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गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

आम बजट : ढ़ाक के तीन पात !

दो टूक /  
आम बजट : ढ़ाक के तीन पात !  
 -राजेश कश्यप
बहुप्रतिक्षित वर्ष 2013-14 का बजट आ गया। बजट पर राजनीतिकों, समीक्षकों और समाचार विश्लेषकों के बीच तर्क-वितर्कों के तीखे तीर बड़ी तेजी से चल पड़े हैं, जोकि परंपरागत रूप से कई दिनों तक चलेंगे। विपक्ष ने बजट को सिरे से ‘कन्फूज्ड’ कहते हुए  निराशावादी करार दे दिया है और रस्मी रिवाज को अटूट बनाते हुए सत्तापक्ष ने भी बजट को विकासवादी बजट की संज्ञा देकर अपनी पीठ स्वयं थपथपा ली है। आम आदमी ने भी एक बार फिर बजट के बाद अपना सिर पीट लिया है। बजट से किसी भी वर्ग को कोई खुशी नहीं हुई है। सब समस्याएं, चिताएं, चुनौतियों जस की तस हैं और भविष्य में उनके और भी विकट होने की संभावनाएं पूर्ववत बनी हुई हैं। ऐसे समीकरणों के बीच ‘साढ़ हरे न सावन सूखे’ और ‘ढ़ाक के वही तीन पात’ जैसी प्रचलित लोकोक्तियां सहज स्मरण हो रही हैं। स्थितियां और परिस्थितियां तनिक भी बदली नहीं है और बदलने वाली भी नहीं लग रही हैं, ऐसे में बजट का क्या औचित्य रह जाता है? आम आदमी को महंगाई से निजात मिलने की तनिक भी उम्मीदें नहीं हैं। बेरोजगारों के लिए रोजगार की उम्मीदें नदारद हैं। किसानों के चेहरे पर खुशी झलकने कोई अवसर नहीं है। गरीबों, मजदूरों और बेघरों के लिए कोई राहत का समाचार नहीं है। मात्र 20 रूपये पर गुजारा करने वाली आधे से अधिक आबादी की बजट से जुड़ी सभी आकांक्षाएं एक बार फिर धूमिल हो गई हैं। महंगाई की मार की धार और भी तीखी होने के पूरे आसार हैं। पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस आदि को आग लगने वाली है। बजट में आंकड़ों की बाजीगरी आम आदमी के जी का जंजाल बनकर रह गई है।
बजट से पूर्व कयास लगाए जा रहे थे कि संभवतः इस बार चुनावी बजट आएगा और वित्तमंत्री लोक-लुभावनी नीतियों की बौछार कर देंगे। ऐसे में आम आदमी स्वयं को यह सांत्वना देने के लिए तैयार बैठा था कि कम से कम कुछ समय तो कुछ राहतकारी साबित होगा! मंहगाई, गरीबी, बेकारी, बेरोजगारी, कर्ज जैसी विकट समस्याओं से थोड़े समय ही सही, कुछ छुटकारा तो मिलेगा! लेकिन, ऐसा तनिक भी नहीं हुआ। एक बार फिर सीधे-सीधे आम आदमी के हाथ में कई तरह के रंगों में लॉलीपॉप थमा दिए गए हैं। देश में चल रही विभिन्न योजनाओं के मदों में थोड़ा-थोड़ा उतार-चढ़ाव करने के अलावा बजट में और नया क्या है? क्या ‘निर्भया योजना’ और ‘महिला बैंक’ खोलने से देशभर में लुट रही अबलाओं की अस्मत पर रोक लग जाएगी? क्या महिलाओं को पूर्णतः ‘आत्म-निर्भर’ व ‘निर्भया’ बनाया जा सकेगा? किसानों को कौन सी राहत मिलने वाली है? किसानों व खेतीहर मजदूरों की दयनीय दशा पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया? बैंकों से मिलने वाले कर्ज की विसंगतियों और उसके कारण मौत को गले लगाने के लिए किसानों की मजबूरियों पर कोई गंभीरता क्यों नहीं दिखाई दी? किसान सड़क पर अपनी फसलें डालने के लिए विवश नहीं होगा, यह आश्वासन क्यों नहीं मिला? मनरेगा में बाबुओं के भ्रष्टाचार पर पूर्णतः अंकुश लगेगा और पूरा पैसा मजदूरों तक पहुंचेगा, ऐसे प्रावधानों का अभाव क्यों?
