इस पाँच पृष्ठीय पत्र में विभिन्न सरकारी बैठकों और उच्च स्तरीय अनुशंसाओं का पुख्ता हवाला देते हुए राजभाषा हिन्दी के सरल स्वरूप को प्रोत्साहित करना, आज के समय की मांग बताया गया है। पत्र में तार्किकता पेश करते हुए कहा गया है कि ’’किसी भी भाषा के दो रूप होते हैं-साहित्यिक और कामकाज की भाषा। कामकाज की भाषा में साहित्यिक भाषा के शब्दों के इस्तेमाल से उस भाषा विशेष की ओर आम आदमी का रूझान कम हो जाता है और उसके प्रति मानसिक विरोध बढ़ता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आज की लोकप्रिय भाषा अंग्रेजी ने भी अपने स्वरूप को बदलते समय के साथ खूब ढ़ाला है। आज की युवा पीढ़ी अंग्रेजी के विख्यात साहित्यकारों जैसे शेक्सपियर, विलियम थैकरे या मैथ्यू आर्नल्ड की शैली की अंग्रेजी नहीं लिखती है। अंग्रेजी भाषा में भी विभिन्न भाषाओं ने अपनी जगह बनाई है। बदलते माहौल में, कामकाजी हिन्दी के रूप को भी सरल तथा आसानी से समझ में आने वाला बनाना होगा। राजभाषा में कठिन और कम सुने जाने वाले शब्दों के इस्तेमाल से राजभाषा अपनाने में हिचकिचाहट बढ़ती है। शालीनता और मर्यादा को सुरक्षित रखते हुए भाषा को सुबोध और सुगम बनाना आज के समय की मांग है।’’
इसी पत्र में आगे कहा गया है कि जब-जब सरकारी कामकाज में हिन्दी में मूल कार्य न कर उसे अनुवाद की भाषा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है तो हिन्दी का स्वरूप अधिक जटिल और कठिन हो जाता है। अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद की शैली को बदलने की सख्त आवश्यकता है। अच्छे अनुवाद में भाव को समझकर वाक्य की संरचना करना जरूरी है, न कि प्रत्येक शब्द का अनुवाद करते हुए वाक्यों का निर्माण करने की। बोलचाल की भाषा में अनुवाद करने का अर्थ है कि उसमें अन्य भाषाओं जैसे उर्दू, अंग्रेजी और अन्य प्रान्तीय भाषाओं के लोकप्रिय शब्द भी खुलकर प्रयोग में लाए जाएं। भाषा का विशुद्ध रूप साहित्य जगत के लिए है, भाषा का लोकप्रिय और मिश्रित रूप बोलचाल और कामकाज के लिए है। इस पत्र के छठे बिन्दू में हिन्दी पत्रिकाओं में लिखी जा रही हिन्दी भाषा की आधुनिक शैली के छह उदाहरण दिए गए हैं, जिनमें हिन्दी व अंग्रेजी शब्दों के मिश्रित वाक्यों (हिंग्लिश) का प्रयोग किया गया है। इस प्रयोग को अनुकरणीय बताया गया है। इसके बाद सातवें बिन्दू के रूप में सरकारी कार्यालयों में हिन्दी के सरलीकरण के लिए तीन महत्वपूर्ण सुझाव दिए गए। इनमें अंग्रेजी भाषा के साथ-साथ अरबी, फारसी, तुर्की आदि विदेशी भाषाओं के प्रचलित शब्दों को देवनागरी में लिप्यांतरण करना कठिन व बोझिल शब्दों की अपेक्षाकृत ज्यादा अच्छा बताया गया है। इसके साथ ही जिन अंग्रेजी शब्दों का पर्याय न आता हो तो, उसे देवनागरी में ज्यों का त्यों अर्थात जैसे का तैसे लिखने की जोरदार वकालत की गई है, जैसे इंटरनेट, पैनड्राइव, ब्लॉग आदि।
इसके आगे पत्र में सरकार ने इन कदमों को सर्वथा उचित व न्यायसंगत ठहराते हुए ऐतिहासिक सन्दर्भ भी रखा है। पत्र में बताया गया है कि ‘‘हमारे संविधान निर्माताओं ने जब हिन्दी को राजभाषा का स्थान दिया, तब उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 351 में यह स्पष्ट रूप से लिखा कि संघ सरकार का यह कर्त्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे, जिससे वह भारत की संस्कृति के तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके। इस अनुच्छेद में यह भी कहा गया कि हिन्दी के विकास के लिए हिन्दी में ‘हिन्दुस्तानी’ और आठवीं अनुसूची में दी गई भारत की अन्य भाषाओं के रूप व पदों को अपनाया जाए।’’
