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गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

आखिर श्रमिक कब तक सहेगा शोषण ?

आखिर श्रमिक कब तक सहेगा शोषण ?
 -राजेश कश्यप
श्रमिकों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल
श्रमिक संगठनों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल के दौरान श्रमिकों का गुस्सा सरकार और पूंजीपति लोगों के खिलाफ जमकर फूटा। फूटे भी क्यों नहीं? श्रमिकों की कोई सुध लेने वाला नहीं है। हर जगह श्रमिकों का भारी शोषण हो रहा है। गरीबी, भूखमरी, बेकारी, बेरोजगारी और दिनोंदिन आसमान को छूती महंगाई ने श्रमिकों की कमर तोड़कर रख दी है। पूंजीपति लोग श्रमिकों का खून चूसने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। श्रमिकों की बेबसी, लाचारी और नाजुक हालातों का पूंजीपति लोग बड़ी निर्दयता से फायदा उठाते हैं। औद्योगिक इकाईयों में श्रमिकों को मालिकों के हर अत्याचार और शोषण को सहन करने को विवश होना पड़ रहा है। दिनरात कमर तोड़ मेहनत करने के बावजूद उसे दो वक्त की रोटी भी सही ढ़ंग से नसीब नहीं हो पा रही है। श्रमिकों को देशभर में कहीं भी उनकीं मजदूरी का उचित वेतन नहीं मिल रहा है। कई जगह बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों, कारखानों और औद्योगिक इकाईयों में तो श्रमिकों से अधिक वेतन पर हस्ताक्षर करवा लिए जाते हैं और ऐतराज जताने पर उन्हें दूध में पड़ी मक्खी की तरह बाहर निकालकर फेंक दिया जाता है। ऐसे में बेबस श्रमिकों को मालिकों के हाथों आर्थिक और मानसिक शोषण का शिकार होने को विवश होना पड़ता है। श्रमिकों के लिए उनका काम ‘कुत्ते के मुंह में हड्डी’ के समान हो गया है। क्योंकि श्रमिक न तो काम छोड़ सकते हैं और न उस काम की आय से रोजी रोटी सहज चल पाती है। ऐसे में यदि उसके सब्र का बांध टूटता है और वह सड़क पर आकर हंगामा मचाता है तो उसे सवालों के घेरे में क्यों घेरा जाता है? कोई उस बेचारे की बेबसी का अनुमान क्यों नहीं लगा रहा है?
यदि श्रमिकों को उनके श्रम का उचित मूल्य नहीं मिलेगा और उनके हितों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा तो सरकार को विकट स्थिति का सामना करना ही पड़ेगा। यदि एक मजदूर को उसकी उचित मजदूरी न मिले तो क्या सरकार के लिए इससे बढ़कर अन्य कोई शर्मनाक बात होगी? कांग्रेस सरकार की अति महत्वाकांक्षी योजना मनरेगा में भी मजदूरों का जमकर शोषण हो रहा है। भ्रष्टाचारी अधिकारियों और नेताओं ने उनके श्रम की राशि को हड़पने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। मजदूरों का फर्जी पंजीकरण, मृतकों के नाम मनरेगा के लाभार्थियों में दर्शाकर बड़ी राशि का भुगतान, मजदूरों को लंबे समय तक मजदूरी का भूगतान न करने, मजदूरों को बैंक से मनरेगा की राशि निकालकर आधी राशि लौटाने जैसे अनेक ऐसे हथकण्डे देशभर में चल रहे हैं। इसके बावजूद सरकार मनरेगा के नाम पर अपनी पीठ जोर-जोर से थपथपाते हुए थक नहीं रही है।
एक छोटे से छोटे क्लर्क बाबू के यहां भी चालीस-पचास करोड़ रूपये आसानी से मिल जाते हैं। लेकिन, एक आम आदमी के यहां पेटभर खाना भी नहीं है। सांसदों और विधायकों के करोड़ों-अरबों की तो बात ही छोड़िये। देशभर में कई लाख करोड़ रूपये घोटालों और भ्रष्टाचार के अलावा कई लाख करोड़ रूपये काले धन के रूप में जमा हो चुका है। खेती-किसानी करके पेट भरने वाले लोग भूखे मर रहे हैं और निरन्तर बढ़ते कर्ज से परेशान होकर मौत को गले लगाने के लिए विवश हो रहे हैं। खेतीहर मजदूर के पास तो जीने की मूलभूत चीजें रोटी-कपड़ा और मकान आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी नसीब नहीं हो पा रही हैं। एक श्रमिक दिनरात कमरतोड़ मेहनत करने के बावजूद दो वक्त की रोटी और अपने दो बच्चों की शिक्षा का खर्च भी वहन नहीं कर पा रहा है। कमाल की बात तो यह है कि सरकार गरीबी के अजीबो-गरीब आंकड़े देकर बेबस श्रमिकों के जले पर नमक छिड़कने से बाज नहीं आ रही है। सरकार के अनुसार शहरों में 32 रूपये और गाँवों में 26 रूपये खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। दिल्ली सरकार ने ‘अन्नश्री’ योजना लागू करते समय दावा किया कि एक पाँच सदस्यों वाले परिवार के लिए मासिक खर्च 600 रूपये काफी होते हैं। कितनी बड़ी विडम्बना का विषय है कि इन सब परिस्थितियों के बीच देश में योजना आयोग के एक टॉयलेट की मुरम्मत पर पैंतीस लाख तक खर्च कर दिया जाता है और देश की सत्तर फीसदी आबादी मात्र 20 रूपये प्रतिदिन में गुजारा करने को विवश है। ऐसे में एक गरीब आदमी सड़कों पर आकर अपनी बेबसी के आंसू नहीं रोएगा तो और क्या करेगा?