राष्ट्रीय शर्म का विषय रही ‘कुपोषण’ की समस्या के अभेद कवच को काटने के लिए कारगर नीतियों का अभाव क्यों? ‘मिड डे मील’ जैसी बहुउद्देशियों योजनाओं का पैसा भ्रष्ट बाबूओं की जेब न भरे, इसके लिए कटिबद्धता क्यों नहीं? हर साल विभिन्न योजनाओं में विभिन्न मदों के अंतर्गत भारी धनराशि का प्रावधान किया जाता है। लेकिन, उनके क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार की दीमक लाईलाल क्यों बनाकर रखी हुई है? जब देश की आधे से अधिक आबादी को दो वक्त का खाना जुटाने की चिंता बनी रहती है, ऐसे में दो से पाँच लाख की आय पर दो हजार की छूट की घोषणा से कितने घरों में खुशी का सबब बनेगी? कितने प्रतिशत लोग पच्चीस लाख तक के पहले घर पर ब्याज में छूट का लाभ उठाने में सक्षम होंगे? ‘खाद्य सुरक्षा बिल’ के नाम पर जो ढ़ोल की अनहद गूंज देशभर में गुंजाई जा रही है, उस पर अनुमानतः एक करोड़ पचास लाख रूपयों की आवश्यकता होगी। जबकि, हालिया बजट मंे इसके लिए केवल दस हजार करोड़ रूपये ही खर्च करने का प्रावधान बनाया गया है। यह तो ऊंट के मुंह में जीरे के समान भी नहीं है तो फिर ऐसी बड़ी घोषणाओं का ढ़कोसला क्यों? वित्तमंत्री ने महिला, युवा और गरीब के चेहरे दिखाई देने की बात कही। ऐसे में क्या बजट को इन तीनों वर्गों की उम्मीदों के अनुरूप कहा जाएगा? क्या इन वर्गों के चेहरों पर खुशी लाने में यह बजट सहायक सिद्ध होगा? इन सवालों का सहज जवाब है, जिसे देने की आवश्यकता नहीं है।
पिछले कुछ सालों से हर आम बजट की सबसे खास बात यह हो गई है कि उसमें कोई खास बात होती ही नहीं होती है। यह चौंकने की बात नहीं, बल्कि वास्तविक हकीकत है। हर बार वही सब औपचारिकताएं पूरी की जाती हैं, जो गतवर्ष की चुकी होती हैं। हर बार सत्ता पक्ष और विपक्ष द्वारा पूरे देश में आम बजट से पहले बड़ा ही अजीबो-गरीब माहौल तैयार किया जाता है। टेलीविजन चैनलों पर दिनरात बड़े-बड़े धुरन्धर विद्वान संभावित बजट की रूपरेखा खींचने लग जाते हैं। एक-दूसरे पर अपनी विद्वता झाड़ने के लिए अक्सर आपे से बाहर हो जाते हैं। राष्ट्रीय समाचार पत्र और पत्रिकाएं आम आदमी से भावी बजट पर प्रतिक्रियाएं मांगकर, उनकीं दुखती रग को दबाने के जन्मसिद्ध अधिकार का इस्तेमाल बखूबी करती दिखाई देती हैं। कुल मिलाकर, देश में ऐसा माहौल तैयार किया जाता है कि मानों सदियों बाद कोई नया नजारा दिखाई देने वाला हो। लेकिन, हकीकत में होता कुछ भी नहीं है। वही सब पुरानी घिसी-पीटी बातें और औपचारिकाताओं का बवंडर! बजट सत्र से पहले ही विपक्ष दल सत्तारूढ़ सरकार को सदन में ऐसे घेरने की धमकी देते हैं, मानों वे इस बार सरकार का बोरिया बिस्तर बांधकर ही दम लेंगे। सत्तारूढ़ सरकार हमेशा की तरह आम बजट को लेकर रहस्यमयी डुगडुगी बजाने लगती है। इस डुगडुगी की आवाज ठीक उस मदारी की तरह होती है, जो बंदरिया को अपने इशारों पर नचाने के लिए जोर-जोर से बजाता है। बंदरिया का मन नाचने का हो या न हो, लेकिन उसे मदारी की डुगडुगी की आवाज पर नाचना ही पड़ता है। बिल्कुल इसी तर्ज पर सत्तारूढ़ सरकार की डुगडुगी की आवाज पर आम आदमी को भी न चाहते हुये नाचना पड़ता है।