हिन्दी के सरलीकरण हेतु सरकार द्वारा उठाए गए इस कदम की जहां कई वरिष्ठ साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों ने कड़ी आपत्ति जताई है, वहीं कई विद्वानों ने एकदम चुप्पी साध रखी है। वे खुलकर न तो इस कदम की आलोचना कर रहे हैं और न ही स्वागत। यदि वे इसकी आलोचना करें तो तर्कशास्त्री अंग्रेजी व अन्य भाषाओं के ऐसे शब्दों की झड़ी लगा देंगे, जिनका हिन्दी अनुवाद/लिप्यांतर न केवल अत्यंत कठिन होगा, बल्कि आम बोलचाल में भी उनका सहज प्रयोग संभव नहीं होगा। सर्वविद्यित है कि आज हिन्दी के बड़े-बड़े पैरवीकार भी आम तौरपर रेल/टेªन को ‘लौहपथगामिनी’, सिगरेट को ‘धूम्रदण्डिका’, टाई को ‘कंठभूषण’, साईकिल को ‘द्विचक्रवाहन’, फाऊंटेन पेन को ‘झरना लेखनी’, बॉल पेन को ‘कंदुक लेखनी’ आदि उच्चारित नहीं करते हैं। अनपढ़ व्यक्ति भी सामान्य तौरपर प्रयोग में आने वाले अंग्रेजी शब्दों बस, टैक्सी, पर्स, सूट, टीवी, रेडियो, रिमोट, पेंट, रेलवे स्टेशन, टिकट, मोटरसाईकिल, पुलिस, बिल, लिफ्ट, कोर्ट, केस, जज, क्लर्क आदि को हिन्दी की बजाय अंग्रेजी में ही उच्चारित करता है। आज आपसी रिश्ते भी अंग्रेजी में तब्दील हो गए हैं। पिता को ‘पापा/डैडी/डैड’, माता को ‘मम्मी/मॉम’, चाचा-ताऊ को ‘अंकल’ कहना आम बात हो गई है। इन सब तथ्यों से हिन्दी के सरलीकरण पर चुप्पी साधने वाली विद्वान मण्डली बखूबी परिचित है। यदि वे अपनी चुप्पी को तोड़कर हिन्दी के सरकारी सरलीकरण का स्वागत करते हैं तो वे सबसे पहले अपनी ही बिरादरी की आलोचनाओं के शिकार हो जाएंगे। इसके बाद वे इस तथ्य से भी एकदम सहमत होंगे कि हिन्दी-अंग्रेजी के मिश्रित रूप ‘हिंग्लिश’ से सर्वाधिक ह्रास हिन्दी का ही होगा।
ऐसे में स्पष्ट है कि हिन्दी का सरकारी सरलीकरण हिन्दी साधकों के लिए न तो उगलते बन पड़ रहा है और न ही निगलते बन पड़ रहा है। मीडिया ने तो हिन्दी के समक्ष पैदा हुए इस धर्मसंकट से पहले ही ‘हिंग्लिश’ को बखूबी आत्मसात कर लिया था। आज लगभग सभी हिन्दी समाचार पत्र-पत्रिकाओं, टेलीविजन के समाचार चैनलों, मनोरंजन चैनलों, रेडियो केन्द्रों आदि में ‘हिंग्लिश’ का तड़का जमकर लग रहा है।  बॉलीवुड में तो ‘हिंग्लिश’ की तूती बोल रही है। आज बॉलीवुड में हिन्दी फिल्मों के नाम भी स्पष्टतौरपर अंग्रेजी में धड़ल्ले से रखे जा रहे हैं और ऐसी फिल्में अच्छा खासा मुनाफा भी कमा रही हैं। उदाहरण के तौरपर, ‘द डर्टी पिक्चर’, ‘रॉकस्टॉर’, ‘रास्कल’, ‘रेस’, ‘रेडी’, ‘बॉडीगार्ड’, ‘फैशन’, ‘नो वन किल्ड जेसिका’, ‘वांटेड’, ‘माई नेम इज खान’, ‘काईट्स’, ‘थ्री इडियट्स’, ‘एजेंट विनोद’, ‘विक्की डोनर’, ‘पेज थ्री’, ‘ब्लड मनी’, ‘ऑल द बैस्ट’, ‘कॉरपोरेट’, ‘डू नोट डिस्टर्ब’, ‘नो एन्ट्री’, ‘पार्टनर’, आदि अंग्रेजी नाम वाली हिन्दी फिल्मों की लंबी सूची देखी जा सकती है।
दरअसल यह ‘हिंग्लिश’ हिन्दी व अंग्रेजी शब्दों का मिलाजुला मिश्रित रूप है। यह नया रूप हिन्दी भाषा के लिए ‘धीमे जहर’ का काम कर रहा है, इसमें कोई दो दाय नहीं होनी चाहिए। निश्चित तौरपर इससे हिन्दी के हितों को न केवल जबरदस्त आघात लग रहा है, बल्कि हिन्दी का यह ह्रास उसके अस्तित्व को भी खतरे में डाल सकती है। बड़ी विडम्बना का विषय है कि भूमण्डलीकरण के इस दौर में सैंकड़ों भाषाएं भारी संक्रमण के दौर से गुजर रही हैं। वैश्विक भाषाओं के मूल अस्तित्व पर ‘ग्लोबिश’ भाषा का ग्रहण लगने लगा है। ‘ग्लोबिश’ ऐसी भाषा जिसमें इंग्लिश के उतने ही शब्द इस्तेमाल किये जाते हैं, जिससे पूरी दुनिया का काम चल जाए। ‘ग्लोबिश’ में मात्र डेढ़ हजार ऐसे इंग्लिश शब्द प्रयुक्त हो रहे हैं, जिन्हें सीखकर कथित तौरपर पूरी दुनिया में अंग्रेजी में सहज संवाद स्थापित किया जा सकता है। फ्रांस, कोरिया और स्पेन आदि में इन दिनों ‘ग्लोबिश’ भाषा ने धूम मचाई हुई है और स्थानीय भाषाओं की जड़ें हिलाई हुई हैं।
