हम
स्वतंत्रता के साढ़े छह दशक पार कर चुके हैं। यह स्वतंत्रता महात्मा गांधी,
सरदार भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरू, सुखदेव, राम प्रसाद बिस्मिल,
लाला लाजपतराय, उधम सिंह, खुदीराम बोस, बाल गंगाधर तिलक आदि न जाने कितने
ही जाने-अनजाने
देशभक्त क्रांतिकारियों की अनंत शहादतों, त्याग एवं
कुर्बानियों का प्रतिफल है। हम कभी आजीवन उनके ऋणी रहेंगे। वे हमें एक आजाद
वतन विरासत में देकर गए हैं। कहना न होगा कि हमारा मूल नैतिक दायित्व बनता
है कि हम इस देश की स्वतंत्रता, एकता, अखण्डता एवं उसकी अस्मिता को
अक्षुण्ण बनायें रखें और इस देश को वो गरिमा और आभा प्रदान करें, जो कभी
हमारे शहीद देशभक्तों एवं स्वतंत्रता सेनानी स्वप्न रखते थे। स्वतंत्रता के
इन 66 वर्षों में हम अपने शहीदों के स्वप्नों पर कितना खरा उतर पाये हैं,
क्या कभी हमने सोचा है? जो स्वप्न हमारे शहीदों और क्रांतिकारियों ने फांसी
के फंदों पर झूलते समय या काले पानी की सजा को झेलते समय या फिर क्रूर
अंग्रेजों के दमन चक्र में पिसते हुए देखा था, क्या उस स्वप्न को साकार कर
दिखाया है? इसमें कोई दो राय नहीं है कि सवाल जितना सहज है, जवाब उतना ही
असहज! ऐसा क्यों? स्पष्ट है कि हम अपने शहीदों और क्रांतिकारियों के स्वप्न
को साढ़े छह दशक बाद भी पूरा नहीं कर पाये हैं। जी हाँ यही कटू सत्य है और
यही सबसे बड़ी विडम्बना।
यदि हम स्वतंत्रता के गत साढ़े छह दशकों का
ईमानदारी से मूल्यांकन करें तो खुशी कम और गम अधिक नजर आता है। देश की
गौरवमयी उपलब्धियों पर वर्तमान विकट चुनौतियां हावी नजर आती हैं। बेहद
विडम्बना का विषय है कि आज हमारे देश के समक्ष राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक,
शैक्षणिक आदि लगभग हर महत्वपूर्ण क्षेत्र में विकट एवं विषम चुनौतियां खड़ी
हो चुकी हैं और धीरे-धीरे यह नासूर बनती चली जा रही हैं। राजनीतिकों के
घपलों, घोटालों और भ्रष्टाचार की अनंत प्रवृत्तियों ने देश को रसातल में
पहुंचाने का काम किया है। स्वतंत्रता के इन साढ़े छह दशकों में कई लाख करोड़
के घोटालों को अंजाम दिया है और कई हजार करोड़ रूपया विदेशों में काले धन को
जमा किया है। इन्हीं सबके चलते देश पर दिसम्बर, 2012 तक 22.57 लाख करोड़
रूपये विदेशी कर्ज का बोझ बढ़ चुका है और रूपया डॉलर के मुकाबले रिकार्ड़
सबसे निम्न स्तर पर पहुंच चुका है। उल्लेखनीय है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के
समय एक रूपये की कीमत एक डॉलर के बराबर थी। लेकिन, स्वतंत्रता के 66
वर्षों के बाद एक रूपये की कीमत डॉलर के मुकाबले 6000 प्रतिशत से भी नीचे
गिरकर 61 रूपये से भी अधिक रिकार्ड़ निम्न स्तर तक पहुंच चुकी है। गरीबी,
भूखमरी, बेकारी, बेरोजगारी और मंहगाई का ग्राफ आसमान को छू रहा है।
राजनीतिकों की धर्म, जाति, मजहब और क्षेत्रवाद की राजनीति ने देश के
सामाजिक तंत्र को जर्जर बनाने का काम किया है।
देश की गरिमापूर्ण संसद
और विधानसभाओं में जनप्रतिनिधि के मुखौटे पहनकर अपराधियों ने भारी घूसपैठ