आम बजट के प्रति आम आदमी की सभी उम्मीदें टूट चुकी हैं। अब उसके लिए आम बजट निरर्थक हो चुका है। क्योंकि उसे भलीभांति पता है कि बजट के नामपर एक बार फिर सरकार उसकी खाल खींचने वाली है। एक तरह से आम आदमी को सरकार के हाथ में आम बजट यूं दिखाई देता है जैसे निर्दयी कसाई के हाथ में भयंकर कौड़ा। यह सौ फीसदी कड़वा सच है कि आम बजट आम आदमी को दिग्भ्रमित करने का लाजवाब सरकारी जादूई कौड़ा है। यह ऐसा अनूठा जादूई कौड़ा है जो हाड़-मांस को सूरमा बनाकर, आम आदमी की रूह तक कंपा देता है और उसको खुलकर ‘उफ’ तक भी नहीं करने देता। फूटपाथों पर जीवन-निर्वाह करने वाले और झुग्गी-झोंपड़ियों में उम्मीदों की डोर बांधे करोड़ों लोगों के लिए आज तक कोई बजट खुशियां लेकर नहीं आया है। यदि आया है तो सिर्फ छलावा लेकर। भ्रष्ट और बेईमान लोगों को नकेल डालने के लिए किसी भी आम बजट में कोई प्रावधान क्यों नहीं होता है? अरबों-करोड़ों रूपयों के घोटालों और घपलों की अथाह धनराशि और कालेधन की अकूत धन-सम्पदा को आम आदमी की दयनीय हालत को सुधारने की घोषणाएं किसी भी बजट में क्यों नहीं होती हैं? आम बजट से आम आदमी के हित एकदम गौण क्यों होते हैं? बेरोजगारी और बेकारी का नारकीय जीवन जीने वाले करोड़ों लोगों के लिए आज तक कौन सा आम बजट पेश हुआ है? गन्दे नालों, गन्दे स्थानों और चौंक-चौराहों पर कागज बीनकर रोटी का जुगाड़ बनाने वाले और भीख माँगकर बचपन गुजारने वाले भावी कर्णधारों के लिए कब नई उम्मीदें लेकर आयेगा आम बजट? चाहे कोई भी कुछ भी कहे। आम बजट के लिए अब कोई मायने नहीं रह गये हैं। यह सिर्फ औपचारिकता भर रह गया है। सत्ता पक्ष को मनमाना बजट पेश करना है, विपक्ष को हंगामा मचाने की कवायद पूरी करनी है, प्रिन्ट व इलैक्ट्रोनिक मीडिया मेें दो-चार दिन महाबहसों का विषय बनना है और आम आदमी को हमेशा की तरह खून के आँसू रोना है। कहना नहीं होगा कि यदि यह ड्रामेबाजी कुछ समय और चलती रही तो देश में ऐसी विकट और विस्फोटक स्थिति पैदा हो जाएगी, जिसकी कल्पना शायद किसी ने भी नहीं की होगी। विडम्बना का विषय तो यह है कि वर्ष 2013-14 के बजट से भी पुरानी ड्रामेबाजी से कोई सबक नहीं लिया गया है। निःसन्देह यह ड्रामेबाजी निकट भविष्य और भी घातक साबित होने वाली है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक हैं।)   

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

आखिर श्रमिक कब तक सहेगा शोषण ?

आखिर श्रमिक कब तक सहेगा शोषण ?