वैश्विक स्तर पर जहां ‘ग्लोबिश’ अपने पाँव बड़ी तेजी से पसार रही है, वहीं चीन मंे ‘चिंग्लिश’ चीनी भाषा के लिए चिंता और चुनौती का सबब बनी हुई है और भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दी ‘हिंग्लिश’ का शिकार हो गई है। ‘ग्लोबिश’, ‘चिंग्लिश’, ‘हिंग्लिश, ‘फिंग्लिश’ आदि मिश्रित/संकर श्रेणी की भाषाओं के बढ़ते संक्रमण के बीच दुनिया की कुल 6900 भाषाओं में से 3500 भाषाएं विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा 21 फरवरी, 2009 को ‘अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस’ के अवसर पर जारी रिपोर्ट के मुताबिक इनमें सबसे गंभीर स्थिति भारत की है, जहां 196 भाषाएं विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी हैं। इसके बाद अमेरिका का स्थान आता है, जिसकी 192 भाषाओं पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। गतवर्ष सितम्बर, 2011 में राज्यसभा में मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री डी. पुण्डेश्वरी ने लिखित जवाब में जानकारी देते हुए बताया था कि भारत में पिछले छह दशकों के दौरान नौ भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं और 103 लुप्त होने की कगार पर हैं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी बताया था कि देश में 84 भाषाएं ऐसी हैं, जिनको बोलने वालों की संख्या मंे निरंतर गिरावट आ रही है। सरकार इन भाषाओं के निरंतर संरक्षण के लिए प्रयासरत है। ऐसे में सबसे गंभीर सवाल यही उठता है कि क्या ‘हिंग्लिश’ के कारण हिन्दी का भी ऐसा ही हश्र हो सकता है?
यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि वैश्विक स्तर पर तेजी से पाँव पसार रही हिन्दी एकाएक ‘हिंग्लिश’ के भयंकर संक्रमण का शिकार हो गई है। हिन्दी को वैज्ञानिक व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में स्थापित करने, रोजगारदायक बनाने, विश्व स्तरीय श्रेष्ठ साहित्य को हिन्दी में उपलब्ध करवाने, साहित्यकारों को मान-सम्मान देने जैसे अनेक हिन्दी समृद्धि के अचूक लक्ष्य निर्धारित किये गये। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए चल रहे सतत संघर्ष के बीच ‘हिंग्लिश’ ने सभी रास्तों को एकदम संकरा और जटिल बना दिया है। अब हिन्दी के समक्ष ‘हिंग्लिश’ सबसे बड़ी विकट चुनौती बनकर खड़ी हो गई है। सरकारी तंत्र से लेकर लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया तक, बॉलीवुड से लेकर गाँव की गलियों तक और आम आदमी से लेकर बुद्धिजीवियों के एक बड़े धड़े तक ‘हिंग्लिश’ का बोलबाला स्थापित हो चुका है। ऐसे में हिन्दी पर ‘हिंग्लिश’ का हमला कितना घातक सिद्ध हो सकता है, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। चुंकि, हिन्दी हिन्द की राष्ट्रभाषा है तो हर हिन्दुस्तानी का यह नैतिक फर्ज बनता है कि वह हिन्दी के हित में अपना समुचित योगदान दे। हिन्दी को सरल तो बनाया जाए, लेकिन हिन्दी के हितों को ताकपर रखकर नहीं। हिन्दी के विद्वान व विदुषियों को आगे बढ़कर ऐसा रास्ता निकालना अथवा सुझाना चाहिए, जिससे ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे।’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं समीक्षक हैं।)