कर चुके हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्मस (एडीआर) की रिपोर्ट के
अनुसार देश में पिछले 10 साल के दौरान संसद और विधानसभाओं का चुनाव लड़ने
वाले 62847 उम्मीदवारों में से 11063 ‘अपराधी’ जनप्रतिनिधि बनने में कामयाब
हुए हैं। इन 11063 अपराधी उम्मीदवारों में से 5233 के खिलाफ तो बेहद गंभीर
अपराधिक मामले दर्ज हैं। एडीआर के अनुसार देश की लोकसभा के 30 प्रतिशत
अर्थात् 543 सांसदों में से 162 सांसदों के खिलाफ अपराधिक मामले दर्ज हैं।
इसी तरह राज्यसभा के 232 सांसदों मेंसे 40 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज
हैं। इनमें से सोलह के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं, जोकि इनके सदस्य
संख्या का 18 फीसदी बनता है। निश्चित तौरपर ये आंकड़े भारतीय अस्मिता और
सम्मान की प्रतीक संसद पर बेहद बदनुमा काले दागों के समान हैं। जिस देश की
सर्वोच्च संस्था में ‘जनप्रतिनिधियों’ के लिबास में आपराधिक छवि के बड़ी
संख्या में बैठे हैं, भला उससे बढ़कर देश के लिए और अन्य विडम्बना क्या हो
सकती है? केवल देश की सर्वोच्च संस्था संसद में ही नहीं, राज्यों की
विधानसभाओं में भी आपराधिक छवि वाले नेताओं की भरमार है। एडीआर की रिपोर्ट
के अनुसार देश के वर्तमान 4032 विधायकों में से 1258 विधायकों ने अपने
हलफनामों में स्वयं पर आपराधिक मामले दर्ज होना स्वीकार किया है। कितनी बड़ी
विडम्बना है कि हमारे देश के 31 प्रतिशत विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले
दर्ज हैं और इनमें से 15 फीसदी विधायकों पर तो अत्यन्त गम्भीर किस्म के
आपराधिक मामले दर्ज हैं। गजब की बात तो यह है कि देश के शीर्ष राजनीतिक
दलों में भी अपराधिक छवि वाले नेताओं की भरमार है।
सरकार का कहना है कि
अब मात्र 22 फीसदी लोग ही गरीब रह गये हैं। जबकि सच्चाई इसके कोसों दूर है।
सरकार द्वारा एन.सी.सक्सेना की अध्यक्षता में गठित एक विशेषज्ञ समूह ने
2400 कैलोरी के पुराने मापदण्ड के आधार पर बताया था कि देश में बीपीएल की
आबादी 80 प्रतिशत तक पहुंच सकती है। विश्व बैंक के अनुसार भारत में वर्ष
2005 में 41.6 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे थे। एशियाई विकास बैंक के
अनुसार यह आंकड़ा 62.2 प्रतिशत बनता है। वैश्विक सर्वेक्षण रिपोर्ट के
अनुसार भारत में अतिरिक्त अनाज होने के बावजूद 25 प्रतिशत लोग अब भी भूखे
हैं। अंतर्राष्ट्रीय अन्न नीति अनुसंधान संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार भारत
79 देशों में भूख और कुपोषण के मामले में 65वें स्थान पर है। इसके साथ ही
भारत में 43 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, जिसे देखते हुए भारत का
रैंक नाईजर, नेपाल, इथोपिया और बांग्लादेश से भी नीचे है।
विश्व
स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार 70 प्रतिशत भारतीय महिलाएं खून की
कमी का शिकार हैं और देशभर के पिछड़े इलाकों व झुग्गी-झांेपड़ियों में रहने
वाली लगभग 60 प्रतिशत महिलाएं तथा लड़कियां गंभीर रूप से खून की कमी का
