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मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

समीक्षा/दिल्ली विधानसभा चुनाव / ये 'जुमलों' पर 'जुनून' की जीत है!

समीक्षा/दिल्ली विधानसभा चुनाव

 ये 'जुमलों' पर 'जुनून' की जीत है!
-राजेश कश्यप
       दिल्ली विधानसभा के चुनावी परिणाम...अद्भूत और अप्रत्याशित। देश के चुनावी इतिहास का उल्लेखनीय अध्याय के रूप में दर्ज हो गया है। बड़े-बड़े दिग्गज, चुनावी विश्लेषक और राजनीति के धुरंधर दिल्ली की जनता का यह मिजाज नहीं भांप पाये। दिल्ली विधानसभा चुनावों के परिणाम ने स्पष्ट कर दिया कि अब 'जुमलों' की राजनीति देश में नहीं चलने वाली है। अब जनता-जनार्दन जागरूक हो चुकी है। जनता की यह जागरूकता भविष्य की राजनीति और राजनीति के भविष्य को स्पष्ट जाहिर कर रही है। दिल्ली विधानसभा चुनावों पर सिर्फ देश ही नहीं पूरी दुनिया की नजरें टिकीं हुईं थीं। शायद ही किसी ने ऐसे चुनाव परिणाम की कल्पना की होगी। मोदी लहर पर सवार भाजपा 'साम-दाम-दण्ड-भेद' आदि हर नीति अपनाने के बावजूद नेता विपक्ष के पद को भी तरस जाए और दहाई का अंक हासिल करने में भी नाकाम हो जाए, ऐसा भाजपा ने तो क्या 'आम आदमी पार्टी' ने भी उम्मीद नहीं की होगी। दिल्ली में कांग्रेस का खाता ही नहीं खुला। ऐसा संभावित था, क्योंकि कांग्रेस के कुशासन और भ्रष्टाचार की परिणती ने ही 'मोदी लहर' को जन्म दिया था। जनता की स्मरण शक्ति इतनी क्षीण नहीं हुई है कि वह इतनी जल्दी कांग्रेस के काले कारनामों को विस्मृत कर दे।
       दिल्ली विधानसभा के चुनावी परिणाम प्रत्येक राजनीतिक दल के लिए कड़ा सबक हैं। सभी लोगों के लिए आत्म-चिंतन करने का विषय है। इसके साथ ही सबसे बड़ा यक्ष प्रश्र है कि दिल्ली के इन अप्रत्याशित परिणामों का क्या अभिप्राय है? क्या इसे मोदी की हार माना जाना चाहिए? क्योंकि, कोई माने या न माने, दिल्ली के चुनाव मोदी बनाम केजरीवाल के तौरपर लड़ा गया है। क्या दिल्ली की हार, भाजपा की नौ महीने की केन्द्र सरकार के प्रति अविश्वास का प्रतीक है? क्योंकि, भाजपा ने जो सपने देश के लोगों को दिखाए थे और जो दावे डंके की चोट पर किए गए थे, वे चन्द महीनों में ही चुनावी 'जुमलों' की संज्ञा में तब्दील होते स्पष्ट दिखाई देने लगे थे। मात्र 49 दिन की अल्पमत वाली राज्य सरकार से एक-एक दिन का हिसाब मांगने वाले लोग, छ महीनों का हिसाब दिखाने के लिए आँखें तरेरते महसूस हुए। इसके साथ ही नई बोतल में पुरानी शराब बेचने की कोशिश भी की गई। केन्द्र की भाजपा सरकार अब तक पुरानी योजनाओं के नाम बदलने और नई योजनाओं के नाम पर औपचारिकताएं निभाने के सिवाय कुछ खास करती दिखाई ही नहीं दी है। 
