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बुधवार, 4 मार्च 2015

लोकगीतों में होली के रंग

म्हारी रीत / म्हारे गीत : होली के परम्परागत गीत

लोकगीतों में होली के रंग
- राजेश कश्यप
होली के गीत
फागण (फाल्गुन) का पूरा महीना ही मस्ती भरा होता है। इस महीने में प्रकृति की छठा भी देखते ही बनती है। प्रकृति का कण-कण मस्ती व उमंग से सराबोर दिखलाई पड़ता है। इस मास की मस्ती व उमंग-तरंगों की पराकाष्ठा को यह लोकगीत साक्षात् उद्धृत करता है:-
काच्ची अम्बली गदराई सामण में,
बूढ़ी ए लुगाई मस्ताई  फागण में !
जिस माह में वृद्धों में भी उमंग व मस्ती का आलम चरम पर पहुंच जाता है, तो सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जवां लोगों में फागण की कितनी मस्ती भर जाती होगी। फागण मास में मुख्य त्यौहार होली व दुलैहन्डी आते हैं। होली का पर्व फागण की पूर्णिमा को पूरी धूमधाम से मनाय जाता है।
होली का त्यौहार आने से पहले ही कन्याएं तरह-तरह से गोबर की 'ढ़ालÓ बनाती हैं और सुखा लेती हैं। होली वाले दिन शाम को निश्चित की हुई जगह पर लड़कियां संज-संवरकर गीत गाती हुई पहुंचती हैं और सुखाई हुई ढ़ालों को डाल देती हैं। सूर्यास्त के समय तक पूरे गाँव भर की ढ़ालों से बहुत बड़ा ढ़ेर लग जाता है। तब इस ढ़ेर को आग लगाई जाती है और जलती हुई लपटों के बीच से भक्त प्रहल्लाद को सकुशल निकालने का और अधर्म का साथ देने वाली होलिका के जलने का स्वांग रचा जाता है। अधर्म पर धर्म की, असत्य पर सत्य की, पाप पर पुण्य की जीत का प्रसंग पूर्ण करने के उपरांत सभी लोग हंसते-गाते घर लौटते हैं। होली वाले दिन तो घर-घर में अच्छे-अच्छे पकवान बनाए जाते हैं, सजा-संवरा जाता है और बधाईयां दी जाती हैं।
होली के अगले ही दिन मस्ती व रंगों से भरा 'फागण' खेला जाता है। वैसे फागण मास में फाग खेलने का उत्साह व रोमांच सबसे अलग हटकर होता है। सभी नर-नारी और बच्चे-बूढ़े फागण मास का बेसब्री से इंतजार करते हैं। प्रेम प्रसार का प्रतीक यह पर्व सबके मन में उत्साह, उमंग तथा प्रेम का संचार करता है। सभी नर-नारी, बच्चे-बूढ़े इस पर्व पर एक दूसरे को रंगों में रंग डालते हैं और अबीर व गुलाल उड़ाते हुए झांझ, मृदंग, मंजीरे, ढ़ोलक, डुली बजाकर हंसते, गाते तथा नाचते हैं। कहना न होगा कि इस प्रेम के पावन पर्व पर सभी ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा, जाति-पाति, छुआछूत आदि सब भेदभाव भूला दिए जाते हैं और इसी कारण सभी आपसी गिले-शिकवे भी समाप्त हो जाते हैं। फागण मास में प्रेम और प्यार की बयार और प्रकृति का श्रृंगार देखते ही बनता है।
फागण के मस्त महीने में नई-नवेली दुल्हनों की उमंग व चाव को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। नव यौवनाएं फागण की मस्ती का खूब आनंद लेती हैं। वे तरह तरह के रंगीले व शोख तथा मस्ती भरे गीत गाती हैं। एक बानगी देखिए:-
अहा रे लाला !!
फागण आया रंग भर्या रे लाला !
नई नवेली दुल्हनें देवर संग फाग खेलने के लिए बड़ी उतावली रहती हैं। इसकी पुष्टि यह लोकगीत बखूबी कर रहा है:-
लिया देवर रंग घोल कै, खेलांगे होली आज !
सिर मेरे पै चुंदड़ी सोहै, मार पिचकारी घुंघट नै छोड़ कै !
पां मेरे मं पायल सोहै, मार पिचकारी नेवरीयां नै छोड़ कै !!