 -राजेश कश्यप
श्रमिकों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल
श्रमिक संगठनों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल के दौरान श्रमिकों का गुस्सा सरकार और पूंजीपति लोगों के खिलाफ जमकर फूटा। फूटे भी क्यों नहीं? श्रमिकों की कोई सुध लेने वाला नहीं है। हर जगह श्रमिकों का भारी शोषण हो रहा है। गरीबी, भूखमरी, बेकारी, बेरोजगारी और दिनोंदिन आसमान को छूती महंगाई ने श्रमिकों की कमर तोड़कर रख दी है। पूंजीपति लोग श्रमिकों का खून चूसने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। श्रमिकों की बेबसी, लाचारी और नाजुक हालातों का पूंजीपति लोग बड़ी निर्दयता से फायदा उठाते हैं। औद्योगिक इकाईयों में श्रमिकों को मालिकों के हर अत्याचार और शोषण को सहन करने को विवश होना पड़ रहा है। दिनरात कमर तोड़ मेहनत करने के बावजूद उसे दो वक्त की रोटी भी सही ढ़ंग से नसीब नहीं हो पा रही है। श्रमिकों को देशभर में कहीं भी उनकीं मजदूरी का उचित वेतन नहीं मिल रहा है। कई जगह बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों, कारखानों और औद्योगिक इकाईयों में तो श्रमिकों से अधिक वेतन पर हस्ताक्षर करवा लिए जाते हैं और ऐतराज जताने पर उन्हें दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकालकर फेंक दिया जाता है। ऐसे में बेबस श्रमिकों को मालिकों के हाथों आर्थिक और मानसिक शोषण का शिकार होने को विवश होना पड़ता है। श्रमिकों के लिए उनका काम ‘कुत्ते के मुंह में हड्डी’ के समान हो गया है। क्योंकि श्रमिक न तो काम छोड़ सकते हैं और न उस काम की आय से रोजी रोटी सहज चल पाती है। ऐसे में यदि उसके सब्र का बांध टूटता है और वह सड़क पर आकर हंगामा मचाता है तो उसे सवालों के घेरे में क्यों घेरा जाता है? कोई उस बेचारे की बेबसी का अनुमान क्यों नहीं लगा रहा है?
यदि श्रमिकों को उनके श्रम का उचित मूल्य नहीं मिलेगा और उनके हितों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा तो सरकार को विकट स्थिति का सामना करना ही पड़ेगा। यदि एक मजदूर को उसकी उचित मजदूरी न मिले तो क्या सरकार के लिए इससे बढ़कर अन्य कोई शर्मनाक बात होगी? कांग्रेस सरकार की अति महत्वाकांक्षी योजना मनरेगा में भी मजदूरों का जमकर शोषण हो रहा है। भ्रष्टाचारी अधिकारियों और नेताओं ने उनके श्रम की राशि को हड़पने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। मजदूरों का फर्जी पंजीकरण, मृतकों के नाम मनरेगा के लाभार्थियों में दर्शाकर बड़ी राशि का भुगतान, मजदूरों को लंबे समय तक मजदूरी का भूगतान न करने, मजदूरों को बैंक से मनरेगा की राशि निकालकर आधी राशि लौटाने जैसे अनेक ऐसे हथकण्डे देशभर में चल रहे हैं। इसके बावजूद सरकार मनरेगा के नाम पर अपनी पीठ जोर-जोर से थपथपाते हुए थक नहीं रही है।
एक छोटे से छोटे क्लर्क बाबू के यहां भी चालीस-पचास करोड़ रूपये आसानी से मिल जाते हैं। लेकिन, एक आम आदमी के यहां पेटभर खाना भी नहीं है। सांसदों और विधायकों के करोड़ों-अरबों की तो बात ही छोड़िये। देशभर में कई लाख करोड़ रूपये घोटालों और भ्रष्टाचार के अलावा कई लाख करोड़ रूपये काले धन के रूप में जमा हो चुका है। खेती-किसानी करके पेट भरने वाले लोग भूखे मर रहे हैं और निरन्तर बढ़ते कर्ज से परेशान होकर मौत को गले लगाने के लिए विवश हो रहे हैं। खेतीहर मजदूर के पास तो जीने की मूलभूत चीजें रोटी-कपड़ा और मकान आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी नसीब नहीं हो पा रही हैं। एक श्रमिक दिनरात कमरतोड़ मेहनत करने के बावजूद दो वक्त की रोटी और अपने दो बच्चों की शिक्षा का खर्च भी वहन नहीं कर पा रहा है। कमाल की बात तो यह है कि सरकार गरीबी के अजीबो-गरीब आंकड़े देकर बेबस श्रमिकों के जले पर नमक छिड़कने से बाज नहीं आ रही है। सरकार के अनुसार शहरों में 32 रूपये और गाँवों में 26 रूपये खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। दिल्ली सरकार ने ‘अन्नश्री’ योजना लागू करते समय दावा किया कि एक पाँच सदस्यों वाले परिवार के लिए मासिक खर्च 600 रूपये काफी होते हैं। कितनी बड़ी विडम्बना का विषय है कि इन सब परिस्थितियों के बीच देश में योजना आयोग के एक टॉयलेट की मुरम्मत पर पैंतीस लाख तक खर्च कर दिया जाता है और देश की सत्तर फीसदी आबादी मात्र 20 रूपये प्रतिदिन में गुजारा करने को विवश है। ऐसे में एक गरीब आदमी सड़कों पर आकर अपनी बेबसी के आंसू नहीं रोएगा तो और क्या करेगा?
