सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के निहितार्थ
-राजेश कश्यप
देश के सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने गत 21 जुलाई को केन्द्र सरकार की जाट आरक्षण के मामले में दायर की गई पुर्नविचार याचिका खारिज करते हुए, पुन: स्पष्ट किया है कि जाट सम्पन्न हैं और वे आरक्षण के हकदार नहीं हैं। हम सरकार से सहमत नहीं हो सकते कि 9 राज्यों में जाट सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने 17 मार्च, 2015 को अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में नौ राज्यों गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार और मध्य प्रदेश के जाटों को पिछली कांगे्रस सरकार द्वारा दिया गया ओबीसी आरक्षण रद्द कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि जाट जैसी राजनीतिक रूप से संगठित जातियों को ओबीसी की सूची में शामिल करना अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सही नहीं है। न्यायालय ने पाया था कि केन्द्र ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) के पैनल के उस निष्कर्ष को उपेक्षित किया है, जिसमें कहा गया था कि जाट पिछड़ी जाति नहीं हैं। इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अतीत में ओबीसी सूची में किसी जाति को संभावित तौरपर गलत रूप से शामिल किया जाना, गलत रूप से दूसरी जातियों को शामिल करने का आधार नहीं हो सकता है। हालांकि जाति एक प्रमख कारक है, लेकिन पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए यह एकमात्र विकल्प नहीं हो सकती है। यह सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का यह अटल फैसला जहां देश के गरीब पिछड़े लोगों के लिए न्यायिक प्रणाली में आस्था बढ़ाने वाला है, वहीं उन संकीर्ण सियासतदारों के लिए कड़ा सबक हैं, जो अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए गरीबों के हकों पर डाका डालने से भी गुरेज नहीं करते। गत घपलों, घोटालों और भ्रष्टाचार की दलदल में फंसी यूपीए सरकार अपनी नैया पार लगाने के लिए अनैतिक एवं असंवैधानिक रूप से ‘कास्टिज्म कार्ड’ खेलने से भी बाज नहीं आई और सभी कायदे-कानूनों को धत्ता बताते हुए 4 मार्च, 2014 को देश के नौ राज्यों के अलावा केन्द्रीय सूची में जाटों को ओबीसी में शामिल करने के लिए हरी झण्डी दे दी। कमाल की बात यह रही कि सरकार ने यह अध्यादेश राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग के सर्वेक्षण के आंकड़े आने से पहले ही इतना बड़ा निर्णय ले लिया। यही नहीं, सरकार ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) की असहमति की भी कोई परवाह नहीं की और उसके सर्वसम्मत फैसले को ठुकराकर जाटों को आरक्षण दिया गया। एनसीबीसी ने केन्द्र सरकार को 125 पेज की रिपोर्ट सौंपकर जाटों को आरक्षण देने पर ऐतराज जताया था। एनसीबीसी ने 4-0 से जाट आरक्षण के खिलाफ फैसला देते हुए तर्क दिया था कि जाट न तो सामाजिक या आर्थिक या अन्य किसी लिहाज से पिछड़े हुए हैं। हालांकि कुछ राज्यों ने जाटों को आरक्षण दिया है, लेकिन केन्द्र सरकार के स्तर पर उन्हें यह सुविधा देना गलत होगा। आयोग के चेयरमैन न्यायमूर्ति वी. ईश्वरैय्या और तीन अन्य सदस्यों एस.के. खरवेतन, ए.के.सीकरी और अशोक मंगोत्रा को जाट आरक्षण का कोई भी औचित्य नजर नहीं आया। एनसीबीसी ने विभिन्न अध्ययनों के बाद ही जाट आरक्षण के खिलाफ 4-0 से फैसला दिया था। इसके बावजूद केन्द्रीय मंत्रीमण्डल ने आयोग की रिपोर्ट को खारिज करते हुए आरक्षण दे डाला। वर्ष 1993 में गठित एनसीबीसी के विधान के मुताबिक केन्द्र सरकार की किसी भी सिफारिश को आयोग मानने के लिए बाध्य नहीं होगा और आयोग की सिफारिश को केन्द्र सरकार नकार नहीं सकेगी। लेकिन, जाट आरक्षण के मामले में विधान के ठीक उलट हुआ। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र हुड्डा सरकार ने बड़ी चालाकी से अपना पैंतरे खेला और आनन-फानन में जाटों को ‘विशेष पिछड़ा वर्ग’ के रूप में शामिल कर दस प्रतिशत आरक्षण का लाभ देने की घोषणा कर दी। चूंकि, केन्द्र की ओबीसी सूची में शामिल की जाने वाली प्रस्तावित जाति को राज्य की ओबीसी सूची में नामित होना अनिवार्य बनाया गया है। इसीलिए, केन्द्र में जाटों के लिए आरक्षण सुनिश्चित करवाने के लिए ही यह सब छल किया गया। लेकिन, उनका छल-प्रपंच सबके सामने आ चुका है। पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट ने भी प्रदेश में जाटों को असंवैधानिक रूप से दिये गए आरक्षण पर तीखे तेवर अपना लिये हैं और इस सन्दर्भ में प्रदेश सरकार से जवाब भी तलब कर लिया है। दूसरी तरफ, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों के एकेमेव नेता दिवंगत प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के बेटे चौधरी अजीत सिंह को अपने वोट बैंक सेंध लगती देख जाट आरक्षण के मुद्दे को अपनी राजनीतिक ढ़ाल बनाने से गुरेज नहीं किया। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1999-2000 में उत्तर प्रदेश के दिवंगत मुख्यमंत्री राम प्रकाश गुप्ता ने जाटों को ओबीसी कोटे में शामिल करने की कोशिश की थी। लेकिन, उत्तर प्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग ने दो टूक कह दिया था कि जाट आर्थिक और सामाजिक रूप से सम्पन्न हैं। इसलिए उन्हें आरक्षण देने की जरूरत नहीं है। इसी तरह राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग भी मौजूदा आंकड़ों के आधार पर जाटों को वर्ष 1997 में हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के जाटों को ओबीसी में शामिल करने की मांग खारिज कर दी थी। इससे पहले भी वर्ष 1953 में काका कालेरकर और वर्ष 1978 में गठित मण्डल कमीशन आयोग ने भी जाटों को ओबीसी में शामिल करने योग्य नहीं समझा था। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केन्द्र की पुनर्विचार याचिका खारिज किये जाने के बावजूद जाट आरक्षण की संकीर्ण सियासत पर अंकुश लगता दिखाई नहीं दे रहा है। जाट नेता सुप्रीम कोर्ट में केन्द्र सरकार पर ठोस पैरवी न करने का आरोप लगाते हुए कह रहे हैं कि वे अब कोर्ट की बजाय सरकार से आरक्षण लेंगे। केन्द्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए सितम्बर के अंतिम सप्ताह में दिल्ली कूच करने और दिल्ली की दूध-पानी व राशन सामग्री की सप्लाई को काटने के साथ-साथ रेल रोकने व पटरियां तक उखाड़ने की भी धमकियां दी जा रही हैं। क्या यह सब सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना नहीं है? क्या यह असंवैधानिकता नहीं है? क्या यह दबंगई नहीं है? दूसरी तरफ, अपनी ही पार्टी की नाराजगी झेलकर ओबीसी लोगों के पैरोकार बने हरियाणा के भाजपा सांसद राजकुमार सैनी ने जहां सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का दिल खोलकर स्वागत किया है, वहीं जाटों को जाटों को मनमानी व दबंगई करने से बाज आने व देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले का सम्मान करने की नसीहत भी दी है। इसके साथ ही उन्होंने ऐलान किया है कि यदि जाटों ने दिल्ली का दूध-पानी की सप्लाई बंद करने की कोशिश की तो नवगठित राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग ब्रिगेड सप्लाई बहाल करने में ऐड़ी चोटी का जोर लगा देगा, लेकिन उनकीं धमकियों के आगे केन्द्र सरकार को घुटने नहीं टेकने दिया जायेगा। दोनों पक्षों के बीच तनातनी चरम पर पहुंच चुकी है। दोनों तरफ से अपने हक पर मर मिट जाने तक के ऐलान किये जा रहे हैं। इन सब समीकरणों के बीच, लॉ एण्ड ऑर्डर टूटने की स्थिति पैदा होने से इंकार नहीं किया जा सकता। इसके साथ ही जाट आरक्षण की संकीर्ण सियासत के चलते सामाजिक सौहार्द भी बिगड़ने का डर है। ऐसे में, फैसले से प्रभावित नौ राज्यों की सरकारों को व केन्द्र सरकार को समय रहते ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही, जाट बिरादरी के नेताओं के साथ-साथ पिछड़ा वर्ग के लोगों को भी संयम व समझदारी से काम लेना होगा और आपसी सौहार्द व भातृभाव बनाये रखने में अपना अहम योगदान देना सुश्चित करना होगा। हमें यह कदापि नहीं भूलना होगा कि कानून सबके लिए बराबर है और उसका सम्मान करना सभी का परमदायित्व बनता है। ब्लैकमेंलिंग अथवा दबंगई करके न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करना अथवा उस पर लांछन लगाना या फिर जनप्रतिनिधि सरकारों को अनावश्यक दबाव में लाना या लॉ एण्ड ऑर्डर के लिए खतरा पैदा करना, एकदम असंवैधानिक व निंदनीय कृत्य है।
(राजेश कश्यप)
स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक।
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राजेश कश्यप
(स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक)
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(लेखक परिचय: हिन्दी और पत्रकारिता एवं जनसंचार में द्वय स्नातकोत्तर। दो दशक से सक्रिय समाजसेवा व स्वतंत्र लेखन जारी। प्रतिष्ठित राष्ट्रीय समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में तीन हजार से अधिक लेख एवं समीक्षाएं प्रकाशित। आधा दर्जन पुस्तकें प्रकाशित। दर्जनों वार्ताएं, परिसंवाद, बातचीत, नाटक एवं नाटिकाएं आकाशवाणी रोहतक केन्द्र से प्रसारित। कई विशिष्ट सम्मान एवं पुरस्कार हासिल।)
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