शिकार हैं। युनीसेफ द्वारा तैयार रिपोर्ट के अनुसार कुपोषण की वजह से
वैश्विक स्तर पर 5 वर्ष तक के 48 प्रतिशत भारतीय बच्चे बड़े पैमाने पर
ठिगनेपन का शिकार हुए हैं। इसका मतलब दुनिया में कुपोषण की वजह से ठिगना
रहने वाला हर दूसरा बच्चा भारतीय है। वैश्विक खाद्य सुरक्षा सूचकांक
(जीएफएसटी) के मुताबिक भारत में 22 करोड़ 46 लाख लोग कुपोषण का शिकार हैं।
भारत की 68.5 प्रतिशत आबादी वैश्विक गरीबी रेखा के नीचे रहती है। भारत में
करीब 20 प्रतिशत लोगों को अपने भोजन से रोजाना औसत न्यूनतम आवश्यकता से कम
कैलोरी मिलती है। इस रिपोर्ट में भारतको 105 देशों की सूची में 66वें
पायदान पर रखा गया है। इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक
आयोग की रिपोर्ट कहती है कि खाद्यान्न की मंहगाई की वजह से भारत में वर्ष
2010-11 के दौरान 80 लाख लोग गरीबी की रेखा से बाहर नहीं निकल पाये।
गरीबी
के दंश की मार को महसूस करने के लिए बेरोजगारी और बेकारी के आंकड़ों को
नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। कहना न होगा कि बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार के
कारण देश में बेरोजगारी व बेकारी का ग्राफ बड़ी तेजी से बढ़ा है।
आवश्यकतानुसार न तो रोजगारों का सृजन हुआ और न ही रोजगार के स्तर को स्थिर
बनाये रखने में कामयाब रह सके। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय के ताजा
आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2009-10 में सामान्य स्थिति आधार पर बेरोजगार एवं
अर्द्धबेरोजगार लोगों की संख्या क्रमशः 95 लाख और लगभग 6 करोड़ थी। इस
कार्यालय के अनुसार जून, 2010 से जून, 2012 के बीच बेरोजगारी में बेहद
वृद्धि हुई है। इन दो सालों में देश में पूर्ण बेरोजगारों की संख्या 1.08
करोड़ थी, जबकि दो साल पहले यह आंकड़ा 98 लाख था। दूसरी तरफ, योजना आयोग के
आंकड़े बताते हैं कि देश में कुल 3.60 करोड़ पूर्ण बेरोजगार हैं। इसके अलावा,
यदि अन्य संस्थाओं और संगठनों के आंकड़ों पर नजर डालें तो यह पूर्ण
बेरोजगारों की संख्या 5 करोड़ के पार पहुंच जाती है। एसोचैम सर्वेक्षण कहता
है कि देशभर में पिछले साल की तुलना में 14.1 प्रतिशत नौकरियां कम हो गई
हैं।
गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी और बेकारी के कारण स्वतंत्रता के साढ़े
छह दशक बाद भी बड़ी संख्या में लोग रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी
जरूरतों से वंचित हैं। आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय का अनुमान है
कि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार वर्ष 2012 में करीब 1.87 करोड़ घरों की
कमी है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी एक संबोधन के दौरान गरीबों की
दयनीय हालत को आंकड़ों की जुबानी बता चुके हैं कि देश की करीब 25 प्रतिशत
शहरी आबादी मलिन और अवैध बस्तियों में रहती है। पेयजल एवं स्वच्छता
राज्यमंत्री संसद में लिखित रूप मंे यह स्वीकार कर चुके हैं कि वर्ष 2011