पिछले दिनों देश में व्याप्त भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ वयोवृद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे और योग गुरू बाबा रामदेव ने राष्ट्रव्यापी जन आन्दोलन चलाये। आम आदमी ने इनमें बढ़चढ़कर भाग लिया। जन आन्दोलनों के व्यापक रूख को देखते हुए सरकार ने संकीर्ण सियासत का परिचय देते हुए इन आन्दोलनों को कुचलने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद आदि हर कूटनीतिक हथकण्डा अपनाया। आम आदमी में निरन्तर सरकार की भ्रष्टाचारी नीतियों के खिलाफ आक्रोश बढ़ता चला जा रहा है। सरकार गरीबों की आवाज को निर्दयता से दबाने से कतई बाज नहीं आ रही है। हाल की हिंसक श्रमिक हड़ताल से भी सरकार कोई सार्थक सन्देश लेने का संकेत नहीं दिखा रही है। इससे बढ़कर और विडम्बना की क्या बात होगी कि न्याय पाने के लिए श्रमिक लोग सड़कों पर उतरकर अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए विवश हैं और सरकार श्रमिकों के आन्दोलन को कोई और ही रूप देने की जुगत में लगी हुई है। आखिर श्रमिकों के लिए सड़कों पर उतरने के सिवाय और क्या रास्ता हो सकता है? श्रमिकों ने जब-जब सड़क पर उतरकर सत्ता की भ्रष्ट नीतियों और अत्याचार के खिलाफ संघर्ष किया है, तब-तब उनके हालातों में सुधार हुआ है।
साम्यवाद के जनक कार्ल मार्क्स ने ही मूलतः श्रमिकों को संघर्ष का मूलमंत्र दिया था। इस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से लड़ने एवं अपने अधिकारों को पाने और उनकी सुरक्षा करने के लिए मजदूरों को जागरूक एवं संगठित करने का बहुत बड़ा श्रेय कार्ल मार्क्स को जाता है। कार्ल मार्क्स ने समस्त मजदूर-शक्ति को एक होने एवं अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना सिखाया था। कार्ल मार्क्स ने जो भी सिद्धान्त बनाए, सब पूंजीवादी अर्थव्यस्था का विरोध करने एवं मजदूरों की दशा सुधारने के लिए बनाए थे। कार्ल मार्क्स का पहला उद्देश्य श्रमिकों के शोषण, उनके उत्पीड़न तथा उन पर होने वाले अत्याचारों का कड़ा विरोध करना था। कार्ल मार्क्स का दूसरा मुख्य उद्देश्य श्रमिकों की एकता तथा संगठन का निर्माण करना था। उनका यह उद्देश्य भी बखूबी फलीभूत हुआ और सभी देशों में श्रमिकों एवं किसानों के अपने संगठन निर्मित हुए। ये सब संगठन कार्ल मार्क्स के नारे, ‘‘दुनिया के श्रमिकों एक हो जाओ’’ ने ही बनाए। इस नारे के साथ कार्ल मार्क्स मजदूरों को ललकारते हुए कहते थे कि ‘‘एक होने पर तुम्हारी कोई हानि नहीं होगी, उलटे, तुम दासता की जंजीरों से मुक्त हो जाओगे’’। कार्ल मार्क्स चाहते थे कि ऐसी सामाजिक व्यवस्था स्थापित हो, जिसमें लोगों को आर्थिक समानता का अधिकार हो और जिसमें उन्हें सामाजिक न्याय मिले। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को कार्ल मार्क्स समाज व श्रमिक दोनों के लिए अभिशाप मानते थे। वे तो हिंसा का सहारा लेकर पूंजीवाद के विरूद्ध लड़ने का भी समर्थन करते थे। इस संघर्ष के दौरान उनकीं प्रमुख चेतावनी होती थी कि वे पूंजीवाद के विरूद्ध डटकर लड़ें, लेकिन आपस में निजी स्वार्थपूर्ति के लिए कदापि नहीं।