पिछले दिनों देश में व्याप्त भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ वयोवृद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे और योग गुरू बाबा रामदेव ने राष्ट्रव्यापी जन आन्दोलन चलाये। आम आदमी ने इनमें बढ़चढ़कर भाग लिया। जन आन्दोलनों के व्यापक रूख को देखते हुए सरकार ने संकीर्ण सियासत का परिचय देते हुए इन आन्दोलनों को कुचलने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद आदि हर कूटनीतिक हथकण्डा अपनाया। आम आदमी में निरन्तर सरकार की भ्रष्टाचारी नीतियों के खिलाफ आक्रोश बढ़ता चला जा रहा है। सरकार गरीबों की आवाज को निर्दयता से दबाने से कतई बाज नहीं आ रही है। हाल की हिंसक श्रमिक हड़ताल से भी सरकार कोई सार्थक सन्देश लेने का संकेत नहीं दिखा रही है। इससे बढ़कर और विडम्बना की क्या बात होगी कि न्याय पाने के लिए श्रमिक लोग सड़कों पर उतरकर अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए विवश हैं और सरकार श्रमिकों के आन्दोलन को कोई और ही रूप देने की जुगत में लगी हुई है। आखिर श्रमिकों के लिए सड़कों पर उतरने के सिवाय और क्या रास्ता हो सकता है? श्रमिकों ने जब-जब सड़क पर उतरकर सत्ता की भ्रष्ट नीतियों और अत्याचार के खिलाफ संघर्ष किया है, तब-तब उनके हालातों में सुधार हुआ है।
साम्यवाद के जनक कार्ल मार्क्स ने ही मूलतः श्रमिकों को संघर्ष का मूलमंत्र दिया था। इस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से लड़ने एवं अपने अधिकारों को पाने और उनकी सुरक्षा करने के लिए मजदूरों को जागरूक एवं संगठित करने का बहुत बड़ा श्रेय कार्ल मार्क्स को जाता है। कार्ल मार्क्स ने समस्त मजदूर-शक्ति को एक होने एवं अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना सिखाया था। कार्ल मार्क्स ने जो भी सिद्धान्त बनाए, सब पूंजीवादी अर्थव्यस्था का विरोध करने एवं मजदूरों की दशा सुधारने के लिए बनाए थे। कार्ल मार्क्स का पहला उद्देश्य श्रमिकों के शोषण, उनके उत्पीड़न तथा उन पर होने वाले अत्याचारों का कड़ा विरोध करना था। कार्ल मार्क्स का दूसरा मुख्य उद्देश्य श्रमिकों की एकता तथा संगठन का निर्माण करना था। उनका यह उद्देश्य भी बखूबी फलीभूत हुआ और सभी देशों में श्रमिकों एवं किसानों के अपने संगठन निर्मित हुए। ये सब संगठन कार्ल मार्क्स के नारे, ‘‘दुनिया के श्रमिकों एक हो जाओ’’ ने ही बनाए। इस नारे के साथ कार्ल मार्क्स मजदूरों को ललकारते हुए कहते थे कि ‘‘एक होने पर तुम्हारी कोई हानि नहीं होगी, उलटे, तुम दासता की जंजीरों से मुक्त हो जाओगे’’। कार्ल मार्क्स चाहते थे कि ऐसी सामाजिक व्यवस्था स्थापित हो, जिसमें लोगों को आर्थिक समानता का अधिकार हो और जिसमें उन्हें सामाजिक न्याय मिले। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को कार्ल मार्क्स समाज व श्रमिक दोनों के लिए अभिशाप मानते थे। वे तो हिंसा का सहारा लेकर पूंजीवाद के विरूद्ध लड़ने का भी समर्थन करते थे। इस संघर्ष के दौरान उनकीं प्रमुख चेतावनी होती थी कि वे पूंजीवाद के विरूद्ध डटकर लड़ें, लेकिन आपस में निजी स्वार्थपूर्ति के लिए कदापि नहीं।