की जनगणना के अनुसार देश में 16.78 करोड़ ग्रामीण परिवारों में से 5.15 करोड़
परिवारों के पास ही शौचालय की सुविधा है और शेष 11.29 प्रतिशत परिवार आज
भी शौचालय न होने की वजह से खुले में शौच जाने को विवश हैं। विश्व
स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन कम से कम 120 लीटर पानी
मिलना चाहिए। लेकिन, देश की राजधानी दिल्ली में ही 80 प्रतिशत लोगों को
औसतन सिर्फ 20 लीटर पानी ही बड़ी मुश्किल से नसीब हो पाता है। नैशनल क्राइम
रेकार्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक गरीबी और कर्ज के चलते देश में प्रतिदिन
46 किसान आत्महत्या करते हैं।
सबसे बड़ी चिंता का विषय तो यह है कि देश
की आन्तरिक एवं बाह्य सुरक्षा भी खतरे में है और हमारे राजनीतिक संकीर्ण
एवं गैर-जिम्मेदारीना राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे हैं। देश में
आतंकवादी घटनाएं जब-तब घटती रहती हैं और सत्तारूढ़ सरकारें आतंकवाद पर काबू
पाने के लिए कभी पोटा लागू करके हटाती हैं तो कभी एनसीटीसी (राष्ट्रीय आतंक
रोधी केंन्द्र) के मुद्दे पर नूराकुश्ती को अंजाम देती हैं। इसके साथ ही
अब तो आंतरिक सुरक्षा के साथ-साथ बाहरी सुरक्षा पर भी प्रश्नचिन्ह खड़े होने
लगे हैं। देश की सरहदें भी खतरे में पड़ने लगी हैं। कभी चीन देश की सीमाओं
में घुसकर अपने तंबू गाड़ लेता है तो कभी पाकिस्तान की सेना बहुरूपिया बनकर
हमारे जवानों का सिर काट ले जाती है। कभी बांग्लादेश से घूसपैठ बढ़ती है तो
कभी श्रीलंका से वैचारिक तीखे मतभेद उभरकर सामने आते हैं। कहने का अभिप्राय
आज देश अपने पड़ौसी देशों के कूटनीतियों और षड़यंत्रों के चक्रव्यूह में
निरन्तर फंसता चला जा रहा है। सबसे घातक बात तो यह है कि हमारे राजनेताओं
ने अपने उत्तरदायित्वों, नैतिकताओं और जिम्मेदारियों को तिलांजलि देते हुए
सेना के जवानों की शहादतों पर भी शर्मनाक बयान देने शुरू कर दिये हैं। ये
सब समीकरण देश की गरिमा और शान के नित्तांत खिलाफ हैं और भविष्य में बेहद
घातक परिणाम लाने वाले हैं। निःसंदेह ऐसे वतन की कल्पना तो हमारे देशभक्त
शहीदों, क्रांतिकारियों और बलिदानियों ने कदापि नहीं की होगी। निश्चित
तौरपर यह सब, हम 125 करोड़ लोगों के लिए बेहद शर्म और धिक्कार का विषय है।
(लेखक राजेश स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक हैं।) स्थायी सम्पर्क सूत्र:राजेश कश्यप
स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक
म.नं. 1229, पाना नं. 8, नजदीक शिव मन्दिर,
गाँव टिटौली, जिला. रोहतक
हरियाणा-124005
मोबाईल. नं. 09416629889
e-mail :
rajeshtitoli@gmail.com(लेखक
परिचय: हिन्दी और पत्रकारिता एवं जनसंचार में द्वय स्नातकोत्तर। दो दशक से
सक्रिय समाजसेवा व स्वतंत्र लेखन जारी। प्रतिष्ठित राष्ट्रीय समाचार
पत्रों एवं पत्रिकाओं में दो हजार से अधिक लेख एवं समीक्षाएं प्रकाशित। आधा
दर्जन पुस्तकें प्रकाशित। दर्जनों वार्ताएं, परिसंवाद, बातचीत, नाटक एवं
नाटिकाएं आकाशवाणी रोहतक केन्द्र से प्रसारित। कई विशिष्ट सम्मान एवं
पुरस्कार हासिल।)