       केन्द्र की मोदी सरकार के लिए दिल्ली विधानसभा चुनाव स्पष्ट सन्देश लेकर आए हैं कि उन्होंने जिन वायदों की बुनियाद पर सत्ता हासिल की है, जनता अब उन्हें  मूर्त रूप में परिवर्तित होते देखना चाहती है। अच्छे दिन आने वाले हैं जैसे सुनहरी सपनों को जनता अब हकीकत में जीने के लिए बेसब्र हो चली है। अब सिर्फ हवा-हवाई चिकनी चुपड़ी बातों और औपचारिकताओं से आम जनता का पेट भरने वाला नहीं है। जिन अपेक्षाओं पर कांग्रेस खरी नहीं उतर सकी, उन अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए मोदी सरकार को देश ने जनादेश दिया है। यह कटू सत्य है कि नई सरकार के नौ महीनों के दौरान आम आदमी को अच्छे दिनों का अहसास तनिक भी नहीं हुआ है। एक आम आदमी के समक्ष आज भी वही बुनियादी समस्याएं हैं, जो पहले थीं। आज भी मंहगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी, बेकारी, बेरोजगारी, बिजली, पानी, घर आदि की समस्याएं आम जनता के सामने मुंह फाड़े खड़ी हैं। इसका हकीकत से भाजपा भी अनजान नहीं है। 'नीति आयोग' की पहली बैठक में ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बदले तेवरों ने वास्तविकता का सहज अहसास करा दिया था। भाजपा के चाणक्य अमित शाह के ढ़ीले तेवरों ने भी काफी कुछ स्पष्ट कर दिया था।
       दिल्ली विधानसभा चुनावों के सरताज 'आम आदमी पार्टी' के संयोजक अरविन्द केजरीवाल ने अपनी जीत को भाजपा और कांग्रेस के अंहकार का परिणाम करार दिया है। लेकिन, हकीकत यह है कि इस जीत के पीछे अंहकार से कहीं बढक़र 'झूठ', 'फरेब' और 'अमर्यादित'  राजनीति रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने कद को भुलाकर जिस तरह से अरविन्द केजरीवाल को 'अराजक' और 'नक्सली' बताकर नकारात्मक चुनावी प्रचार किया, जिस निम्र स्तर पर जाकर भाजपा ने  'विज्ञापन-वार' किये और भाजपा प्रचारकों ने जिन असभ्य व अमर्यादित संज्ञाओं से अपने प्रतिद्वन्द्वी प्रत्याशियों को नवाजा, उसने लोकतंत्र की मान-मर्यादाओं को ध्वस्त करके रख दिया। गणतंत्र दिवस पर बिना संशोधन किए देश के संविधान की प्रस्तावना से 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवाद' शब्दों को हटाया गया, जिस तरह से देशभर में 'घर वापसी' के नाम पर धर्मान्तरण का पाखण्ड शुरू हुआ और जिस तरह से मुस्लिमों पर हावी होने की संकीर्ण मानसिकता के साथ हिन्दू औरतों पर चार से दस बच्चे पैदा करने के लिए हो-हल्ला मचाया गया, वह एक लोकतांत्रिक देश की आत्मा को कड़ी ठेस पहुंचाने वाले कुकत्र्य कहे जा सकते हैं। बेलगाम अध्यादेशों के जरिए अपनी मनमानी थोपना, क्या पूर्ण बहुमत का अपमान नहीं है?
       दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम केन्द्र की भाजपा सरकार के लिए कड़ी चेतावनी लेकर आए हैं। भाजपा को बड़ी गम्भीरता के साथ आत्म-मंथन करना चाहिए। उसे स्मरण रखना चाहिए कि काठ की हाण्डी बार-बार नहीं चढ़ती। यदि भाजपा ने अपनी गलतियों और भूलों का जल्द से जल्द नहीं सुधारा तो कहने की आवश्यकता नहीं है कि जिस तरह से दिल्ली 'कांग्रेस-मुक्त' हुई है, वह भी दशकों तक 'देश-मुक्ति' के अभिशाप का शिकार हो सकती है। दिल्ली में केजरीवाल की जीत से कहीं बढक़र मोदी की हार है। यदि दिल्ली विधानसभा के चुनावी परिणामों को 'जुमलों' पर 'जुनून' की जीत करार दी जाये तो कदापि गलत नहीं होगा। इस कड़वी सच्चाई को चाहे कोई स्वीकार करे या न करे। लेकिन, हकीकत यही है। मोदी व उसके सिपहसालार जितना जल्दी इस कटू सत्य को स्वीकार कर लें, उनके लिए उतना ही अधिक फायदेमंद रहेगा।
       देश के चुनावी इतिहास में एक अनूठा अध्याय लिखने वाले अरविन्द केजरीवाल का यह कहना कि इतनी बड़ी जीत से उन्हें डर लगता है। उनका यह उद्गार अच्छे संकेत देता है। जब तक इस डर का अहसास सत्तारूढ़ दल में बना रहता है, तब तक वह लोकतांत्रिक प्रणाली का सच्चा प्रतिनिधित्व करता है और जब इस डर का अस्तित्व समाप्त हो जाता है तो सत्तारूढ़ दल अपने विवेक, उत्तरदायित्व और  कत्र्तव्यनिष्ठा को खो देता है। केन्द्र की भाजपा सरकार के लिए अभी कोई देर नहीं हुई है। उसके पास आत्म-मंथन करने और अपनी भूलों को सुधारने का अभी पर्याप्त समय है। दूसरी तरफ, 'आम आदमी पार्टी' के नेताओं और दिल्ली के होने वाले नए मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के लिए दिल्ली की यह अप्रत्याशित एवं ऐतिहासिक जीत, पहले से कहीं बढक़र बड़ी जिम्मेदारियों एवं चुनौतियों की द्योतक हैं।
       यदि अरविन्द केजरीवाल दिल्ली की जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे और उन्होंने अपने चुनावी वायदों को अमलीजामा नहीं पहनाया तो देश की जनता उन्हें कभी माफ नहीं करेगी। उन्हें यह भी याद रखना होगा कि देश सिर्फ धरने-प्रदर्शनों से चलने वाला नहीं है। यदि 'आम आदमी पार्टी' भी अपने जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ती है तो यह देश के लोकतंत्र के साथ सबसे गहरा कुठाराघात होगा। पूरे देश की जनता की नजरें उनकें एक-एक कदम पर होगी, क्योंकि उन्होंने देशभर में नई उम्मीदों का संचार करने में कामयाबी हासिल की है। यदि अरविन्द केजरीवाल अपने कार्यशैली से दिल्ली का दिल जीतने में कामयाब हो जाते हैं तो उसे लाल किले की प्राचीर पर खड़ा होने से कोई भी ताकत नहीं रोक सकती। एक अच्छे शासन के लिए उन्हें अनावश्यक विवादों से बचकर चलना होगा। हर कदम फूंक-फूंककर रखना होगा।
       प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनावी रूझानों के पहले चरण में ही अरविन्द केजरीवाल को बधाई देना और भाजपा मुख्यमंत्री प्रत्याशी किरन बेदी द्वारा फूल माक्र्स के साथ बधाई देना, जहां लोकतांत्रिक नैतिकता की पालना का सुखद अहसास कराता है, वहीं यह भी संभावना जगाता है कि भाजपा की केन्द्र सरकार उदारता का परिचय देते हुए दिल्ली की 'आम आदमी पार्टी' का पूरा सहयोग करेगी। दिल्ली देश का दिल है। पूरी दुनिया के लिए दिल्ली देश का आईना है। ऐसे में यदि दिल्ली की तरक्की को देश की तरक्की की संज्ञा दी जाये तो कदापि गलत नहीं होगा। दिल्ली सबकी है, यह सबको सदैव स्मरण रखना होगा। अत: सबको तमाम राजनीतिक मतभेदों और मानसिक संकीर्णताओं को छोडक़र, समूचे राष्ट की उन्नति एवं समृद्धि की नई ईबारत लिखने में अपना उल्लेखनीय योगदान देना सुनिश्चित करना चाहिए।

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