कार्ल मार्क्स ने मजदूरों को अपनी हालत सुधारने का जो सूत्र ‘संगठित बनो व अधिकारों के लिए संघर्ष करो’ दिया था, वह आज के दौर में भी उतना ही प्रासंगिक बना हुआ है। लेकिन, बड़ी विडम्बना का विषय है कि यह नारा आज ऐसे कुचक्र में फंसा हुआ है, जिसमें संगठन के नाम पर निजी स्वार्थ की रोटियां सेंकी जाती हैं और अधिकारों के संघर्ष का सौदा किया जाता है। मजदूर लोग अपनी रोजी-रोटी को दांव पर लगाकर एकता का प्रदर्शन करते हैं और हड़ताल करके सड़कों पर उतर आते हैं, लेकिन, संगठनों के नेता निजी स्वार्थपूर्ति के चलते राजनेताओं व पूंजीपतियों के हाथों अपना दीन-ईमान बेच देते हैं। परिणामस्वरूप आम मजदूरों के अधिकारों का सुरक्षा कवच आसानी से छिन्न-भिन्न हो जाता है। वास्तविक हकीकत तो यह है कि आजकल हालात यहां तक आ पहुंचे हैं कि मजदूर वर्ग मालिक (पूंजीपति वर्ग) व सरकार के रहमोकर्म पर निर्भर हो चुका है। बेहतर तो यही होगा कि पूंजीपति लोग व सरकार स्वयं ही मजदूरों के हितों का ख्याल रखें, वरना कार्ल मार्क्स के एक अन्य सिद्धान्त के अनुसार, ‘‘एक समय ऐसा जरूर आता है, जब मजदूर वर्ग एकाएक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एवं प्रवृत्ति वालों के लिए विनाशक शक्ति बन जाता है।’’
कुल मिलाकर, श्रमिक अपने अधिकारों के लिए एक बार फिर एकजूट होकर सड़क पर संघर्ष कर रहे हैं और हड़ताल के जरिए सत्ता की भ्रष्ट नीतियों के खिलाफ हल्ला बोलने को विवश हैं। इन श्रमिकों की माँगों पर सरकार द्वारा गहन विचार-मंथन करना चाहिये। श्रमिकों के संघर्ष को लाठी के बल पर कुचलने अथवा मात्र दो दिन की हड़ताल समझकर उनके संघर्ष को नजरअन्दाज करने की नापाक कोशिश नहीं करनी चाहिये। यदि इस आक्रोश पर सरकार द्वारा आवश्यक सकारात्मक कदम नहीं उठाये गये तो निश्चित तौरपर श्रमिकों का यह आक्रोश निकट भविष्य में अत्यन्त भयंकर रूप ले सकता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि अब श्रमिक के सब्र का बांध टूटने की कगार पर है और सरकार को श्रमिकों के सब्र का और अधिक इम्तिहान लेने का खतरा नहीं उठाना चाहिये। सरकार को तत्काल श्रमिकों की सुध लेनी चाहिए और उनके हितों पर समुचित गौर करना चाहिए।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक हैं।)   



(लेखक परिचय: हिन्दी और पत्रकारिता एवं जनसंचार में द्वय स्नातकोत्तर। दो दशक से सक्रिय समाजसेवा व स्वतंत्र लेखन जारी। प्रतिष्ठित राष्ट्रीय समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में दो हजार से अधिक लेख एवं समीक्षाएं प्रकाशित। आधा दर्जन पुस्तकें प्रकाशित। दर्जनों वार्ताएं, परिसंवाद, बातचीत, नाटक एवं नाटिकाएं आकाशवाणी रोहतक केन्द्र से प्रसारित। कई विशिष्ट सम्मान एवं पुरस्कार हासिल।)

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