लिया देवर रंग घोल कै, खेलांगे होली आज !
सचमुच नई-नवेली दुल्हन के लिए पहले फागण मास का बड़ा चाव होता है। यदि बदकिस्मती से किसी दुल्हन का पति कहीं बाहर गया हुआ होता है और फागण का मस्ती भरा मास आ जाता है तो उसे बड़ी पीड़ा होती है। इसी पीड़ा का उल्लेख इस लोकगीत में मिलता है:-
जब साजन ही परदेस गए, मस्ताना फागण क्यूं आया !
जब सारा फागण बीत गया तै, घर मैं साजन क्यूं आया !!
प्रत्येक नई-नवेली दुल्हन चाहती है कि फागण के मस्त महीने में उसका पति उसके साथ रहे। प्रत्येक नव-दम्पति यह प्रयास करता है कि वे दोनों मिलकर फागण की मस्ती में मस्त रहें, अटखेलियां करें और आनंद-विभोर हो जाएं। जहां नई दुल्हनें पति के साथ शोख व मस्ती भरी अटखेलियां करने के लिए लालायित रहती हैं वहीं नवयुवक भी अपनी नई-नवेली दुल्हन के साथ प्यार-प्रेम के रस में सराबोर होने की बाट जोहते हैं। नवविवाहित युवक अपनी दुल्हन को फागण मास की मस्ती में इस प्रकार रोमांचित करता है:-
फागण के दिन चार री सजनी, फागण के दिन चार !
मध जोबन आया फागण मं, फागण भी आया जोबन मं !!
झाल उठैं सैं मेरे मन मं, जिनका कोई पार ना सजनी !
फागण के दिन चार री सजनी, फागण के दिन चार !!
फागण मास में राधा-कृष्ण व गोपियों के बीच खेले जाने वाले रास को बराबर याद किया जाता है। ऐसे में नन्दलाल श्रीकृष्ण का फाग के लोकगीतों में आना स्वभाविक है। एक बानकी प्रस्तुत है:-
होली खेल रहे नन्दलाल...!
पूरब मं राधा प्यारी, पश्चिम मं कृष्ण मुरारी !!
एक अन्य लोकगीत में श्रीकृष्ण को श्याम नाम से पुकारते हुए कहती हैं:-
मत मारो श्याम पिचकारी, मेरी भीगी चुनरिया सारी !
सुसर सुनेंगे देंगे गाली, सास सुनेंगी लाखों कहेंगी !!
मत मारो श्याम पिचकारी, मेरी भीगी चुनरिया सारी !
महिलाओं द्वारा फागण मास में गाए जाने वाले गीतों में अधिकतर राधा-कृष्ण का ही उल्लेख मिलता है। लेकिन कई लोकगीतों में शिव, पार्वती, राम आदि के नामों का जिक्र भी होता है। शिव-पार्वती द्वारा आपस में होली खेलने का वर्णन लोकगीतों में इस प्रकार वर्णन किया गया है:-
होरी खेले महादेव और गौरी
कोना के हाथ कंचन पिचकारी
कोना के हाथ भभूत गोला
गोरा के हाथ कंचन पिचकारी
गोरा की भीजै सुरख चुनरिया
भोला की भीजै मृग-छाला
भगवान राम द्वारा होली खेलने का प्रसंग लोकगीतों में कुछ इस प्रकार वर्णित है:-
राम जन्म हुयोर होली खेलोर !
दशरथ को राम होली खेलो !!
इस प्रकार हम देखते हैं कि फागण मास के लोकगीत हरियाणा भर में बड़े चाव व उमंग के साथ गाए जाते हैं और फागण मास जैसे रंगीले और मस्ती भरे त्यौहार का खूब आनंद लूटा जाता है।
बड़ी विडम्बना का विषय है कि आपसी ईष्र्या-द्वेष, मानसिक संकीर्णता, मन-मुटाव, गलतफहमियों आदि के चलते फागण के रंग निरंतर फीके होते चले जा रहे हैं। किसी भी त्यौहार को पारंपरिक अन्दाज में मनाया जाना ही हमारी अमूल्य सांस्कृति धरोहर है। जब तक हमारी सांस्कृतिक धरोहर और परम्परा जीवित है तब तक ही हमारा मूल वजूद मौजूद रहेगा। इसलिए हमें प्रत्येक पर्व को आपसी सभी गिले-शिकवे भूलाकर अति उमंग व उत्साह के साथ मनाना चाहिए ओर अपनी संस्कृति व सभ्यता को जीवन्त रखना चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार  हैं।)

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