कार्ल मार्क्स ने मजदूरों को अपनी हालत सुधारने का जो सूत्र ‘संगठित बनो व अधिकारों के लिए संघर्ष करो’ दिया था, वह आज के दौर में भी उतना ही प्रासंगिक बना हुआ है। लेकिन, बड़ी विडम्बना का विषय है कि यह नारा आज ऐसे कुचक्र में फंसा हुआ है, जिसमें संगठन के नाम पर निजी स्वार्थ की रोटियां सेंकी जाती हैं और अधिकारों के संघर्ष का सौदा किया जाता है। मजदूर लोग अपनी रोजी-रोटी को दांव पर लगाकर एकता का प्रदर्शन करते हैं और हड़ताल करके सड़कों पर उतर आते हैं, लेकिन, संगठनों के नेता निजी स्वार्थपूर्ति के चलते राजनेताओं व पूंजीपतियों के हाथों अपना दीन-ईमान बेच देते हैं। परिणामस्वरूप आम मजदूरों के अधिकारों का सुरक्षा कवच आसानी से छिन्न-भिन्न हो जाता है। वास्तविक हकीकत तो यह है कि आजकल हालात यहां तक आ पहुंचे हैं कि मजदूर वर्ग मालिक (पूंजीपति वर्ग) व सरकार के रहमोकर्म पर निर्भर हो चुका है। बेहतर तो यही होगा कि पूंजीपति लोग व सरकार स्वयं ही मजदूरों के हितों का ख्याल रखें, वरना कार्ल मार्क्स के एक अन्य सिद्धान्त के अनुसार, ‘‘एक समय ऐसा जरूर आता है, जब मजदूर वर्ग एकाएक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एवं प्रवृत्ति वालों के लिए विनाशक शक्ति बन जाता है।’’
कुल मिलाकर, श्रमिक अपने अधिकारों के लिए एक बार फिर एकजूट होकर सड़क पर संघर्ष कर रहे हैं और हड़ताल के जरिए सत्ता की भ्रष्ट नीतियों के खिलाफ हल्ला बोलने को विवश हैं। इन श्रमिकों की माँगों पर सरकार द्वारा गहन विचार-मंथन करना चाहिये। श्रमिकों के संघर्ष को लाठी के बल पर कुचलने अथवा मात्र दो दिन की हड़ताल समझकर उनके संघर्ष को नजरअन्दाज करने की नापाक कोशिश नहीं करनी चाहिये। यदि इस आक्रोश पर सरकार द्वारा आवश्यक सकारात्मक कदम नहीं उठाये गये तो निश्चित तौरपर श्रमिकों का यह आक्रोश निकट भविष्य में अत्यन्त भयंकर रूप ले सकता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि अब श्रमिक के सब्र का बांध टूटने की कगार पर है और सरकार को श्रमिकों के सब्र का और अधिक इम्तिहान लेने का खतरा नहीं उठाना चाहिये। सरकार को तत्काल श्रमिकों की सुध लेनी चाहिए और उनके हितों पर समुचित गौर करना चाहिए।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक हैं।)   



(लेखक परिचय: हिन्दी और पत्रकारिता एवं जनसंचार में द्वय स्नातकोत्तर। दो दशक से सक्रिय समाजसेवा व स्वतंत्र लेखन जारी। प्रतिष्ठित राष्ट्रीय समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में दो हजार से अधिक लेख एवं समीक्षाएं प्रकाशित। आधा दर्जन पुस्तकें प्रकाशित। दर्जनों वार्ताएं, परिसंवाद, बातचीत, नाटक एवं नाटिकाएं आकाशवाणी रोहतक केन्द्र से प्रसारित। कई विशिष्ट सम्मान एवं पुरस्कार हासिल।)